पत्र-पत्रिका संपादकीय

इस अंक में विभिन्न समाचार-पत्रों में प्रकाशित लेखों के आधार पर संपादकीय तैयार किया गया है। इसका उद्देश्य प्रतियोगी छात्रों को प्रारम्भिक व मुख्य परीक्षा से संबंधित विश्लेषणात्मक प्रश्नों की तैयारी में मदद करना है।

हाइड्रोजन के माध्यम से ऊर्जा स्वतंत्रता

हाल में जारी भारत की हरित हाइड्रोजन नीति ने कई महत्वपूर्ण चुनौतियों का समाधान किया है जैसे कि खुली पहुंच, अंतर-राज्यीय पारेषण शुल्क की छूट, बैंकिंग, समयबद्ध मंजूरी, आदि, और इससे भारत के ऊर्जा संक्रमण (energy transition) को और बढ़ावा मिलने की उम्मीद है। नए युग के ईंधन, हाइड्रोजन को ‘ऊर्जा स्वतंत्रता के लिए भारत के प्रवेश द्वार’ के रूप में जाना जाता है। भविष्य के ऊर्जा परिदृश्य में हाइड्रोजन की बहुआयामी भूमिका है, चाहे वह ऊर्जा भंडारण हो, लंबी दूरी का परिवहन हो या औद्योगिक क्षेत्र को कार्बन मुक्त करना हो। लगातार बढ़ती बिजली की मांग, हाइड्रोजन निर्माण की उच्च लागत और पानी की कमी भी एक चुनौती बन सकती है।

मांग पक्ष पर, पांच-चरणीय रणनीति तैयार की जानी चाहिए। प्रारंभिक मांग पैदा करने के लिए, पर्याप्त प्रोत्साहन के साथ परिष्कृत उद्योगों जैसे रिफाइनिंग और उर्वरक को एक अधिदेश (Mandate) दिया जाना; दूसरा, ग्रीन स्टील और ग्रीन सीमेंट के साथ साथ कम उत्सर्जन वाले हाइड्रोजन-आधारित उत्पादों का निर्माण करने वाले उद्योगों को सरकारी नीतियों द्वारा प्रोत्साहन; तीसरा, प्राकृतिक गैस के साथ हाइड्रोजन का सम्मिश्रण; फ्यूल सेल इलेक्ट्रिक वाहन को बढ़ावा देने के लिए, समर्पित गलियारों पर हाइड्रोजन ईंधन स्टेशनों की योजना; और अंत में, कार्बन टैरिफ की अवधारणा को यूरोपीय देशों की तर्ज पर पेश करने की आवश्यकता। आपूर्ति पक्ष की ओर अनुसंधान एवं विकास में निवेश को गति प्रदान करने की आवश्यकता है; दूसरा, 15 एमएमटी संपीडित बायोगैस के उत्पादन लक्ष्य के साथ सस्टेनेबल अल्टरनेटिव टुवर्ड्स अफोर्डेबल ट्रांसपोर्टेशन (SATAT) योजना का लाभ हाइड्रोजन के साथ लिया जाना है।

हाइड्रोजन के साथ, भारत पूर्व-औद्योगिक स्तरों की तुलना में ग्लोबल वार्मिंग को 2 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के पेरिस समझौते के लक्ष्य को प्राप्त करने में विश्व का नेतृत्व कर सकता है। हाइड्रोजन एक नए भारत की नींव रख सकता है, जो ऊर्जा-स्वतंत्र होगा; एक वैश्विक जलवायु नेतृत्वकर्ता और अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा शक्ति होगा।

