राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (NDMA)

30 मई, 2005 को राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनडीएमए) का गठन किया। आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 लागू होने के बाद अधिनियम के उपबंधों के अनुरूप 27 सितंबर, 2006 को एनडीएमए का गठन किया गया। इसमें 9 सदस्य हैं जिनमें से प्रधानमंत्री अध्यक्ष तथा एक सदस्य को उपाध्यक्ष के रूप में पदनामित किया गया है। प्राधिकरण को आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 में निम्नांकित कार्य सौंपे गए हैं-

  • आपदा प्रबंधन के लिए नीतियां योजनाएं तथा दिशा-निर्देश निर्धारित करना;
  • राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन योजना तथा भारत सरकार के मंत्रालयों/विभागों द्वारा तैयार योजनाओं का अनुमोदन करना
  • राज्य योजना निर्मित करने के लिए राज्य प्राधिकरणों के लिए दिशा-निर्देश निर्धारित करना;
  • आपदाओं की रोकथाम अथवा उनकी विकास योजनाओं तथा परियोजनाओं में इसके प्रभावों को कम-से-कम करने के उद्देश्य से उपायों हेतु सरकार के मंत्रालयों/विभागों द्वारा पालन किए जाने के लिए दिशा-निर्देश निर्धारित करना;
  • राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान के कार्यकरण हेतु स्थूल नीतियों एवं दिशा-निर्देश का निर्धारण करना;
  • प्रशमन के उद्देश्य से निधियों के प्रावधान की अनुशंसा करना;
  • आपदा प्रबंधन के लिए नीतियों और योजनाओं के प्रवर्तन और कार्यान्वयन का समन्वय करना;
  • बड़ी आपदाओं से प्रभावित दूसरे देशों को वैसी सहायता प्रदान करना जैसी केंद्र सरकार द्वारा निर्धारित की जाएं;
  • न्यूनीकरण के प्रयोजनार्थ निधियों के प्रावधान की सिफारिश करने तथा राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान की कार्यप्रणाली के लिए व्यापक नीतियां और दिशा-निर्देश निर्धारित करना।

उल्लेखनीय है कि राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के अध्यक्ष को धारा-6(3) के अंतर्गत यह शक्ति दी गई है कि आपातकाल की स्थिति में वह उपर्युक्त सभी या कुछ कार्य स्वयं निर्धारित कर सकेगा, किंतु उनका प्राधिकरण द्वारा कार्योत्तर अनुसमर्थन अनिवार्य होगा।

आपदा प्रबंधन

प्रकृति में चक्रवात, बाढ़, सूखा, भूकम्प, सुनामी जैसी आकस्मिक आपदाएं समय-समय पर आती रहती हैं। इनके कारण जीवन और सम्पत्ति की बहुत हानि होती है। प्राकृतिक आपदाओं के अतिरिक्त कुछ विपत्तियां मानवजनित भी होती हैं। मानवीय गतिविधियां जैसे आग, दुर्घटना, महामारी आदि द्वारा होने वाली आपदा विनाशकारी प्राकृतिक विपत्तियों की तरह ही आकस्मिक होती हैं और उन्हीं के समान विनाशकारी भी। इसके अलावा भारत रासायनिक, जैविक, विकिरणीय तथा नाभिकीय (सीबीआरएन) आपात स्थितियों तथा मानव-जनित अन्य आपदाओं से भी असुरक्षित है।

यह बहुत आवश्यक है कि इन प्राकृतिक और मानवीय आपदाओं का सामना करने और जहां तक सम्भव हो, इन आपदाओं को कम से कम करने के उपाय और साधन खोजे जाएं।

आपदाएं कई प्रकार की हो सकती हैं, जिनका वर्गीकरण निम्नलिखित हैः-

  1. प्राकृतिक आपदाएं: चक्रवात, भूकंप, बाढ़, सूखा, सुनामी, भूस्खलन, हिमस्खलन, तूफान, आंधी, ओलावृष्टि आदि।
  2. मानव निर्मित आपदाएं: आग, औद्योगिक, रासायनिक, परमाणु दुर्घटनाएं।
  3. जैविक आपदाएं: विभिन्न रोग और महामारियां।

