लैंगिक असमानता

बीसवीं सदी महिला अधिकारों के सृजन की सदी रही है, संवैधानिक व राजनैतिक अधिकारों के साथ-साथ आर्थिक गतिविधियों में भी महिलाओं की भागीदारी बढ़ी है। परन्तु आज भी महिलाओं का श्रम शक्ति में योगदान उनकी क्षमताओं की अपेक्षा बहुत कम है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) के आंकड़ों के अनुसार सन 2014 में विश्व स्तर पर कार्यशील (15-64 आयु वर्ग) महिलाओं की श्रम शक्ति में भागीदारी दर (Participation Rate) मात्र 55 प्रतिशत रही जो की पुरुषों के श्रम शक्ति में भागीदारी दर 82 प्रतिशत की तुलना में बहुत कम रही है।

इसका प्रमुख कारण महिलाओं द्वारा भारी संख्या में घरेलू कार्यों का किया जाना है जिन्हें परम्परागत तौर पर औपचारिक कार्यों की श्रेणी में न तो रखा जाता है न ही आर्थिक क्रियाकलापों के मापन हेतु इन्हें शामिल किया जाता है। घरेलू कार्य जिसमें खाना पकाना, कपड़ों की धुलाई, घर की साफ-सफाई तथा बच्चों एवं बूढ़ों की देखभाल प्रमुख हैं, के बदले वित्तीय पारिश्रमिक की न तो सामाजिक परंपराएं रही हैं न ही किसी प्रकार की संवैधानिक व्यवस्थाएं विकसित हो पाई हैं, बाजार भी इन कार्यों हेतु पारिश्रमिक प्रदान करने के विकल्प प्रस्तुत नहीं कर सका। पिछले कुछ दशकों में राष्ट्रीय आय अथवा सकल घरेलू उत्पाद में महिलाओं द्वारा किये जा रहे घरेलू कार्यों, जो की ज्यादातर अवैतनिक प्रकृति के होते हैं, को शामिल करने की अकादमिक स्तर पर वकालत आरम्भ हुयी।

इस सन्दर्भ में महिलाओं पर प्राकृतिकतः पुनरुत्पादन (Reproduction) के उत्तरदायित्वों को अब गैर भुगतान कार्य की श्रेणी में रखा जाना प्रारंभ हुआ है तथा आर्थिक दृष्टिकोण से इस कार्य को महत्वपूर्ण माना गया है और इसे भी राष्ट्रीय आय के आंकड़ो में सम्मिलित करने की बात हो रही है।

हाल ही में अनेक अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा किये गए अध्ययनों से व्यवस्था निर्माण की ओर सरकारों एवं नीति नियंताओं का ध्यानाकर्षण इस मुद्दे की ओर हुआ है तथा इस दिशा में कुछ प्रयास होने की आशा की जा रही है। अमेरिका स्थित मैकेंजी ग्लोबल इंस्टिटड्ढूट (MGI) ने महिलाओं के श्रम शक्ति में व्यापक भागीदारी पर ‘पॉवर ऑफ पैरिटी' नामक रिपोर्ट में यह उल्लेख किया है कि यदि विश्व स्तर पर लैंगिक समता को बढ़ावा दिया जाये तो 2025 तक विश्व अर्थव्यवस्था में 12 खरब डॉलर की बढ़ोत्तरी हो जाएगी। इसके अतिरिक्त यदि महिलाओं की भागीदारी पुरुषों के स्तर पर स्थापित हो जाये तो 2025 तक विश्व अर्थव्यवस्था में 28 खरब अमेरिकी डॉलर की बढ़ोत्तरी हो सकती है। इसी रिपोर्ट में भारत के सन्दर्भ में आकलन किया गया है कि यदि भारत कार्यक्षेत्र में लैंगिक असमानता समाप्त करने में सफल रहा तो वर्ष 2025 तक भारत की राष्ट्रीय आय में लगभग 700 अरब अमेरिकी डॉलर की अतिरिक्त बढ़ोत्तरी हो सकती है। इस दौरान लगभग 68 मिलियन अतिरिक्त महिलायें श्रम शक्ति का हिस्सा बन जाएंगी।

