जल संकट

पृथ्वी की लगभग 71% सतह जल से आच्छादित है। इस जल का 97% भाग महासागरों में, 2.4% हिमनदों और ध्रुवीय बर्फ चोटियों में और शेष 0.6% भाग अन्य स्रोतों जैसे नदियों, झीलों और तालाबों में पाया जाता है। पृथ्वी पर जल की एक बहुत छोटी मात्र, पानी के संग्रहण स्रोतों, जैविक निकायों और खाद्य भंडार में निहित है। ऐसे में जल का महत्व अपने आप स्पष्ट हो जाता है। साफ और ताजा पेयजल मानवीय और अन्य जीवन के लिए आवश्यक है, लेकिन दुनिया के कई भागों में विशेषकर विकासशील देशों मे भयंकर जल संकट है और अनुमान है कि 2025 तक विश्व की आधी जनसंख्या इस जल संकट से रु-ब-रू होगी।

भारत में मराठवाड़ा, विदर्भ, बुन्देलखण्ड, उत्तरी कर्नाटक, गुजरात, राजस्थान, छत्तीसगढ़, आन्ध्र प्रदेश और तेलंगाना में सूखे का कहर है। सूखा शोध इकाई, आईएमडी, पूना द्वारा सूखा क्षेत्र की परिभाषा इस प्रकार की गयी है- ‘सूखा वह स्थिति है जब किसी क्षेत्र में वर्ष में वार्षिक वर्षा सामान्य वर्षा से 75 प्रतिशत से कम होती है और वर्षा में जब जल की कमी सामान्य से 50 प्रतिशत से अधिक होती है तो इसे गंभीर सूखा की संज्ञा दी जाती है।'जिस क्षेत्र में वर्षा के दौरान सूखे का प्रभाव 20 प्रतिशत होता है, वह क्षेत्र ‘सूखा क्षेत्र’ कहा जाता है। जहां इसका प्रभाव वर्ष में 40 प्रतिशत पड़ता है वह क्षेत्र ‘अंतिम सूखा क्षेत्र' माना जाता है। सूखे का वर्गीकरण निम्न प्रकार से किया जा सकता है- 1. मेट्रोलॉजिकल सूखाः सामान्य वर्षण में 95% से अधिक गिरावट। 2. हाईड्रोलॉजिकल सूखाः मेट्रोलॉजिकल सूखा जब अधिक समय अन्तराल तक हो। 3. कृषि संबंधी सूखाः जब फसल की वृद्धि के दौरान मिट्टी में नमी की अत्यधिक कमी फसलों को पकने के पूर्व ही सुखा दे।

सूखे के परिणाम

सूखे के कई परिणाम होते हैं जिनमें प्रमुख है- प्रति हेक्टेयर उपज का अपेक्षा से कम होना, पैदावार प्रति वर्ष परिवर्तित होना या उसका अप्रत्याशित रूप से घटना / बढ़ना, कृषकों की सामाजार्थिक स्थिति सामान्यतः अच्छी न होना तथा कृषि श्रमिकों की स्थिति दयनीय होना। पश्चिमी घाट के वृष्टिछाया क्षेत्रें में सामान्यतः कम वर्षा होती है। परन्तु, यह सूखा केवल कम बारिश की देन नहीं है, यह लंबे समय से भू-जल के अंधा-धुंध दोहन का भी नतीजा है। महाराष्ट्र में 4% कृषि योग्य भूमि पर गन्ने की खेती होती है, मगर सिंचाई का 70% पानी उसी में लगता है। चीनी उद्योग तथा शराब उद्योग से भी पानी की बेतहाशा खपत और बर्बादी होती है। महाराष्ट्र में काफी बांध हैं, पर उनका पानी उधर मोड़ दिया जाता है जिधर राज्य के उद्योगपति चाहते हैं। इसलिए इस सूखे का अकेला कारण बारिश का कम होना नहीं है। गौर से देखें तो इस सूखे के पीछे चीनी उद्योग और शराब उद्योग से लेकर सिंचाई परियोजनाओं के मनमाने इस्तेमाल तक निहित स्वार्थ भी शामिल हैं।

