जीन अभियांत्रिकी

जीन अभियांत्रिकी द्वारा जीनों के स्वरूप में परिवर्तन करके न केवल जीवों के आकार, आकृति, गुण आदि को परिवर्द्धित किया जाता है बल्कि पूर्णतः नवीन प्रकार के जीवों का विकास भी किया जा सकता है। यह तकनीक मानव को जीवों के सृष्टि में सर्वाधिक हस्तक्षेप की क्षमता प्रदान करती है। जीन अभियांत्रिकी के अंतर्गत निम्नलिखित तकनीकें प्रयुक्त की जाती हैं-

  1. वांछित जैविक पदार्थ का विगलन
  2. जैविक पदार्थ का ग्राही कोशिकाओं में स्थानातंरण एवं परिचालन
  3. जीन अभियांत्रिकी के तहत बीमार जीन की मरम्मत, नये जीनों के संकरणों का निर्माण तथा जीन की संश्लेषण क्षमता के औद्योगिक उपयोग की विधियां विकसित की जाती हैं।
  4. मानव इंसुलिन, कैंसर, वायरस से लड़ने वाले प्रोटीन इंटरफेंरॉन तथा हेपेटाइटिस के टीके के विकास में जीन अभियांत्रिकी का महत्वपूर्ण योगदान है।

किसी भी सजीव का लक्षण व अन्य गुण उसके अंदर की जीन संरचना पर निर्भर करता है। सजीव के प्रत्येक कोशिका में आनुवंशिक पदार्थ, (डी-एन-ए-) के रेखीय हेलिक्स में पाये जाने वाले प्यूरीन एवं पाइरीमिडिन समाक्षारकों का रेखीय क्रम जीन कहलाता है। जीन अभियांत्रिकी द्वारा न केवल जीनों के स्वरूप में संशोधन करके जीवों के आकार, आकृति, गुण आदि को बदला जा सकता है, बल्कि पूर्णतः नवीन प्रकार के जीवों का भी निर्माण किया जा सकता है। यही तकनीक (जीन अभियांत्रिकी) मानव को जीवों के सृष्टि में हस्तक्षेप की सर्वाधिक क्षमता प्रदान करती है। जीन अभियांत्रिकी द्वारा अनुपयोगी अथवा दूषित सिस्ट्रॉन (डी-एन-ए- का एक अंश, जो प्रोटीन निर्माण में एक पॉलीपेप्टाइडशृंखला का निर्धारण करता है) को परिष्कृत करता है अथवा उसको विस्थापित करता है, ताकि आवश्यक व उपयुक्त फीनोटाइप प्राप्त किया जा सके। संकरण (Hybridization) इसके लिए सर्वाधिक उपयोग में लायी जाने वाली तकनीक है। इस तकनीक के अंतर्गत विभिनन जैविक स्रोतों से डी-एन-ए- (डीऑक्सीराइबो न्यूक्लिक एसिड) निकालकर उसका शुद्धिकरण किया जाता है। इसके तहत भारतीय मूल के अमेरिकी नोबेल पुरस्कार विजेता डॉ- हरगोविन्द खुराना द्वारा विशिष्ट न्यूक्लिओटाइडों की श्रेणी के परखनली संश्लेषण की तकनीक विकसित की गयी। संश्लेषण के पश्चात् इन न्यूक्लिओटाइडों (जीनों) को परिष्कृत करने वाले एंजाइमों व समाक्षारों के मिश्रण की सहायता से संवर्द्धित किया जा सकता है।

विलगन की इस तकनीक में संयुक्त राज्य अमेरिका के अनुसंधानकर्ताओं का कार्य विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इनके द्वारा एसरशिया कोलाइ (ई- कोलाइ) बैक्टीरिया से लैकऑपरोन के कुछ जीनों को विलगित व परिष्कृत किया गया है। इस प्रक्रिया के तहत एक कोशिका, ऊत्तक अथवा जीव किसी विलगित जीन (डी-एन-ए-) अंश को अपने चारों ओर से ग्रहण कर लेता है। यह डी-एन-ए- अंश, ग्राही जीव के आनुवंशिक पदार्थ में सम्मिलित हो जाता है। इसके साथ ही, वह ग्राही के गुण भी प्रदर्शित करने लगता है, जिसके संकेत इसकी नयी डी-एन-ए- संरचना पर स्पष्टतः परिलक्षित होते हैं। अभी तक इस प्रक्रिया का प्रयोग अनेक जैविक पदार्थों (पौधों व जन्तुओं) में सफलतापूर्वक किया जा चुका है। इस प्रक्रिया के अंतर्गत डी-एन-ए- फेग एवं जीवाणु में आनुवंशिक पदार्थ का आपस में पारगमन होता है।