स्रोत – द हिंदू

ध्वनि प्रदूषण पर उत्तर प्रदेश की पहल

प्रासंगिक अदालत के आदेशों में दोहराए गए ध्वनि प्रदूषण मानदंडों का अनुपालन सुनिश्चित करने के लिए उत्तर प्रदेश सरकार की पहल स्वागत योग्य है। यह राज्य सरकार की शोर (ध्वनि प्रदूषण) जैसे स्वास्थ्य और पर्यावरणीय खतरों से निपटने की प्रतिबद्धता का संकेत देती है। सरकार को उन स्थानों की सूची सार्वजनिक करनी चाहिए, जहां बिना अनुमति के चलते लाउडस्पीकरों को हटाना पड़ा और जिनका डेसिबल स्तर कम करना पड़ा। इस तरह, यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि मानदंडों को लागू करने में कोई राजनीतिक भेदभाव न हो या इसके परिणामस्वरूप किसी का उत्पीड़न न हो।

बढ़ता हुआ ध्वनि का स्तर (डेसिबल) शहरीकरण और औद्योगिक गतिविधि का हिस्सा है। लेकिन नागरिक समझ की कमी भी एक कारण है। यातायात और औद्योगिक प्रक्रियाओं से डेसिबल के स्तर को कम करने के लिए नवाचारों, प्रौद्योगिकी और शमन प्रयासों की आवश्यकता है। लेकिन लाउडस्पीकरों, साउंड एम्पलीफायर (Sound amplifiers), सार्वजनिक संबोधन प्रणालियों द्वारा किए गए शोर को कम करना आसान है। ध्वनि प्रदूषण (विनियमन और नियंत्रण) नियम 2000, जिसे अंतिम बार 2010 में संशोधित किया गया था, सार्वजनिक स्थानों पर लाउडस्पीकर के उपयोग के लिए स्पष्ट नियम निर्दिष्ट करता है।

राज्य सरकार को सभी हितधारकों द्वारा शोर मानदंडों का अनुपालन सुनिश्चित करना चाहिए, न कि केवल धार्मिक स्थलों पर लाउडस्पीकर के उपयोग करने वालों से। इसे त्योहारों/उत्सवों के दौरान एक विशेष समय सीमा के भीतर डेसिबल को कभी-कभार बढ़ाने के लिए विशेष परमिट पर विचार करना चाहिए। इस अभियान के सफल होने के लिए सरकार की निष्पक्षता में विश्वास महत्वपूर्ण है। प्रशासन को यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि वह बिना किसी भय या पक्षपात के बिना शासन करे, विधि के शासन और इसके समान इस्तेमाल के प्रति प्रतिबद्धता करे। यह तब अन्य राज्यों के लिए भी एक प्रायोगिक मॉडल के रूप में काम कर सकता है।

स्रोत- द इकनॉमिक टाइम्स

स्वास्थ्य देखभाल हेतु आधुनिक पारंपरिक विकल्प: डब्ल्यूएचओ ग्लोबल सेंटर फॉर ट्रेडिशनल मेडिसिन

गुजरात के जामनगर में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ग्लोबल सेंटर फॉर ट्रेडिशनल मेडिसिन (जीसीटीएम) की स्थापना एक बड़ा कदम है, जो सार्वभौमिक स्वास्थ्य सेवा के 2030 लक्ष्य को प्राप्त करने में मदद कर सकता है। दुनिया की लगभग 80% आबादी पारंपरिक चिकित्सा पर निर्भर है। इसके बावजूद, साक्ष्य और आंकड़ों में पारंपरिक चिकित्सा को आधार बनाने का बहुत कम प्रयास किया गया है। अधिकांश पारंपरिक चिकित्सा प्राप्त ज्ञान और घरेलू उपचार पर आधारित है। डब्ल्यूएचओ ग्लोबल सेंटर फॉर ट्रेडिशनल मेडिसिन चार रणनीतिक क्षेत्रों पर काम करके इसे बदलने के लिए एक ठोस कदम है- साक्ष्य और प्रज्ञता (evidence and learning); डेटा और वैश्लेषिकी (data and analytics); स्थिरता और इक्विटी (sustainability and equity); और वैश्विक स्वास्थ्य के लिए पारंपरिक चिकित्सा के योगदान को अनुकूलित करने के लिए नवाचार और प्रौद्योगिकी।

