​भारत में विमुद्रीकरण:

Created On: 09-05-2018,5:47 AM

क्राउथर ने कहा था कि मुद्रा आधुनिक समय में किये गये मनुष्य द्वारा तीन प्रमुख आविष्कारों- मुद्रा, पहिया तथा वोट में से एक है। सच्चाई तो यह है कि मुद्रा के बिना आधुनिक अर्थव्यवस्था की कल्पना ही नहीं की जा सकती। आर्थिक व्यवहार के सुचारू रूप से, सरल ढंग से संचालित करने में मुद्रा बहुत सहायक होती है और इसी मुद्रा की किसी निश्चित इकाई जैसे र 500 या र 1000 के प्रवाह को रोक देना यानी बाजार में चल रही नोट की इकाई को अमान्य कर देना, विमुद्रीकरण कहलाता है। 8 नवंबर, 2016 को भारत के प्रधानमंत्री ने राष्ट्र को संबोधित करते हुए यह घोषणा की ‘‘मध्य रात्रि से 500 और 1000 रुपये के नोट अब वैधानिक मुद्रा नहीं बल्कि ये नोट मात्र कागज के टुकड़े भर रह जाएंगे।’’ अर्थात् 8 नवंबर, 2016 की मध्य रात्रि के बाद 500 और 1000 रुपये के नोटों पर अंकित यह वचन की ‘‘मैं धारक को 500 र- अदा करने का वचन देता हूं’’ अब कानूनी बाध्यता के अन्तर्गत नहीं आएगा।

प्रधानमंत्री के उपरोक्त उद्घोषणा करते ही भारतीय जनमानस में एक विस्मयकारी रोमांच पैदा हो गया। सामान्य तौर पर लोगों ने इसे काला धन भ्रष्टाचार के प्रति कठोर आक्रामक नीति के तौर पर सराहा और इसी बात के चर्चे गली-गली, मुहल्ले, दुकानों, टीवी चैनलों पर होने गली। अब जो बात यहां महत्वपूर्ण है और जेहन में उठती है कि विमुद्रीकरण की जरूरत क्यों पड़ी? इसका भारतीय आर्थिक सामाजिक परिप्रेक्ष्य में उपयोगिता है, क्या इससे पहले विमुद्रीकरण हुआ था उसके क्या लाभ हुए क्या विमुद्रीकरण प्रभावी रहा, यदि रहा तो कहां तक नहीं रहा तो किस सीमा तक इसने भारतीय अर्थव्यवस्था और राजनीति को प्रभावित किया और भारतीय समाज और उसके सदस्यों की सोच पर इसका कितना असर हुआ?

अगर विमुद्रीकरण पर हुए पूर्व के फैसलों को देखा जाय तो भारत में सबसे पहले 1946 में विमुद्रीकरण किया गया। दूसरी बार 1978 में मोरारजी देसाई सरकार ने बड़े नोटों का विमुद्रीकरण किया था। उस समय भी उसी प्रकार की समस्याएं जनता के सामने आयी थी जैसी 8 नवंबर, 2016 के समय आयी। बैंकों में लम्बी कतार, नोटों को बदलने की कालाबाजारी जैसे की जनवरी 1946 की इंडियन एक्सप्रेस की न्यूज के अनुसार 500, 1,000, 10,000 के नोटों को लोग 60 से 70 प्रतिशत मूल्य पर बदल रहे थे। इसी समाचार-पत्र के अनुसार कराची की एक महिला की मृत्यु सदमे से हो गई क्योंकि उसके पास एक लाख रुपये मूल्य के बड़े नोट थे। कमोबेश यही स्थिति 1978 में मोरारजी देसाई सरकार के समय में भी रही। तो फिर इन दृष्टांतों के बावजूद भी सरकार को एक कठोर फैसला क्यों लेना पड़ा इसके पीछे गंभीर कारण मौजूद हैं। प्रथम तो भारतीय मुद्रा बाजार में जीडीपी कैश अनुपात बहुत अधिक था जो कि 2016 में 10-6 प्रतिशत था जो पिछले 16 वर्षों में उच्चतम अवस्था थी। इस घटना का सीधा सा मतलब अर्थव्यवस्था में कैश जितना अधिक होगा उसका काले धन के रूप में उतना ही प्रयोग बढ़ जाता है। आरबीआई की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में विमुद्रीकरण से पहले 9026 करोड़ नोट अर्थव्यवस्था में प्रवाहित किये गए थे लेकिन उनमें से कुल 2203 करोड़ नोट ही प्रचलन में थे अर्थात एक बहुत बड़ी मात्र में नोटों की संख्या को स्टोर किये जाने का प्रचलन था जिससे एक समानान्तर काली अर्थव्यवस्था चलती थी।