ट्रांसजेनिक कृषि

जैव प्रौद्योगिकी के उपयोग से कृषि उत्पादन में वृद्धि की तकनीकों में ट्रांसजेनिक तकनीक आधुनिकतम है। ट्रांसजेनिक तकनीक के माध्यम से किसी पौध प्रजाति के प्राकृतिक जीन में रिकंबीनेंट डीएनए तकनीक (कृत्रिम उपायों) द्वारा किसी दूसरे पौधे के जीन का भाग जोड़ दिया जाता है। इस तकनीक का मुख्य उद्देश्य पौधों की गुणवत्ता एवं उत्पादकता में वृद्धि करना, प्रोटीन खनिजों की मात्र में वृद्धि करके अधिक पौष्टिक बनाना, पौधे की जल आवश्यकता को कम करना तथा बीमारियों एवं कीटों के प्रति प्राकृतिक प्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि करना होता है। ट्रांसजेनिक तकनीकि द्वारा सर्वप्रथम बेल्जियम में लेसीड (सरसों) की शाकनाशी प्रतिरोधी प्रजाति का विकास किया गया था। भारतीय वैज्ञानिकों ने अब तक ट्रांसजेनिक अरहर और चने का विकास किया है।

लिविंग लेजर

लिविंग लेजर का अर्थ है मानव कोशिका से बनाया गया लेजर किरण। पहली बार वैज्ञानिकों ने मानव कोशिका की मदद से लेजर किरण बनाने में सफलता प्राप्त की है। इस लेजर में एक मानव कोशिका के साथ-साथ जेलीफिश प्रोटीन का भी प्रयोग किया गया है। इस सफलता को हासिल करने वाले वैज्ञानिक हैं, हॉवर्ड मेडिकल स्कूल के तथा मेसाचुसेट्स जनरल अस्पताल के ऑप्टिकल भौतिकी-वेत्ता स्योक ब्यून यून, जिन्होंने अपने सहकर्मी माल्टे गैदर के साथ मिलकर लिविंग लेजर का निर्माण किया है। यह पहला मौका है जब जैव पदार्थ की सहायता से लेजर का निर्माण कर विज्ञान की दुनिया में एक नया कारनामा कर दिखाया गया है अर्थात् मानव कोशिका को ऐसा रूप दिया गया है जिससे किरणों को इच्छित दिशा में निर्देशित किया जा सकेगा।

जीन क्लोनिंग

जीन क्लोनिंग तकनीक के तहत प्रायः नाभिकीय अंतरण विधि का प्रयोग करके किसी एक कोशिका के नाभिक क्रोमोसोम को कोशिका के नाभिक से यांत्रिक रूप से निकाल लिया जाता है। तत्पश्चात इसे नाभिक रहित अंडाणु में प्रतिस्थापित कर दिया जाता है। इसके पश्चात् उस पर हल्की विद्युत तरंगों को प्रवाहित करके निषेचन क्रिया को आरंभ कराया जाता है, जिसके बाद कोशिका का तीव्र विभाजन आरंभ हो जाता है। इस प्रक्रिया के तहत पूर्ण विकसित अंडाणु को प्रतिनियुक्ति मां के गर्भ में आरोपित कर दिया जाता है। इसके साथ ही गर्भाधान बच्चे का विकास और उसका जन्म होता है।

