जनजातियों के सांस्कृतिक अधिकार

वन में निवास करने वाले समुदायों ने सदियों से शिकार कर अपना जीवन यापन किया है। लेकिन अगर कोई देश वर्तमान कानून को ध्यान में रखता है, तो सभी प्रकार के शिकार अवैध हैं। ‘वन्य जीवन संरक्षण अधिनियम, 1972’ (The Wild Life Protection Act, 1972) में संरक्षित अनुसूचित जानवरों की हत्या पर सजा का प्रावधान है। यद्यपि ‘अनुसूचित जनजातियां और अन्य पारंपरिक वनवासी’ (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम (एफआरए), 2006 (The Sche-duled Tribes and Other Traditional Forest Dwellers (Recognition of Forest Rights) Act (FRA), 2006) में वनों के उत्पादन पर जनजातीय समुदायों के अधिकारों को मान्यता दी गई है, लेकिन इसमें वन पशुओं को शामिल नहीं किया गया है।

दूसरे शब्दों में, यह कानून जंगली समुदायों की किसी भी जीव के शिकार करने के उनके अधिकार को प्रतिबंधित करता है। इसीलिए न तो आदिवासी और न ही अन्य कोई अपने सांस्कृतिक अधिकारों का हवाला देकर इसका विरोध कर सकता है। आदिवासी सर्दियों और वसंत ऋतु के दौरान शिकार करते रहे हैं, जिससे उनके और अधिकारियों के बीच टकराव और संघर्ष होता रहा है।

पुलिस और वन अधिकारियों को यह जानकारी है कि हर साल कुछ विशेष महीनों के दौरान इस तरह के शिकार का आयोजन किया जाता है और आदिवासियों को जंगल में प्रवेश करने से रोकना पड़ता है। अगर आदिवासी राष्ट्रीय उद्यानों और वन्यजीव अभयारण्यों में प्रवेश करने का प्रयास करते हैं, तो अधिकारी उन्हें बाहर करने की कोशिश करते हैं। शिकार के समय पुलिस फ्रलैग मार्च या गश्ती करती है ताकि आदिवासियों को शिकार करने से रोका जा सके।

संरक्षण या संस्कृति?

भारत में आदिवासियों द्वारा किए गए शिकार की मात्र का आकलन करना मुश्किल है। यद्यपि शिकार के मामले वन्यजीव संरक्षण अधिनियम के तहत पंजीकृत किए जाते हैं। पूर्वाेत्तर में धार्मिक अवसरों पर किए गए शिकार की घटनाओं और गैरकानूनी तरीके से किए गए वन्यजीव व्यापार एवं अवैध शिकार का कोई अधिकारिक आंकड़ा उपलब्ध नहीं है।

इसलिए प्रत्येक वर्ष आदिवासियों द्वारा कितने जानवरों को मार दिया जाता है, इसके बारे में कोई जानकारी नहीं है। लेकिन संरक्षणवादियों के अनुसार आदिवासियों द्वारा किए गए शिकार के कारण जंगलों में वन्यजीव आबादी की संख्या में कमी आ रही है। लेकिन अन्य लोगों का तर्क है कि आदिवासी प्रथा वन संरक्षण के कारण संक्रामक अवस्था में हैं।

पोषण की समस्या भी आदिवासी क्षेत्रें के बारे में था। मांस और मछली आमतौर पर संकट के समय के लिए संरक्षित रखा जाता था। आदिवासियों की भोजन की गुणवत्ता बहुत खराब रहती है और उन्हें पेट भरने के लिए चावल पर अनिवार्य रूप से निर्भर रहना पड़ता है।

लेकिन प्रवर्तन कानून (Law Enforcement ) पूर्वाेत्तर में एक मुश्किल मुद्दा है जहां आदिवासी और सामुदायिक संस्कृति सामाजिक मामलों पर प्रभाव डालती है। अन्य राज्यों की तरह, उत्तर पूर्वी राज्यों में भी आदिवासियों द्वारा शिकार सर्दियों के महीनों में प्रचलित है। लोग समूह बनाकर हिरण, जंगली सूअर, गिलहरी, पक्षियों और चमगादड़ का शिकार करते हैं। असम के काजीरंगा जैसे प्रसिद्ध राष्ट्रीय उद्यानों और अभ्यारण्यों को छोड़कर, आदिवासियों द्वारा राज्य में पशुओं के शिकार करने केविरुद्ध बनाए गए कानूनों की अवहेलना की जाती है। पूर्वाेत्तर में आदिवासियों के लिए शिकार करने पर कोई प्रतिबंध नहीं है। शिकार करना आदिवासी संस्कृति का हिस्सा है। पूर्वाेत्तर में कई वन आदिवासी समुदायों के स्वामित्व में हैं और वह उनके अपने कानूनों के अनुसार शासित हैं।