वर्तमान में भारत की कुल श्रम शक्ति में महिलाओं का योगदान लगभग 22 प्रतिशत है तथा जीडीपी में इनका योगदान 17 प्रतिशत जो कि जीडीपी में महिलाओं के वैश्विक औसत योगदान, 37 प्रतिशत की तुलना में काफी कम है। कई आकलनों में यह तथ्य सामने आया है की दक्षिण एशिया में लैंगिक समानता विश्व में निम्नतम स्तर पर तथा उत्तरी अमेरिका व ओशेनिया में यह उच्चतम स्तर पर है। इसी सम्बन्ध में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की वर्तमान निदेशक क्रिस्टीन लेगार्डे ने कहा कि यदि भारत की कुल श्रम शक्ति में महिलाओं की भागीदारी दर पुरुषों के बराबर हो जाये तो भारतीय अर्थव्यवस्था 27 प्रतिशत की वार्षिक विकास दर प्राप्त कर सकती है।

इस प्रकार अब वैश्विक स्तर पर महिलाओं की श्रम शक्ति पर आधारित आर्थिक व्यवस्था की पुरजोर वकालत की जा रही है। महिलाओं द्वारा किये जा रहे कार्य या तो गैर-आर्थिक माने जाते रहे या इन कार्यों का मूल्यांकन व आकड़ों का संग्रहण दुष्कर रहा है।

कार्यक्षेत्र में लैंगिक असमानता के निर्धारक व अर्थव्यवस्था पर प्रभाव

कार्यक्षेत्र में महिलाओं के प्रति प्रमुख लैंगिक असमानता इस प्रकार रही है-

  1. महिलाओं का पुरुषों की तुलना में कम संख्या में भागीदारी।
  2. महिलाओं द्वारा पुरुषों की तुलना में कार्य के घंटों का कम होना।
  3. निम्न उत्पादकता वाले क्षेत्रें जैसे कृषि में महिला कामगारों की तुलनात्मक भागीदारी अधिक होना इसके विपरीत उच्च उत्पादकता वाले क्षेत्रें में कम होना।

महिलाओं द्वारा किये जाने वाले अधिकांश कार्यों का जीडीपी में आकलित न किया जाना एक बड़ी समस्या रहा है तथा इस सम्बन्ध में लगातार आकलन की प्रविधियों के विकास एवं इनके कार्यान्वन हेतु प्रयास होते रहे हैं। गैर-पारिश्रमिक वाले इन कार्यों के आर्थिक मूल्य की गणना हेतु कई विधियों का प्रयोग किया जाता हैं जिनमें निम्नलििखत प्रमुख हैं-

  1. अवसर लागत विधिः इस विधि के माध्यम से घरेलू कार्य में लगी किसी महिला की क्षमताओं के अनुरूप किसी अन्य वैतनिक कार्य के द्वारा अर्जित किये जा सकने वाली धनराशि को उस महिला द्वारा किये जा रहे घरेलू सेवा कार्यों का मूल्य माना जाता है।
  2. बाजार स्थानापन्न लागत विधिः इस विधि में वह घरेलू कार्य जिन्हें महिलाएं बिना किसी पारिश्रमिक के करती हैं, के बाजार स्थानापन्न अर्थात उन्हीं कार्यों के लिए वैतनिक सेवक की वेतन लागत को घरेलू कार्यों का मूल्य माना जाता है।
  3. आगत/निर्गत लागत विधिः इस विधि के अनुसार घरेलू कार्यों में लगी महिलाओं द्वारा घरेलू कार्य न करके आर्थिक वस्तुओं का उत्पादन कराया जाता है, बाद में इन वस्तुओं के बिक्री मूल्य को घरेलू कार्यों के मूल्य का प्रतिनिधि माना जाता है।

लैंगिक असमानता का किसी समाज व राष्ट्र की आर्थिक स्थिति पर प्रत्यक्ष प्रभाव देखा गया है। जिन राष्ट्रों में महिलाएं राजनैतिक, सामाजिक व शैक्षिक रूप से सशक्त हैं, वे राष्ट्र आर्थिक तौर पर भी शक्तिशाली हैं। इस तर्क के समर्थन में संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP) द्वारा जारी ‘जेंडर डेवलपमेंट इंडेक्स’ के आंकड़ों के अध्ययन से पता चलता है की वे देश जो कि आर्थिक तौर पर विकसित अर्थव्यवस्थाए हैं, को ऊंची GDI रैंक प्राप्त हुयी है। इस प्रकार लैंगिक समानता एवं आर्थिक विकास में एक धनात्मक सह-संबंध पाया गया है।