ऊतक संवर्द्धन तकनीक

ऊतक संवर्द्धन एक ऐसी तकनीक है जिसके अंतर्गत पौधों एवं जंतुओं की कोशिकाओं, ऊतकों एवं अंगों को अलग कर उनका नियंत्रित ताप, दाब, व अन्य अनुकूल परिस्थितियों में विशेष पात्रें में वर्द्धन किया जाता है। इस विधि का उपयोग पौधों की रोग रोधक क्षमता व रसायन रोधक क्षमता को बेहतर बनाने के लिए किया जाता है। इसके अतिरिक्त ऊतक संवर्द्धन तकनीक का उपयोग फसल सुधार के लिए भी किया जाता है। ऊत्तक संवर्द्धन तकनीक के अंतर्गत पौधों व जन्तुओं की कोशिकाओं, ऊत्तकों अथवा अंगों को पृथक कर, उनका नियंत्रित ताप, दाब व अन्य अनुकूल परिस्थितियों में विशेष पात्रें में वर्द्धन किया जाता है। यह संवर्द्धन पात्रें में उपयुक्त पोषक तत्त्वों को उपलब्ध करा कर किया जाता है। इस तकनीक का प्रयोग पौधों की रोग-रोधक व रसायन-रोधक क्षमता को बेहतर बनाने के लिए किया जाता है। पोषक तत्त्वों में ऊर्जा की आपूर्ति मुख्यतः सुक्रोज (Sucrose) द्वारा की जाती है, जो संशोधित भागों में उपलब्ध करायी जाती है। ऊत्तक संवर्द्धन विधि का उपयोग फसल सुधार में निम्नलिखित रूप से किया जा सकता है-

  1. सूक्ष्म संचरण (Micro Trans-Mission): दुर्लभ पौधों को संवर्द्धित करके कृषि, उद्यान-कृषि एवं वन- संरक्षण आदि के लिए उपयोग किया जा सकता है।
  2. रोग मुक्त पादप की उत्पत्तिः वनस्पतिक सूक्ष्म संचरण के दौरान रोग-कारक (विशेषतः विषाणु) भी कंद- मूल, राइजोम आदि के माध्यम से संक्रमित हो जाते हैं।
  3. एंड्रोजेनिक हैप्लॉयडः हैप्लॉयड कोशिकायें (Haploid Cells) ऐसी कोशिकायें होती हैं, जिनके नाभिक में गुणसूत्रें का केवल एक समूह पाया जाता है। प्रकृति में ऐसी कोशिकायें दुर्लभ हैं तथा आनुवंशिकी व पौध-प्रजनन के लिए अमूल्य हैं। प्रत्येक परागकोष में कई हजार हैप्लॉयड कोशिकायें होती हैं। अतः एंड्रोजेनिक हैप्लॉयड का उत्पादन अत्यंत ही लाभकारी है। ऐसे उत्पादन की सूचना सर्वप्रथम दिल्ली विश्वविद्यालय के गुहा व माहेश्वरी द्वारा 1964 में दी गयी। हैप्लॉयड के प्रयोग से नयी प्रजातियां विकसित करने में लगभग आधा समय लगता है।

टेस्ट ट्यूब पादप

ऊत्तक संवर्द्धन तकनीक द्वारा टेस्ट ट्यूब शिशु की तरह टेस्ट ट्यूब पादप को भी विकसित किया जा सकता है। इस तकनीक द्वारा पादप कोशिका एवं ऊत्तक का विकास कृत्रिम प्रकाश एवं नियंत्रित जर्मरहित परिस्थितियों में पोषक माध्यम में किया जाता है। पोषक माध्यम के परितः वातावरण जीवाणु रहित रखा जाता है, ताकि किसी भी प्रकार से पोषक माध्यम का संक्रमण नहीं हो सके।

प्रत्येक पादप कोशिका में उन पौधों के विकास के लिए तमाम आवश्यक आनुवंशिक सूचनाएं केन्द्रित रहती हैं। टेस्ट ट्यूब पादप का व्यावसायिक कार्यान्वयन साठ के दशक में प्रारंभ हुआ। इस तकनीक के आधार पर सजावट हेतु पौधों को विकसित करने की अनेक राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय कंपनियां स्थापित की जा रही हैं। इसके तहत अंग संवर्द्धन (Organ Culture) द्वारा द्रुत गति से वृद्धि करने वाले पौधे, यथा-युकेलिप्टस, केजुराइना, रोजवुड, लाल चंदन आदि को विकसित किया जा रहा है, जिनकी लकडि़यां व्यावसायिक रूप से काफी महत्त्व रखती हैं।