प्राकृतिक आपदाओं को रोका तो नहीं जा सकता; परन्तु उनसे होने वाले दुष्परिणामों और क्षति को कुछ सावधानियां, जैसे-अधिक कुशल भविष्यवाणी और प्रभावशाली बचाव साधनों के लिये अच्छी तैयारी करके कम किया जा सकता है। आपदा प्रबंधन के दो विभिन्न एवं महत्वपूर्ण पहलू हैं:-

1. आपदा पूर्व प्रबंधनः आपदा पूर्व प्रबन्धन को जोखिम प्रबन्धन के नाम से भी जाना जाता है। आपदा के जोखिम, भयंकरता व संवेदनशीलता के संगम से पैदा होते हैं, जो मौसमी विविधता व समय के साथ बदलता रहता है। जोखिम प्रबन्धन के तीन अंग हैं-

  • जोखिम की पहचान,
  • जोखिम में कमी,
  • जोखिम का स्थानान्तरण।

किसी भी आपदा के जोखिम को प्रबन्धित करने के लिये एक प्रभावकारी रणनीति की शुरुआत जोखिम की पहचान से ही होती है।

इसमें प्रकृति ज्ञान और बहुत सीमा तक उसमें जोखिम के बारे में सूचना शामिल होती है। इसमें विशेष स्थान के प्राकृतिक वातावरण के बारे में जानकारी के अलावा वहां आ सकने वाली आपदा का पूर्व निर्धारण शामिल है।

इस प्रकार एक उचित निर्णय लिया जा सकता है कि कहां व कितना निवेश करना है। इससे ऐसी परियोजना को डिजाइन करने में मदद मिल सकती है, जो आपदाओं के गम्भीर प्रभाव के सामने स्थिर रह सकें।

अतः जोखिम प्रबन्धन में व इससे जुड़े पेशेवरों का कार्य जोखिम क्षेत्रों का पुर्वानुमान लगाना व उसके खतरे के निर्धारण का प्रयास करना तथा उसके अनुसार सावधानी बरतना है। मानव संसाधन व वित्त जुटाना व अन्य आपदा प्रबन्धन के इस उपशाखा के ही अंग हैं।

2. आपदा पश्चात प्रबंधनः आपदा से पहले और बाद के कुछ घंटे जीवन बचाने और क्षति को कम करने के लिये बहुत महत्वपूर्ण होते हैं। अक्सर आपदा स्थल पर बाहरी सहायता को पहुंचने में वक्त लग जाता है। किसी भी आपदा के समय सर्वप्रथम पड़ोस से ही सहायता पहुंचती है।

आपदा की स्थिति में सर्वप्रथम सहायता पहुंचाने वाले लोग प्रायः मेडिकल और अन्य घटनाओं को समझ पाने एवं संभालने के उचित ढंग से अनभिज्ञ होते हैं। उन्हें स्थिति का सामना करने का प्रशिक्षण और कौशल नहीं होता।

अतः सामुदायिक स्तर पर प्रबन्धन का उद्देश्य स्थानीय लोगों को आपातकालीन स्थिति का प्रभावपूर्ण ढंग से सामना करने का प्रशिक्षण देना होना चाहिये। प्रशिक्षित समुदाय के सदस्य इस प्रकार की परिस्थितियों के समय में जीवन रक्षक सिद्ध होते हैं। इस प्रकार प्रशिक्षित करने से समुदाय प्रबन्धन लोगों की भागीदारी को प्रोत्साहित करता है।

आपदा प्रबंधन की चुनौतियां

विभिन्न राज्यों में आपदाओं से निपटने में केंद्र के सामने अनेक चुनौतियां हैं। अधिकांश आपदाएं जलीय और मौसम विज्ञान संबंधी खतरों के कारण आती हैं। दुर्भाग्यवश इनकी संख्या, भयावहता और तीव्रता बढ़ती जा रही है।