इस काली अर्थव्यवस्था का दूसरा पहलू है काला धन। यह काला धन आता कैसे है। जब नागरिक अपनी आय का सही विवरण नहीं देता और कर चुकाने की जगह अपनी आय छुपा लेता है तो वही बची हुई मुद्रा काली मुद्रा हो जाती है जिसे बैंक के माध्यम से प्रयोग में लाने के बजाय कैश के रूप में चोरी-छिपे प्रयोग करता है। इससे सरकार को कर आय की कम प्राप्ति होती है और कर चोरी करने वाला मनी लॉन्डरिंग जैसी तकनीक के माध्यम से अपने धन को सफेद कर लेता है जिसका कोई लाभ न तो सरकार उठा पाती है न उसे जनता के हित में प्रयोग कर पाती है। इसका सबसे बड़ा दुष्परिणाम तो यह होता है कि देश का पैसा टैक्स हैवेन देशों में चला जाता है।

विमुद्रीकरण की नीति का बहुत बड़ा फायदा सरकार के कर राजस्व की वृद्धि के रूप में सामने आया। जिन लोगों ने बड़ी नोटों को स्टोर कर रखा था उन्होंने अपना बकाया कर जमा कर दिया। बिजली विभाग के बकाया बिल राशि जमा होने में तेजी आयी।

विमुद्रीकरण का एक और महत्वपूर्ण लाभ आतंकवादियों को होने वाली गैर-कानूनी फंडिग में रोक लगी वहीं हवाला कारोबार पर भी प्रभावी रोक लगाने में सफलता हासिल हुई। क्योंकि व्यक्ति पर हर नोट की जवाबदेयता तय की गई जब भी कोई व्यक्ति बैंक में नोट जमा करने गया उसे कड़ी कागजी प्रक्रिया से गुजरना पड़ा। किसी भी वित्तीय संस्थान के माध्यम से जमा की गई धनराशि की जांच पड़ताल आयकर विभाग द्वारा की जा रही है। इससे बड़ी राशि जमा करने वाली संख्याओं की शिनाख्त कर कार्यवाही हो पर रही है।

यही नहीं सीमापार से हो रही जाली नोटों के बारोबार को भी एक झटके में समाप्त कर दिया था गया। इसके स्पष्ट प्रमाण कश्मीर में पत्थरबाजी की घटनाओं में आयी कमी के रूप में देखा गया जो आतंकवादियों के वित्तीय प्रबंधन और जाली करेंसी पर आये चोट को दर्शाता है।

विमुद्रीकरण का लाभ देश की अर्थव्यवस्था को कैशलेश अर्थव्यवस्था की ओर ले जाने के रूप में भी सामने आया है। विश्व बैंक का कहना है कि कैशलेश अर्थव्यवस्था से अधिक से अधिक पारदर्शिता आयेगी क्योंकि जब किसी भी प्रकार का खरीदफरोख्त इंटरनेट के माध्यम से होगा तो सरकार के लिए इस पर नजर रखना आसान होगा। यही नहीं कैशलेश से मौद्रिक लेन-देन में भी आसानी और सुविधा का मार्ग प्रशस्त हुआ। आप रात्रि के समय अपने घर में बैठकर ही किसी को भी वांछित धनराशि कहीं भी भेज सकते हैं। मुद्रा के भौतिक रूप में प्रयोग से किसी भी खतरे जैसे चोरी, छिनैती की घटनाओं का मानसिक तनाव भी नागरिकों पर नहीं होगा। विश्व विमुद्रीकरण से रियल स्टेट जैसे क्षेत्र का जनता के पक्ष में सकारात्मक प्रभाव पड़ा है। संपत्तियों के दाम कम हुए हैं। लोगों के लिए घर खरीद पाना सस्ता और आसान हुआ है। विमुद्रीकरण से लोगों ने आखिर कार क्रेडिट कार्ड/डेबिट कार्ड और इलेक्ट्रॉनिक भुगतान के अन्य चैनलों के रूप में प्लास्टिक मुद्रा में विश्वास करना शुरू कर दिया है। ऑनलाइन बैंकिंग बाजार को प्रमुखता मिली इससे अर्थव्यवस्था के बेहतर विकास के लिए अच्छा माना गया।