स्वास्थ्य प्रणाली से आशय स्वास्थ्य को बनाए रखने, बीमारी को रोकने, निदान और उपचार से है। लक्ष्य विज्ञान पर आधारित सार्वभौमिक पहुंच और स्वीकार्यता के साथ एक ऐसी प्रणाली बनाना है, जो तकनीकी विकास का उपयोग करता हो, सर्वोत्तम उपलब्ध सॉल्यूशन्स को तैनात करके सेहत, रोकथाम, निदान और उपचार पर केंद्रित हो, चाहे वे 'पारंपरिक' या 'आधुनिक' चिकित्सा हों। पारंपरिक चिकित्सा में अपने मजबूत आधार के साथ, भारत का चयन इस पहल के लिए स्वाभाविक है।

स्रोत- द इकनॉमिक टाइम्स

पाकिस्तान में सत्ता परिवर्तन: भारत-पाकिस्तान संबंध

शहबाज शरीफ के पाकिस्तान के नए प्रधानमंत्री के रूप में पदभार संभालने के कुछ घंटों के भीतर, राजनीतिक गलियारों में भारत-पाकिस्तान राजनयिक संबंधों की पुनर्बहाली के बारे में अनुमान लगाया जाने लगा। इससे पहले, पाकिस्तान के प्रधानमंत्री के रूप में शरीफ ने भारत के साथ अच्छे संबंध बनाने के संकेत दिए थे। हालाँकि, यह सवाल बना हुआ है कि पाकिस्तान में गठबंधन सरकार का प्रतिनिधित्व करने वाले शहबाज शरीफ अपने देश में अजीबोगरीब राजनीतिक परिदृश्य को देखते हुए भारत के साथ द्विपक्षीय संबंधों की पुनर्बहाली और इनमें सुधार के लिए किस हद तक जा सकते हैं।

शहबाज शरीफ के लिए यह चुनौतीपूर्ण होगा। सबसे पहले और सबसे महत्वपूर्ण, पाकिस्तान में अगले साल की शुरुआत में नेशनल असेंबली चुनाव होने की संभावना है। इसलिए, कश्मीर जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर भारत के साथ किसी भी समझौते को अंतिम रूप देना शहबाज शरीफ के लिए इतना आसान नहीं होगा। दूसरा, पाकिस्तान की विदेश नीति में सेना का प्रभाव हमेशा महत्वपूर्ण रहा है। अतीत में, पाकिस्तान में सेना ने कई मौकों पर दोनों देशों के बीच शांति प्रक्रिया को जानबूझकर नुकसान पहुंचाया है। तीसरा, पाकिस्तान में मौजूदा गठबंधन सरकार के बहुत लंबे समय तक चलने की संभावना नहीं है। पाकिस्तान में नई सरकार की नाजुक प्रकृति को देखते हुए, भारत पाकिस्तान के साथ कोई रचनात्मक वार्ता शुरू करने में दिलचस्पी नहीं लेगा। इसके अलावा, यूक्रेन युद्ध ने भारत को अन्य प्राथमिकताओं में व्यस्त रखा है।

इन कारकों को ध्यान में रखते हुए, निकट भविष्य में भारत-पाकिस्तान संबंधों में कोई सुधार होने की संभावना नहीं है। ट्रैक II संवादों और बैक-चैनल कूटनीति के संदर्भ में कुछ सुधार देखे जा सकते हैं। लेकिन भविष्यवाणी करना जल्दबाजी होगी।

स्रोत- ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन

आवास का अधिकार

आवास का अधिकार न केवल भारतीय संविधान के अनुच्छेद-21 के तहत मान्यता प्राप्त एक मौलिक अधिकार है, यह अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार कानून ढांचे के तहत एक अच्छी तरह से प्रलेखित अधिकार भी है, जो भारत पर बाध्यकारी है। 'मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा' के अनुच्छेद- 25 के अनुसार हर किसी को अपने और अपने परिवार के स्वास्थ्य और कल्याण के लिए पर्याप्त जीवन स्तर का अधिकार है, जिसमें भोजन, वस्त्र, आवास और चिकित्सा देखभाल शामिल है। इसी तरह आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों पर अंतरराष्ट्रीय वाचा (International Covenant on Economic, Social and Cultural Rights) का अनुच्छेद 11.1 पर्याप्त भोजन, वस्त्र और आवास सहित अपने और अपने परिवार के लिए पर्याप्त जीवन स्तर के लिए और जीवन के निरंतर सुधार के लिए सभी के अधिकार को मान्यता देता है। संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार कार्यालय के अनुसार, पर्याप्त आवास के अधिकार का एक अभिन्न तत्व 'जबरन बेदखली के खिलाफ सुरक्षा' है।

