श्रमबल में महिलाओं की भागीदारी में कमी

अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के हाल की एक रिपार्ट के मुताबिक भारत और पाकिस्तान, में महिला श्रमबल सहभागिता दर एशिया में सबसे कम है जबकि नेपाल, वियतनाम, लाओस तथा कंबोडिया में महिला श्रमबल सहभागिता दर सबसे अधिक है। धनी एशियाई देश यथा; सिंगापुर, मलेशिया तथा इंडोनेशिया की स्थिति दोनों समूह देशों के बीच की है। सच तो यह है कि भारत और पाकिस्तान में महिला श्रमबल सहभागिता दर में लगातार कमी आ रही है। नेशनल सेंपल सर्वे के मुताबिक वर्ष 1999-2000 में जहां महिला सहभागिता दर 25.9 प्रतिशत थी वहीं वर्ष 2011-12 में यह दर घटकर 21.4 प्रतिशत रह गई। वैश्विक स्तर पर स्थिति कहीं अलग है क्योंकि अन्य देशों में महिलाओं की सहभागिता दर में बढ़ोतरी हुई है।

अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के डाटाबेस में 185 देश हैं और इनमें से 114 देशों में श्रमबल में महिलाओं की भागीदारी बढ़ी है तथा सिर्फ 41 देशों में महिला श्रम सहभागिता दर में कमी आई है। भारत इन्हीं 41 देशों में एक है। यह भारत की विकास गाथा की कुछ और ही कहानी कहती है। भारत में महिला श्रमबल सहभागिता में आ रही लगातार कमी की एक खुशफहमी वाली व्याख्या यह हो सकती है कि यहां आय में लगातार बढ़ोतरी हो रही है और महिलाओं को खेती और निर्माण स्थलों आदि जैसे अत्यधिक कठोर श्रम वाले कार्यों को छोड़कर पारिवारिक कार्यों में ध्यान देने का अवसर प्राप्त हुआ है। लेकिन निराशावादी और यथार्थ कारण यह हो सकता है कि खेतों के आकार में कमी आने, खेती में मशीन आदि आधुनिक तकनीकों के इस्तेमाल से कृषि कार्य में श्रम की मांग पहले से कम हुई है।

अतः महिलाओं को कार्यों से दूर रखा जा रहा है या फिर उनकी मांग अब इन कार्यों में पहले जैसी नहीं रह गई है। यदि यह व्याख्या सही है तो फिर भावी नीतियों के लिए काफी चिंताजनक स्थिति होने वाली है। शोधों के द्वारा यह पता चलता है कि जब महिलाओं को कार्य करने का अवसर ज्यादा मिलता है तो वे इसे खुशी से स्वीकार करती हैं। इंडिया ह्यूमन डेवलपमेंट सर्वे (आईएचडीएस), जिसे नेशनल काउंसिल ऑफ एप्लायड इकोनोमिक रिसर्च तथा मैरीलैंड विश्वविद्यालय के द्वारा संयुक्त रूप से कराया गया था, के मुताबिक मनरेगा के द्वारा ग्रामीण क्षेत्रें में महिलाओं को रोजगार प्राप्त करने का अधिक अवसर प्राप्त हुआ है। नीतिगत दृष्टिकोण से श्रमबल में महिला सहभागिता बढ़ाने के लिए दो चुनौतियों को संबोधित करना जरूरी है।

प्रथम, कृषि क्षेत्र में रोजगार के कम हो रहे अवसर को देखते हुए यह जरूरी है कि कृषि कार्य के बदले गैर-कृषि कार्य में महिलाओं के लिए काम के अवसर तलाशे जाएं। द्वितीय, ऐसी कार्य संस्कृति का निर्माण किया जाए जिसमें महिलाओं, विशेष रूप से शहरी एवं शिक्षित महिलाओं को वेतन वाले रोजगार आसानी से मिल सके। महिलाओं को रोजगार प्राप्त करने में भारत के संदर्भ में एक अन्य पहलू यह भी है कि यहां के परिवारों में पेशेवर उपलब्धियों की तुलना में बच्चों की शिक्षा में निवेश को ज्यादा तरजीह दी जाती है। कारनेल विश्वविद्यालय के समाजशास्त्री अलका बसु तथा सोनल देसाई ने अपने अध्ययन के पश्चात इस बात पर बल दिया कि पश्चिमी देशों में महिलाओं में बच्चा पैदा करने की प्रवृत्ति में कमी आई है क्योंकि वहां की महिलाओं और पुरुषों में स्वयं की महत्वाकांक्षा को पूरी करने की प्रवृत्ति अधिक रहती है।

लेकिन भारत में बच्चों की शिक्षा और उनके भविष्य की विशेष चिंता रहती है और ऐसे में यहां के माता-पिता रोजगार के लिए ज्यादा उत्सुक नहीं रहते। यही कारण है कि शहरों में शिक्षित महिलाएं भी नौकरियों को नजरअंदाज करती हैं जबकि दक्षिण कोरिया एवं जापान जैसे देशों में पुरूष एवं महिलाएं शादी जैसी संस्था को ही नजरअंदाज कर रहे हैं जिससे वहां जनन क्षमता 1.3 बच्चे प्रति जोड़ा पाया जाता है।

हाल ही के मैनपावर के एक अध्ययन ‘मिलेनियर्स कॅरियर्स-2020 विजन’ के अंतर्गत यह पाया गया है कि कनाडा में युवा श्रमिकों को प्रति सप्ताह 42 घंटे काम करते हैं वहीं भारत में उन्हें 52 घंटे काम करना पड़ता है। कार्य- परिवार के बीच संतुलन बनाए रखने के लिए यह जरूरी है कि कार्य संस्कृति में इस प्रकार बदलाव लाया जाए कि पुरुषों को भी घर के कामों में हाथ बंटाने का समय प्राप्त हो तथा वे भी बच्चों की देखभाल में अपना समय दे सके ताकि महिलाओं पर बोझ कम हो और रोजगार में उनकी सहभागिता बढ़े।