ब्लैक मनी, जाली नोट, आतंकी फंडिग जैसी खतरनाक प्रवृत्तियां जो देश की अर्थव्यवस्था और सुरक्षा के लिए खतरा बनते जा रहे थे। ऐसे में जरूरी था कि सरकार कोई ऐसा कदम उठाए जिससे अर्थव्यवस्था के लिए नासूर बनते जा रहे काले धन और जाली नोटों के खेल पर करारा प्रहार हो सके। देश की वर्तमान मोदी सरकार द्वारा लिया गया विमुद्रीकरण का फैसला इसी दिशा में उठाया गया एक सफल प्रयास कहा जा सकता है। सफल इसलिए कि अब तक की सरकारी रिपोर्ट के अनुसार विमुद्रीकरण के बाद टैक्स कलेक्शन में 14-5» की बढ़ोतरी हो चुकी है। काले धन के एक बड़े भाग के अर्थव्यवस्था की मुख्य धारा में आने से बैंकों में डिपॉजिट बढ़ेंगे, बैंकों के पास पर्याप्त मात्र में धन आने से वे कर्ज का प्रवाह बढ़ाएंगे जिससे सस्ते दर पर कर्ज की उपलब्धता सुनिश्चित हो सकेगी। सरकार के हिस्से में आए रकम से सरकार जनकल्याणकारी कार्यक्रमों-योजनाओं का दायरा बढ़ा सकेगी, कैशलेश इकोनॉमी का लक्ष्य तो सरकार के लिए विमुद्रीकरण के परिणामों में सबसे बड़ा वरदान साबित होने जा रही है।

यद्यपि विमुद्रीमकरण का फैसला किसी भी सरकार का एक साहसपूर्ण निर्णय कहा जाता है क्योंकि ऐसे निर्णयों की सफलता इसके गुप्त और अचानक निर्णय पर ही निर्भर करता है लेकिन ये फैसला एक दुधारी तलवार जैसा होता है क्योंकि इससे एक तरफ जनता को बहुत सारी परेशानियों का सामना करना पड़ता है तो दूसरी ओर जरूरी नहीं कि जिस उद्देश्य के लिए सरकार इसका फैसला लेती है वह भी पूरी तरह से सफल ही हो सके। भारत में विमुद्रीकरण से पहले भी कुछ देशों ने ऐसा किया परन्तु वांछित सफलता नहीं प्राप्त कर सके।

घाना ने 1982 में विमुद्रीकरण किया, वहां की अर्थव्यवस्था में करेंसी की कमी आ गयी फलतः वहां की जनता विदेशी करेंसी के पीछे भागी। नाइजीरिया में 1984 में विमुद्रीकरण हुआ लेकिन वहां महंगाई बेतहाशा बढ़ गई और ऐसा माना जाता है कि उसी समय वहां तख्ता पलट विमुद्रीकरण से नाराजगी के फलस्वरूप ही हुआ था। म्यांमार में 1987 और पूर्व सोवियत संघ में भी विमुद्रीकरण हुआ जिसके अच्छे परिणाम नहीं आए बाद में सोवियत संघ में काली अर्थव्यवस्था पर प्रहार के लिए मुद्रा का पुनर्मूल्यांकन किया जिसके तहत नोटों की प्रति इकाई मूल्य को एक हजार गुना तक कम कर दिया गया। इससे जनता को परेशानी भी नहीं हुई और जाली नोटों और काला धन में भी कमी लाई जा सकी।

बात भारत में विमुद्रीकरण के दोषों की की जाय तो, इस निर्णय से जनता को तात्कालिक तौर पर परेशानियों का सामना करना पड़ा। लोगों को अपने नोट, बैंकों में जमा कराने के लिए लम्बी लाइनों में लगना पड़ा। दैनिक खर्च के लिए आवश्यक कैश निकालने के लिए एटीएम के सामने लम्बी लाइनें लगानी पड़ी। समाचार-पत्रें की रिपोर्ट के अनुसार ठंड और पैसे के बर्बाद होने और बैंक कर्मचारियों को अत्यधिक काम के दबाव के कारण भारी तनाव से गुजरना पड़ा जिसमें 100 से ज्यादा लोगों की जानें गई। अस्पताल में मरीज, विवाह जैसे सामाजिक कार्यों में लोगों को बहुत परेशानी उठानी पड़ी। ये तो तात्कालिन परिस्थितिजन्य परेशानियां थीं। लेकिन विमुद्रीकरण की नीति आलोचकों की नजर में अपने उद्देश्य में भी असफल हुई जिससे अर्थव्यवस्था को क्षती उठानी पड़ी।

ज्यां द्रेज का कहना है कि एक विकसित होती अर्थव्यवस्था में विमुद्रीकरण रेसिंग कार की टायर में गोली मार देने जैसी है। इनका कहना है कि विमुद्रीकरण से केवल गैर-कानूनी ढंग से जमा बैंक नोट को निशाना बनाया जा सकता है लेकिन ऐसे नोट प्रायः सूटकेस में भरकर रखने के बजाय खर्च कर देते हैं जो कि निवेश के रूप में होता है। दूसरों को कर्ज दे देते हैं, जमीन-जायदाद खरीद लेते हैं।

