शंघाई सहयोग संगठन

भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अस्ताना, कजाकिस्तान में संपन्न हुए शंघाई सहयोग संगठन (Shanghai Coope-ration Organisation - SCO) की बैठक में शामिल हुए। यह बैठक भारत के लिए काफी महत्वपूर्ण रहा है क्योंकि इसी बैठक में भारत को शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की स्थायी सदस्यता प्राप्त हुई। हालांकि सितंबर 2014 में ही भारत ने शंघाई सहयोग संगठन की सदस्यता के लिए आवेदन किया था। वर्ष 2015 में ही रूस के उफा में भारत को शंघाई सहयोग संगठन के सदस्य का दर्जा दिए जाने की घोषणा की गयी थी। भारत काफी लम्बे समय से शंघाई सहयोग संगठन की सदस्यता प्राप्त करना चाहता था। इस बैठक में भारत के साथ-साथ पाकिस्तान को भी सदस्यता प्राप्त हुई। भारत का मानना है कि इस संगठन से जुड़ने पर कई संभावित समस्याओं का समाधान निकल सकता है जिससे वह घिरा है।

शंघाई सहयोग संगठन में शामिल होने से भारत के लम्बे समय से अर्थात शीत युद्ध के अंत से ही चले आ रहे प्रतिस्पर्धी भू-राजनीतिक वैचारिक तनाव से थोड़ा राहत मिलने की संभावना है। लेकिन सवाल यह है कि भारत अपनी समस्याओं की शुरुआत कहां से करता है? महाद्वीपीय या समुद्री डोमेन से? क्या इसे गहन शक्तियों (Heartland Power) अर्थात रूस एवं चीन के साथ संरेिखत करना चाहिए या एक रिमलैंड शक्ति (Rimland power) अर्थात जापान और पश्चिमी यूरोपीय गठबंधन को एक साथ करना चाहिए? क्या भारत खुद को यूरेशियन या भारत-प्रशांत शक्ति के रूप में परिभाषित करेगा? भारत का एससीओ की ओर रुख को दो महत्वपूर्ण कारकों की समीक्षा कर स्पष्ट किया जा सकता है।

एक सोवियत संघ के पतन के बाद से मध्य एशिया के साथ भारत का अच्छा संबंध रहा है। यदि आर्यों से मुगल तक सभ्यतागत संपर्कों पर विचार किया जाए तो स्पष्ट हो जाता है कि अन्य शक्तियों के साथ प्रतिस्पर्धा करने की प्रथा की आवश्यकता क्यों पड़ी? महान गेम मेमे (Great game meme) भी इसे औचित्य प्रदान करता है। लेकिन 1991 के बाद से भारत का अनुभव बताता है कि भारत आंतरिक एशिया के भौगोलिक समस्याओं को दूर नहीं कर सकता।

पाकिस्तान इस क्षेत्र में भारत की पहुंच को अवरुद्ध करता रहा है इसलिए इसकी संभावना बहुत कम है कि भारत आंतरिक एशिया के भू-राजनीति पर निर्णायक प्रभाव डाल सकेगा। यहां तक कि शक्तिशाली ब्रिटिश राज के पास भी इतने संसाधन नहीं थे कि वे आंतरिक एशिया के अंदर तक घुस सकें तथा महाद्वीपीय शक्तियों को पराजित कर सके। कलकत्ता आंतरिक एशिया में एक रक्षात्मक ढाल के रूप बसा था जो महाद्वीपीय प्रतिद्वंद्वियों को उपमहाद्वीप में अतिक्रमण करने से रोकने पर केंद्रित था। विभाजन ने निश्चित रूप से भारत को आंतरिक एशिया में बहुत कम प्रभावशाली स्थिति में पहुंचा दिया।