चिकित्सा जैव प्रौद्योगिकी

उन्नत सस्ती किस्म की औषधियों का विकास, कैंसर के वैक्सीन, उत्तम जनन प्रतिरोधक क्षमता, परखनली कीटों आदि के निर्माण में चिकित्सा जैव प्रौद्योगिकी का महत्वपूर्ण योगदान है। आणविक जीव विज्ञान एवं पुर्नसरंचना जैसी चिकित्सा जैव प्रौद्योगिकियों की सहायता से ही हैजे का टीका विकसित किया गया। सिस्टेमेटिक फफूंदी के संक्रमण से बचाव के लिए एंफ्रोटरसीन का निर्माण इसी तकनीक से संभव हो पाया।

जीन अभियांत्रिकी के लाभ

जीन अभियांत्रिकी से मानव समुदाय को कई रूपों में लाभ प्राप्त हुए हैं, जिनमें से कुछ प्रमुख लाभ निम्नलिखित हैं:

  1. मानव इंसुलिन, कैंसर एवं वायरस से लड़ने वाले प्रोटीन अर्थात् इंटरफेरॉन (Interferon) तथा हेपेटाइटिस के टीके के विकास में जीन अभियांत्रिकी काफी महत्त्वपूर्ण साबित हुआ है। मानव वृद्धि हार्मोन अर्थात् सोमैट्रेम (Somatrem) के विकास में भी इसका प्रयोग हुआ है। मलेरिया एवं एड्स के टीके के विकास हेतु जो भी प्रयोग चल रहे हैं, वे सभी इसी तकनीक पर आधारित हैं। हृदयाघात, उच्च रक्त चाप, हीमोफीलिया आदि के निदान हेतु उचित खोजी पदार्थ भी इसी तकनीक का परिणाम माने जा सकते हैं।
  2. हृदय की धमनियों (Arteries) में जम चुके रक्त के थक्के (जो हृदयाघात का कारण बनते हैं) को समाप्त करने के लिए TPA (Tissue Plasminogen Activator) की खोज इसी तकनीक पर आधारित है। यद्यपि यह TPA शरीर में स्वतः उत्पन्न होता है, परंतु हृदय घात से बचाव हेतु आवश्यक ज्च्। की आपूर्ति जीन अभियांत्रिकी द्वारा ही की जाती है।

राष्ट्रीय जैव प्रौद्योगिकी विकास नीति

यह नीति संबंधित मंत्रलयों, विश्वविद्यालयों, अनुसंधान संस्थानों, निजी क्षेत्रें, नागरिक समाज, उपभोक्ता समूहों, गैर-सरकारी और स्वैच्छिक संगठनों तथा अंतरराष्ट्रीय निकायों सहित बहु-विध हितधारकों के साथ दो वर्ष तक चले रा"ªव्यापी परामर्श प्रक्रिया का परिणाम है। इस नीति के तहत एक राष्ट्रीय जैव प्रौद्योगिकी विनियामक प्राधिकरण का गठन किया जाएगा। इस नीति के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं-

