डोकलाम के संदर्भ में भारत-चीन गतिरोध

वर्तमान में अनेक मुद्दों को लेकर सनातन रुप से परस्पर संघर्षरत दिखने वाली दुनिया की प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक भारत एवं चीन की सभ्यताओं के मध्य समन्वय का एक लंबा इतिहास भी रहा है। यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण कदापि न होगा कि पृथ्वी-ग्रह के पूर्वी भाग की सभ्यता-संस्कृति का शिखरारोहण इनके संयुक्त व स्वतंत्र प्रभावों का ही प्रतिफल रहा है। प्राचीनकाल से लेकर एशिया महाद्वीप में यूरोपियों के पदार्पण तक ये सभ्यतायें एक साथ फलती-फूलती रहीं। परन्तु 18वीं शताब्दी में भारतीय-उपमहाद्वीप के ब्रिटिश औपनिवेशिक साम्राज्य के अधीन होते ही इस क्षेत्र का और विस्तृत तथा गहन आर्थिक शोषण करने की लालसा में ब्रिटेन ने चीन तक अपनी गतिविधियों का विस्तार कर दिया। इस प्रक्रिया में भारतीय ब्रिटिश-साम्राज्य और चीनी-राजतंत्र व कालान्तर में चीनी-गणतंत्र, जो 1911 की क्रान्ति के पश्चात अस्तित्व में आया था, के मध्य सीमान्त को लेकर विवाद उत्पन्न हुए।

इन विवादों का निपटारा चूंकि एक औपनिवेशिक शक्ति के द्वारा अपने तात्कालिक हितों को साधने के लिए किया गया था अतः इनके साथ अनेक विसंगतियों तथा अदूरदर्शिताओं की सम्बद्धता कोई आश्चर्य की बात नहीं थी। स्मरणीय है कि अन्ततः कुछ सीमा तक भारतीय संसाधनों की सहायता से ही ब्रिटेन ने स्वतंत्र चीन को अर्द्धउपनिवेशीकृत स्थिति में पहुंचा दिया। स्वतंत्र-भारत का चीन के साथ सीमा-संघर्ष इसी विकृत औपनिवेशिक विरासत का ही एक भाग है। इस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के संदर्भ में ही डोकलाम में वर्तमान भारत-चीन गतिरोध को समझा जा सकता है।

असहमति और विवाद का स्त्रेत

संघर्ष के केन्द्र में विवादित डोकलाम पठार है, जिसे मैन्डरिन भाषा में डांगलैंग (Donglang) के नाम से भी जाना जाता है। भूटान (Kingdom of Bhutan) की दक्षिण-पश्चिमी सीमा पर अवस्थित 89 वर्ग किमी- का यह पठार दक्षिणी तिब्बत की चुम्बी घाटी (Chumbi Valley) से जुड़ा हुआ है। इस पठार पर भूटान और चीन (People’s Republic of China) दोनों अपना दावा करते रहे हैं, जिसके कारण इसकी स्थिति विवादास्पद बन गई है। प्रतिद्वंद्वी दावों के बावजूद भी यह क्षेत्र पिछले कई दशकों से लगभग शान्तिपूर्ण बना रहा।

भारत-चीन गतिरोध क्यों?

वर्तमान डोकलाम पठार प्रश्न से भारत का संबद्ध हो जाना किसी भी प्रकार असंगत अथवा आश्चर्यजनक नहीं है। वस्तुतः यह 1962 का भारत-चीन सीमा युद्ध ही था, जिसने शताब्दियों से भूटानी पशुपालकों द्वारा चारागाह के रुप में प्रयोग किए जा रहे लगभग अज्ञात इस पठार को भू-रणनीतिक रुप से महत्वपूर्ण बना दिया। इसी समय से चीन ने डोकलाम पर अपना दावा प्रस्तुत करना आरंभ किया।