भारत एससीओ में शामिल होने के लिए इतनी उत्सुक इसलिए भी था ताकि बहुध्रुवीय विश्व के निर्माण पर ध्यान केंद्रित किया जा सके। सोवियत संघ के पतन के बाद एकध्रुवीय विश्व की स्थिति से बचने के लिए भारत ने विद्रोही तरीके से यूरेशियन गठबंधन बनाने के रूसी अभियान में शामिल हुआ ताकि अमेरिकी शक्ति को सीमित किया जा सके। भारत का मानना है कि यह शीत युद्ध के बाद संयुक्त राज्य अमेरिका और पश्चिम के साथ गहन भागीदारी के लिए एक उपयोगी पूरक होगा। भारत का यह भी मानना है कि अमेरिका के साथ उसके बढ़ते भागीदारी से रूस और चीन के मन में एक संदेह की भावना थी कि शायद भारत विश्वसनीय नहीं है।

उदाहरण के लिए, भारत आतंकवाद जैसी समस्यायों से काफी चिंतित है, वहीं एससीओ के प्रमुख उद्देश्यों में आतंकवाद, उग्रवाद और अलगाववाद का मुकाबला करना है। ऐसी स्थिति में यह सवाल स्वभाविक रूप से उभरता है की क्या चीन आतंकवाद एवं सीमा विवाद संबंधी समस्यायों पर पाकिस्तान से वार्ता कर सकता है तथा क्या पाकिस्तान पर दबाब बना सकते हैं? लेकिन अफसोस वह पाकिस्तान पर कश्मीर में सीमा पार आतंकवाद और अलगाववाद का समर्थन रोकने के लिए किसी भी प्रकार का दबाव बनाने की संभावना नहीं दिख रही है। जबकि मामले को और बदतर बनाने के लिए चीन एससीओ का इस्तेमाल ‘‘अच्छे पड़ोसी'' के नाम पर कश्मीर पर पाकिस्तान के साथ बातचीत करने के लिए भारत पर दबाव डालने के लिए कर सकता है। पिछले कुछ वर्षों से रूस, चीन और पाकिस्तान के करीब आ रहा है ऐसी स्थिति में मॉस्को का कश्मीर पर भारत के बचाव के पक्ष में आने की काफी कम संभावना है।

एससीओ आंतरिक एशिया में कनेक्टिविटी और क्षेत्रीय एकीकरण को बढ़ावा देने पर भी केंद्रित है। उम्मीद है कि यह भारत के लिए लाभप्रद होगा परन्तु वर्तमान में ऐसा प्रतीत नहीं हो रहा है। किसी भी मामले में, भारत ने निष्कर्ष निकाला है कि चीन की बेल्ट एंड रोड पहल बीजिंग के आर्थिक, राजनीतिक और सामरिक हितों को बढ़ावा देने के बारे में है जो कि भारत की क्षेत्रीय संप्रभुता को ठेस पहुंचाते हैं और दक्षिण एशिया एवं हिंद महासागर में क्षेत्रीय प्रधानता का दावा करते हैं।

भारत को एससीओ की राजनीति में लम्बे समय तक बने रहने के लिए संभावित बदलावों का सामना करने के लिए स्वयं को तैयार रखना चाहिए। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा उत्पन्न राजनैतिक अशांति तथा रूसी और चीनी हितों के बीच अंतर्निहित विरोधाभास आदि कुछ महत्वपूर्ण बिंदु हैं जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। यहां तक कि जब वे ‘‘बहुध्रुवीयता'' की बात करते हैं तो चीन और रूस ट्रम्प के साथ अलग-अलग द्विपक्षीय सौदे की ओर आगे बढ़ते है क्योंकि दोनों के हित एक दूसरे से काफी अलग हैं।

मध्य एशिया के संदर्भ में भी रूस और चीन के हित अलग अलग हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को शीत युद्ध के पश्चात भारतीय तनाव के कारणों को एससीओ के मंच पर उठाना चाहिए ताकि पूरी दुनिया को पता चल सके कि भारतीय उपमहाद्वीप में तनाव के लिए कौन जिम्मेवार है। यदि वह रूस और चीन के नेतृत्व वाली महाद्वीपीय गठबंधन में भारत की भूमिका की सीमाओं के प्रति यथार्थवादी है तो वह भारत की समुद्री साझेदारी के निर्माण के लिए आगे आएगा। यदि यूरेशिया में भारत के अवरोधों को नियंत्रित किया जाता है तो यह भारत के इंडो-पैसिफिक संबंध को मजबूत करने में सहायक होगा।