  1. एक राष्ट्रीय जैव प्रौद्योगिकी विनियमन प्राधिकरण गठित किया जायेगा जो एक स्वतंत्र, स्वायत्त और व्यावसायिकता पर आधारित निकाय होगा।
  2. जैव-प्रौद्योगिकी विभाग के सचिव के नेतृत्व में एक उच्चाधिकार प्राप्त अंतर-मंत्रलयी समिति की स्थापना की जायेगी। जैव प्रौद्योगिकी विभाग के बजट का 30% भाग सार्वजनिक-निजी भागीदारी कार्यक्रमों पर खर्च करना।
  3. हरियाणा के फरीदाबाद में विज्ञान, शिक्षा और जैव प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में नवीनता के लिए यूनेस्को क्षेत्रीय केंद्र स्थापित करना।
  4. 11वीं योजना के दौरान जैव-प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में विश्वस्तरीय संस्थागत अनुसंधान क्षमता की मजबूती के लिए 50 विशि" केंद्रों की स्थापना करना।
  5. वैज्ञानिक खोजों को उपयोगी उत्पादों के रूप में परिणत करने के लिए एक नई राष्ट्रीय पहल करना।
  6. एक विश्वस्तरीय मानव राजधानी बनाने के उद्देश्य से एशियाई क्षेत्र में सर्वश्रे" स्तर तक पहुंच बनाने के क्रम में उÂत और विस्तृत पीएचडी और पोस्ट डॉक्टोरल कार्यक्रम चलाना। स्नातकोत्तर और स्नातक से निचले स्तर पर शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ाना, स्नातक के नीचे और स्नातकोत्तर स्तरों पर जीवन विज्ञान और जैव प्रौद्योगिकी को बढ़ावा देना, उच्च गुणवत्ता वाले अनुवाद कर्मियों का सृजन करना आदि।
  7. अभिनव और त्वरित प्रौद्योगिकी और उत्पाद विकास को बढ़ावा देने के लिए मुख्य रणनीति के रूप में कलस्टर विकास पर जोर देना।

बैसिलस थूरिनजिएनसिस

बैसिलस यूरिनजिएनसिस (BT) एक भूमिगत बैक्टीरिया है। यह बैक्टीरिया बीजाणु जनन के दौरान एन्डोप्रोटीन नामक क्रिस्टलीकृत प्रोटीन बनाना है जो अनेक कीटाणुओं जैसे, दीमक, एंफिडों, चींटियों, भृगों, तितलियों आदि को नष्ट कर देता है। बीटी के कुछ विभेद पादप और पशुओं पर निर्भर करने वाले कृमियों, पौधों, प्रोटोजोआ और तिलचट्टों को भी नष्ट कर देता है। इसी विशिष्ट लक्षण के कारण बीटी नामक बैक्टीरिया कृषि के क्षेत्र में उपयोगी है। अबतक बीटी के 80 से अधिक वैक्सिन पैदा करने वाले सीआरवाई (CRY) जीन खोजे जा चुके हैं एवं इसकी मदद से 45 से अधिक व्यापारिक फसलों की परजीवी कीटरोधी किस्में विकसित की जा चुकी है। बीटी की खोज जापानी वैज्ञानिक ईशीवाटा ने 1902 में की थी।

जीएम फसलों की उपयोगिता

जीन संर्वद्धित फसलों को संक्षिप्त रूप में जीएम फसलें कहा जाता है। इस प्रकार की फसलों का विकास जेनेटिक इंजीनियरिग द्वारा संभव हो पाया है। इस तकनीक के द्वारा फसल के उन जीन या जीनों को प्रतिरोपित किया जाता है, जो फसल को हमारी आवश्यकताओं के अनुरूप बनाते है। इसमें प्रोटीन, वसा के अतिरिक्त उपलब्धता के अलावा फसल को कीट एवं रोग प्रतिरोधक बनाया जाता है। इनमें सूखा झेलने और उच्च पोषकता देने की क्षमता भी होती है। वैश्विक स्तर पर जीएम फसलों के प्रति कृषकों का रुझान बढ़ा है।

भारत में अनाज भंडारण गृहों की कमी तथा शीत गृहों में अनियमित विद्युत आपूर्ति के कारण फल, फूल और सब्जियों को संरक्षित नहीं रखा जा सकता। साथ ही सूखे का भी प्रभाव पड़ता रहता है। यहां के वातावरण कीटों आदि से भी फसलों को काफी नुकसान पहुचंता है। ऐसी स्थिति में यदि जीनों में फेरबदल कर इन फसलों को रोगमुक्त एवं अधिक देर तक टिकाऊ, ताजा और संरक्षित बना दिया जाए तो किसानों के साथ-साथ उपभोक्ताओं को भी लाभ होगा। जीएम फसलों की कृषि हेतु बीजों की उत्पादन की अनुमति कृषि मंत्रलय की जेनेटिक इंजीनियरिंग एप्रुवल कमेटी देती है। इस कमेटी द्वारा अभी तक केवल बीटी कपास की खेती की अनुमति दी गई है। साथ ही बीटी बैंगन को लेकर हालिया विवाद तो चल ही रहा है।