भारतीय जनता पार्टी से सम्बद्ध संगठन भारतीय मजदूर संघ का कहना है कि 25,000 असंगठित क्षेत्र से जुड़ी आर्थिक इकाईयां बंद हो गई। रियल स्टेट क्षेत्र से जुड़े हजारों मजदूर बेरोजगार हो गये। कृषि जो कि कैश अर्थव्यवस्था पर निर्भर है। 80» नकदी वापस बैंकों में खींच लेने से बुरी तरह प्रभावित हुई। चूंकि 11-8 फीसदी अर्थव्यवस्था नकदी के भरोसे चल रही थी। अतः नकदी पर आधारित खपत खत्म हो जाने से बहुत सारे दैनिक उत्पाद सम्बन्धी उद्योग बुरी तरह चरमरा गये, इससे बाजार पर मंदी की मार पड़ी। जीडीपी तात्कालकि तौर पर 0-5 प्रतिशत तक गिर गई। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जोकि स्वयं अर्थशास्त्री हैं का दावा है कि इससे अर्थव्यवस्था दो प्रतिशत तक गिर गई। स्वयं सरकार का अनुमान था कि लगभग 3 लाख करोड़ रुपये बैंकों में वापस नहीं आएंगे जो बेकार हो जायेंगे लेकिन जून 30 तक ही 15-28 ट्रिलियन रुपये अथार्त 99» विमुद्रित नोट बैंक में जमा हो गए सभी ब्लैक मनी जो कैश के रूप में थी वापस बैंक में आ गई।

उपरोक्त तथ्यों से तो यही विदित होता है कि विमुद्रीकरण की नीति के जो उद्देश्य सरकार ने तय किये थे वे पाये नहीं जा सके, जिसके पीछे बिना पूरी तैयारी के इसे लागू करने की जल्दबाजी थी। किसी विचारक ने कहा है कि राजनेता चौकाना चाहते हैं लेकिन अर्थव्यवस्था का तकाजा है स्थिरता ताकि लम्बे समय के लिए निवेश किया जा सके। सरकार के फैसलों का सियासी फायदा नुकसान तो चुनावी आंकड़ों से ही पता चलता है। आर्थिक आकड़े रोज आते हैं और फैसलों पर फैसला सुनाते हैं।

बात तो सच ही है जहां विमुद्रीकरण के बाद ही हुए उत्तर प्रदेश चुनाव जो दुनिया के पांच सर्वाधिक जनसंख्या वाले देशों के बाद छठे नम्बर पर आता है भाजपा को प्रचण्ड बहुमत मिला। लेकिन अर्थव्यवस्था की तस्वीर अभी भी साफ नहीं है। भविष्य में विमुद्रीकरण के फायदों के वादे किये जा रहे हैं लेकिन महान अथर्शास्त्री कीन्स का कहना था कि आखिर में तो हम सब को मर ही जाना है। चिकित्सक वही योग्य माना जाएगा जो रोग के सही पहचान के साथ दवा भी ऐसी दे जिसका कम से कम साइडइफेक्ट हो।

अगर विमुद्रीकरण की सारी कार्य योजना और नीति को गहराई से अवलोकन किया जाय तो यह नीति एक अच्छी नियत के साथ ही लाई गई जिसका उद्देश्य भारतीय अर्थव्यवस्था से काले धन, भ्रष्टाचार, जाली नाटों को समाप्त करना था जिससे सरकार को कुछ हद तक सफलता तो मिली ही है आज देश कैशलेश अर्थव्यवस्था की ओर बढ़ रहा है जहां नवंबर 2016 में 67-2 करोड़ कैशलेश ट्रांजैक्शन होता था वहीं फरवरी 2017 में बढ़कर 76-3 करोड़ हो गया। मंहगाई दर मई 2016 के 3-63 प्रतिशत से घटकर जुलाई 2017 तक 2-36 प्रतिशत पर आ गई। आय कर अधिकारियों की रिपोर्ट है कि इस दौरान 25 प्रतिशत अधिक विवरण आये 2-27 करोड़ से आय कर रिटर्न बढ़कर 2-79 करोड़ हो गया।

अर्थात स्पष्ट है कि रुझान सही दिशा की ओर संकेत कर रहे हैं। कोई बदलाव रोतों-रात नहीं हो जाते हैं। सरकार ने भी अपना एजेण्डा स्पष्ट कर दिया है कि भ्रष्टाचार और काले धन को तो नष्ट करना ही है जो कि बेनामी सम्पत्ति कानून और दिवालिया कानून के संसद से पास होने से स्पष्ट होते हैं। इन कानूनों का सही कार्यान्वयन नौकरशाही द्वारा अगर किया गया तो निश्चित है भारत से काला धन और कर चोरी, भ्रष्टाचार जैसी बातें कहानी बनकर किताबों में स्थान पायेंगी।


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