वस्तुतः समस्या केवल महाराष्ट्र की नहीं है भारत में देश का लगभग 68% हिस्सा विभिन्न मात्रओं में सूखे से प्रभावित रहता है। भारत का 35% हिस्सा ऐसा है जिसमें 750 मिलीमीटर और 1125 मिलीमीटर के बीच वर्षा होती है और उसे सूखा प्रभावित क्षेत्र माना जाता है, जबकि भारत के 33% हिस्से में 750 मिलीमीटर से कम वर्षा होती है और इसे गम्भीर सूखा प्रभावित क्षेत्र माना जाता है। साल 2025 तक इस मात्र में 40% के इजाफे का अनुमान है। देश में जलापूर्ति के लिए सतह पर उपलब्ध जल और भू-जल मुख्य श्रोत हैं। इसके अतिरिक्त देश में हर साल औसतन चार हजार अरब घन मीटर बारिश होती है लेकिन केवल 48% बारिश का जल नदियों में पहुंचता है। भंडारण और आधारभूत संसाधनों की कमी के चलते इसका केवल 18% जल ही उपयोग हो पाता है।

सूखे से बचावः राष्ट्रीय जल नीति 2012 में सूखे से निपटने के लिए विभिन्न कृषि कार्यनीतियों को विकसित करने तथा मृदा एवं जल उत्पादकता में सुधार करने के लिए स्थानीय, अनुसंधान एवं वैज्ञानिक संस्थानों से प्राप्त वैज्ञानिक जानकारी सहित भूमि, मृदा, ऊर्जा एवं जल प्रबंधन पर बल दिया गया है। सूखे का सर्वाधिक असर असिंचित इलाकों तथा सिंचाई परियोजनाओं के कैचमेंट की कृषि भूमि पर होता है। ग्रामीण और कृषि मंत्रलय द्वारा सूखे से निजात पाने के लिये अनेक परियोजनाएँ संचालित की हैं उनमें सूखा प्रवण क्षेत्र विकास कार्यक्रम, मरुस्थल विकाय कार्यक्रम, समन्वित बंजर भूमि विकास कार्यक्रम (IWDP), वर्षा आश्रित क्षेत्रें में राष्ट्रीय जलग्रहण विकास परियोजना (NWDPRA) आदि उल्लेखनीय हैं। सिंचाई को सूखा रोकने के सबसे प्रभावी तंत्र और कृषि उत्पादन में स्थिरता लाने के बड़े उपाय के रूप में माना जाता है।

वर्षा जल संग्रहण विभिन्न उपयोगों के लिए वर्षा के जल को रोकने और एकत्र करने की विधि है। इसका उपयोग भूमिगत जलभृतों के पुनर्भरण के लिए भी किया जाता है। यह एक कम मूल्य और पारिस्थितिकी अनुकूल विधा है जिसके द्वारा पानी की प्रत्येक बूंद संरक्षित करने के लिए वर्षा जल को नलकूपों, गड्ढों और कुओं में एकत्र किया जाता है। वर्षा जल संग्रहण 'क्लोराइड और नाइट्रेट्स' जैसे संदूषकों को कम करके अवमिश्रण भूमिगत जल की गुणवत्ता बढ़ाता है, मृदा अपरदन और बाढ़ को भी रोकता है।

इन सबके अतिरिक्त महत्वकांक्षी नदी जोड़ो परियोजना को भी तेजी से बढ़ाये जाने की आवश्यकता है। नदियां जुड़ जाती हैं तो किसी हद तक बाढ़ की विनाश-लीला से निजात मिलेगी, 2050 तक 16 करोड़ हेक्टेयर कृषि भूमि में सिंचाई होने लगेगी। जबकि वर्तमान में सिंचाई के सभी संसाधनों व तकनीकों का उपयोग करने के बावजूद 14 करोड़ हेक्टेयर भूमि में ही बमुश्किल सिंचाई हो पा रही है।