इस पठार पर चीनी प्रभुत्व भारतीय हितों के लिए गम्भीर खतरा उत्पन्न कर सकता है। क्योंकि इस स्थिति में चीनी सेना भारत के मुर्गी की गर्दन रुपी सिलीगुड़ी कॉरिडोर, जो पूर्वोत्तर राज्यों को शेष भारत से जोड़ने वाली अत्यंत संवेदनशील कड़ी है, के और समीप पहुंच जायेगा। साथ ही ध्यातव्य है कि चीन के साथ सीमा-विवाद के तीन केन्द्रों: पश्चिमी-सेक्टर (अक्साई चिन), मध्य-सेक्टर (सिक्किम), पूर्वी-सेक्टर (अरुणाचल प्रदेश) में भारत यदि कहीं लाभ की स्थिति में है तो वह एकमात्र सिक्किम-सेक्टर ही है। भूटान के साथ विशेष संबंध होने के कारण भारत की यहां सैन्य उपस्थिति है, जिसके कारण चीन से युद्ध की स्थिति में वह चुम्बी घाटी को दो तरफ से घेर सकता है।

हालिया संघर्ष

8 जून, 2017 की रात्रि को चीनी सेना (People’s Liberation Army - PLA) ने सामरिक गतिरोध खड़ा करने के उद्देश्य से डोकलाम पठार में गुप्त रुप से प्रवेश लिया और वहां स्थित भूटानी बंकरों को नष्ट कर दिया। ध्यान देने योग्य है कि पिछले कुछ समय से चीन इस क्षेत्र में अपनी सैन्य उपस्थिति मजबूत करने के लिए आर्टिलरी बंदूकों, हल्के टैंकों व भारी वाहनों का परिवहन करने में सक्षम विस्तृत सड़कों का जाल बिछा रहा है। भूटानी सेना ने चीनी गतिविधियों का तब विरोध किया जब 16 जून को पीएलए, सड़क निर्माण की सामग्री के साथ डोकलाम पठार के दक्षिण-पश्चिमी छोर पर अवस्थित डोकाला में उपस्थित हो गयी। भूटान ने पठार में यथास्थिति बनाये रखने के द्विपक्षीय वादों का स्मरण कराया, जिनमें से अन्ततम 1998 में हस्ताक्षरित किया गया था। दोंनो सेनाओं के मध्य कहासुनी व झड़प भी हुयी, परंतु चीनी सेना तब भी पीछे नहीं हटी। तब विवश होकर भूटान को भारत से सहायता मांगनी पड़ी। दो दिन पश्चात भारतीय सेना के हस्तक्षेप ने पीएलए की गतिविधियों को रोक तो दिया, परंतु भारत-चीन के मध्य एक अनिश्चित तथा खतरनाक गतिरोध को जन्म दे दिया।

गतिरोध व भूटान

पूर्व में दिये गये विवरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि इस गतिरोध के मूल में दक्षिण-एशियाई देश भूटान है, जिसकी सांस्कृतिक रुप से भारत तथा जातीय व नस्लीय रुप से चीन से समीपता है। ध्यातव्य हो कि भूटान, चीन के साथ अधिकारिक राजनयिक संबंध नहीं रखता, साथ ही अवसर पड़ने पर भारत मध्यस्थ की भूमिका निभाता रहा है। वस्तुतः भूटान और चीन के रिश्ते ऐतिहासिक रुप से तनावपूर्ण रहे हैं। वहीं भूटान और भारत के संबंधों का इतिहास घनिष्ठ मैत्री, भाईचारा व रणनीतिक-सहयोग का रहा है। सन् 1949 की संधि के अन्तर्गत भूटान ने विदेश-नीति व रक्षा मामलों में भारत के मार्गदर्शन को स्वीकार किया था। 2007 की नयी मैत्री संधि भी चरित्र में लगभग अपने पूर्ववर्ती के ही समान है, परंतु इसने वैदेशिक मामलों में भारत से मार्गदर्शन लेने की बाध्यता और शास्त्रें के आयात के लिए भारत की पूर्वानुमति सुनिश्चित करने वाले प्रावधान के स्थान पर भूटान की वृहत्तर संप्रभुता को मान्यता दी है। संधि की दूसरी धारा दोनों देशों के मध्य संबंधों के स्वरूप को स्पष्ट करने वाली हैः ‘चीन और भूटान के मध्य अंतरंग मित्रता व सहयोग के स्थाई रिश्तों को सुरक्षित रखने हेतु किंगडम ऑफ भूटान तथा भारत गणराज्य की सरकारें अपने राष्ट्रीय हितों से संबंधित मुद्दों पर परस्पर घनिष्ठतापूर्वक सहयोग करेंगी।’ यही संधि वर्तमान भूटान-चीन सीमा-विवाद में भारत के हस्तक्षेप का आधार है।