इसके अलावा, उपरोक्त अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार कानून को भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा भारतीय कानूनी प्रणाली में न्यायिक रूप से शामिल किया गया है। ‘बचन सिंह बनाम पंजाब राज्य’, ‘विशाखा बनाम राजस्थान राज्य’ और हाल ही में प्रसिद्ध ‘पुट्टस्वामी बनाम भारत संघ’ जैसे मामलों में शीर्ष अदालत ने यह सिद्धांत निर्धारित किया है कि संविधान के तहत गारंटीकृत मौलिक अधिकारों को इस तरह से पढ़ा और व्याख्या किया जाना चाहिए, जो अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार कानून के साथ उनकी अनुरूपता को बढ़ाए। भारत की संवैधानिक व्यवस्था के संरक्षक के रूप में, यह उचित समय है कि न्यायपालिका कार्रवाई करे और कार्यपालिका द्वारा शक्ति के बेलगाम प्रयोग पर आवश्यक रोक लगाए।

स्रोत – द हिंदू

त्वरित प्रतिक्रिया के लिए एक मजबूत प्रथम-प्रत्युत्तर नेटवर्क की आवश्यकता

झारखंड की देवगढ़ रोपवे दुर्घटना और राष्ट्रीय आपदा राहत बल (एनडीआरएफ), भारतीय सेना, भारतीय वायु सेना और अन्य एजेंसियों द्वारा बचाव अभियान, स्थानीय स्तर पर विशेष रूप से महानगरीय भारत के बाहर ऐसी दुर्घटनाओं से निपटने की क्षमता की कमी को रेखांकित करता है। इसे सुधारने के लिए, त्वरित प्रतिक्रिया के लिए एक मजबूत प्रथम-प्रत्युत्तर नेटवर्क (Strong first-responder network) की आवश्यकता है।

प्रथम-प्रत्युत्तर नेटवर्क की अनुपस्थिति के परिणामस्वरूप देरी हो सकती है। इसलिए, भारत में, इमारत ढहने और ट्रेन एवं सड़क दुर्घटनाओं में अक्सर प्रथम-प्रत्युत्तर नेटवर्क की भूमिका आमतौर पर स्थानीय लोगों द्वारा प्रदान की जाती है, जो सेना, वायु सेना या एनडीआरएफ के आने से पहले कदम रखते हैं।

प्रथम-प्रत्युत्तर नेटवर्क की उपस्थिति सुनिश्चित करती है कि स्थानीय इकाइयां बिना समय गंवाए काम शुरू कर सकती हैं। यदि आवश्यक हो, तो राज्य और राष्ट्रीय एजेंसियों द्वारा उनका समर्थन किया जा सकता है। एक मजबूत प्रथम-प्रत्युत्तर नेटवर्क के पास विशेषज्ञता होगी, जिसे स्थानीय रूप से तैनात किया जा सकता है, जो बदले में, एक ऐसा सिस्टम तैयार करेगा, जो लोगों को महत्वपूर्ण सेवा प्रदान कर जीवन बचा सके। दुर्घटनाएं होती हैं। मानवीय त्रुटियाँ होती हैं। इसीलिए एहतियाती उपाय और आकस्मिक योजनाएँ बनाई जाती हैं। एक देश का मूल्यांकन इस बात से किया जाता है कि वह अपने नागरिकों के जीवन को कितना महत्व देता है। हादसों में जानमाल के नुकसान को कम से कम करना भारत की प्राथमिकता होनी चाहिए।

स्रोत- द इकनॉमिक टाइम्स