  • जोखिम की संभावना वाले अधिकतर राज्यों में इन भीषण घटनाओं में निपटने की तैयारियां पर्याप्त नहीं हैं। इन आपदाओं का चरित्र पूर्व की तुलना में अब अधिक भयावह होता जा रहा है।
  • घटनाओं की प्रकृति में यह परिवर्तन केवल उनकी तीव्रता अथवा प्रभाव क्षेत्र में कालांतर में आए परिवर्तन तक ही सीमित नहीं रह गया है, अपितु अब यह घटनाएं नए-नए क्षेत्रों में भी घटित होने लगी हैं।
  • ऐसे में जबकि सरकार के पास कार्रवाई करने की व्यवस्था मौजूद है और क्षमताओं को सुदृढ़ बनाया जा रहा है, देश को आपदा प्रबंधन के क्षेत्र में विशेषज्ञ वृत्तिजीवियों की आवश्यकता है, ताकि आपदाओं को रोका जा सके और उनका शमन किया जा सके। लेकिन इसके लिए सरकार में और उसके बाहर, जिसमें अकादमिक संस्थाएं भी शामिल हैं, मानव कौशल विकास की उपलब्ध क्षमता सर्वथा अपर्याप्त हैं।
  • संस्थागत संरचना नीतियों, कानूनों और दिशा-निर्देशों के रूप में हमारे पास एक सहायक वातावरण मौजूद है। अनेक राज्यों में आपदा प्रबंधन प्राधिकरण अभी भी काम करने की स्थिति में नहीं है। अनेक राज्यों में अभी भी उच्च राज्य स्तरीय कार्य योजना तैयार नहीं हो सकी है।
  • वित्त मंत्रालय ने स्वीकृति के पूर्व शर्त के रूप में सभी नई परियोजनाओं को आपदा शमन के नजरिए से छानबीन करने के आदेश जारी तो किए हैं, परंतु इसके प्रमाणित करने वाले अधिकारियों के पास ऐसा करने की वांछित योग्यता ही नहीं है।
  • जोखिम को कम करने के लिए जिस चीज की सर्वाधिक जरूरत होती है, वह है- जोखिम की अच्छी समझ। सभी राज्य सरकारें जोखिम के विस्तृत आंकलन की पद्धति से परिचित नहीं हैं और इस कार्य को हाथ में लेने की सरकार की पर्याप्त क्षमता भी नहीं हैं।
  • आपदा के जोखिम को कम करने के प्रयासों को विकास के एक मुद्दे के रूप में देखा जाना चाहिए।
  • जलवायु से जुड़े जोखिम संबंधी प्रबंधन को विकास की समस्याओं के रूप में देखे जाने की आवश्यकता है और उसकी क्षमता के विकास की भी आवश्यकता है। कृषि, खाद्य सुरक्षा, जल संसाधन, अधोसंरचना और स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है।
  • इन क्षेत्रों से जुड़े संबंधित विभागों को अपने वैकल्पिक प्रयासों में आपदा जोखिम शमन को प्रमुखता से सम्मिलित करना होगा। चल रहे कार्यक्रमों को भी आपदा जोखिम शमन से समेकित करने का प्रयास करने की आवश्यकता है।
  • मानव संसाधन विकास को व्यवस्थित रूप देना होगा। क्षमताओं के विकास के लिए मात्र प्रशिक्षण ही पर्याप्त नहीं होगा। प्रशिक्षकों और प्रशिक्षणार्थियों का चयन व्यवस्थित ढंग से करना होगा और पुनश्चर्या प्रशिक्षण कार्यक्रम का प्रावधान करना होगा।
  • भीषण आपदाओं से निपटने के अनेक पारंपरिक ज्ञान (तौर-तरीकों) को या तो हम भूल चुके हैं या फिर उनको आजमाया नहीं जाता। इनमें से अनेक को पुनर्जीवित कर कुछ वैज्ञानिक रूप देकर उन्हें और सुदृढ़ बनाया जा सकता है।
  • जोखिम की संभावना वाले समुदायों के खतरे में कमी लाने, यानी उसका सामना करने के लिए समर्थ और सशक्त बनाना होगा। भूमिकाओं और उत्तरदायित्वों को स्पष्ट रूप से परिभाषित करने के साथ-साथ विभिन्न क्रियाओं, तैयारियों और शमन के उपायों को व्यवस्थित रूप से अंजाम देने वाली सामुदायिक आपदा प्रबंधन योजनाओं को लागू करना होगा। इन योजनाओं की प्रभाविकता के परीक्षण के लिए बनावटी अभ्यास (मॉक ड्रिल) की भी आवश्यकता है।