खाद्य सुरक्षा हेतु इसरो की पहल

सन् 2050 तक भारत की जनसंख्या 1.6 बिलियन हो जायेगी तब हमें सभी लोगों को भोजन सुरक्षा देने के लिए अपने अनाजों का उत्पादन दुगुना करना होगा। अतः पर्यावरण को नुकसान पहुंचाए बिना अनाज उत्पादन तथा कृषि उत्पादकता को बढ़ाना अपिरहार्य है। इसके लिए हमें वर्षा पोषित क्षेत्रें तथा नष्ट हो चुकी जमीनां के विकास, पैदावार चक्र के विश्लेषण, कृषि कार्यप्रणालियों का उचित मानिटर व प्रबंधन, सूखे तथा बाढ़ का फसलों पर प्रभाव के आकलन आदि पर ध्यान केंद्रीत करना होगा।

गत कई वर्षों से खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने तथा समयानुकूल आयात/निर्यात संबंधित फैसले लेने के लिए कृषि पैदावार प्रबंधन एवं नियोजन के विभिन्न पहलुओं पर सुदूर संवेदन तकनीक का प्रभावी प्रयोग किया जा रहा है।

पैदावार पूर्वानुमान

प्रति एकड़ पैदावार, सही समय पर पूर्वानुमान, उत्पादन एवं उपज के आकलन से संबंधित विश्वसनीय सूचनाएं घरेलू तथा विदेशीय व्यापार के अलावा ऊपर से नीचे तथा नीचे से ऊपर चलनेवाले क्रियाकलापों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण होती हैं।

फसल कटाई से काफी पहले देश की मुख्य फसलों के बुआई क्षेत्र तथा उत्पादन के आकलन के वास्ते उपग्रह आंकड़ों के साथ-साथ धरातल की कृषि मौसम विज्ञान तथा बाजार अर्थ व्यवस्था से संबंधित सूचनाओं का विश्लेषण किया जाता है। कार्यकारी व नियमित रूप में गेहूं के चार पूर्वानुमान, खरीफ धान, शीतकालीन आलू व सरसों के तीन पूर्वानुमान तथा जूट व रबी धान के पूर्वानुमान जारी किए जाते हैं। विविध फसलों के दौरान उपलब्ध कराई गई सूचनाओं के कारण फसल उत्पादन तथा कटाई के उपरांत को कामों में कमी आई है और इस कारण नीति, मूल्य, उपलब्धता आदि से संबंधित निर्णय लेने में सुविधा हुई है।

इस कारगर प्रणाली को कृषि मंत्रलय के अंतर्गत स्थापित महालनोबिस राष्ट्रीय कृषि पूर्वानुमान केन्द्र, पूसा परिसर, नई दिल्ली में अप्रैल 23, 2012 को स्थापित कर संस्थागत रूप दिया गया है।

फसल चक्र विश्लेषण

फसल उत्पादन स्तर को सुदृढ़ बनाने के लिए फसलों में बदलाव करना हरित क्रांति से मिला एक सबक है। उपग्रह आंकड़ों से फसल-चक्र विश्लेषण के लिए महत्वपूर्ण सूचनाएं उपलब्ध होती हैं जिनमें बुआई क्षेत्र, बुआई के तरीके, फसलों में अदला-बदली, फसल पंचांग, फसल प्रबलता, मृदा की किस्म आदि शामिल हैं।

फसल के तरीकों तथा फसल क्रमार्वतन मानचित्रें को फसल विविधता (किसी विशेष क्षेत्र में बोई गई फसलों की संख्या) तथा फसल की प्रबलता (किसी एक खेत में वर्ष के दौरान एक के बाद एक बोई गई फसलों की संख्या) के आकलन में प्रयुक्त किया जाता है।

शुष्क भूमि उत्पादकता में सुधार

शुष्क भूमि क्षेत्रें में सहभागी जल-संभर विकास, समन्वित भूमि एवं जल संसाधन प्रबंधन, फसल चक्र विश्लेषण आदि कुछ अभिनव तथा प्रमाणित सुदूर संवेदन आधारित कार्यकारी परियोजनाएं हैं। वर्षा पोषित कृषि पैदावार को बढ़ाने, ग्रामीणों की जीविका सुरक्षा को सुनिश्चित करने तथा प्रकृतिक संसाधानों को अपक्षय से रोकने के लिए जल-संभर विकास कार्यक्रम देश में मृदा एवं जल संसाधानों के संरक्षण से जुड़ी हुई प्रमुख पहल है।

भूमि एवं जल संसाधनों के विकास तथा उपचारित जल संभरों में आए सुधारों के आकलन के लिए अंतरिक्ष अनुप्रयोगों को उनके अनुकूल बनाया गया है। देश के 25% भौगोलिक क्षेत्र में चलाए गए दीर्घकालिक विकास हेतु एकीकृत मिशन (आईएमएसडी) ने सूखा प्रभावित तथा वर्षा पोषित क्षेत्रें में मृदा एवं जल संरक्षण उपायों में बड़ा महत्वपूर्ण योगदान दिया है।

भूमि क्षमता का पुनः स्थापन

हरित क्रांति के बाद 70 के दशक के मध्य में उत्तर प्रदेश में गंगा के मैदान अनुपजाऊ बनने लगे। ये मैदान ऐतिहासिक तौर पर अत्यंत उपजाऊ तथा सिंचित कृषि परिस्थितिक तंत्र माने जाते थे। गंगा के मैदानों में लगभग 0.6 मिलियन हेक्टेर इलाका उपयुक्त जल निकास न होने के कारण जल भराव, मृदा लवणता एवं क्षारीयता से बुरी तरह प्रभावित हो गया।

उपग्रह आंकड़ों से यहां क्षारीय भूमि को चिह्नित करने में मदद मिली तथा जमीन में जिप्सम को मिलाने तथा अपवाह तंत्र में सुधार जैसे माननीय हस्तक्षेप से निम्निकृत मृदा में सुधार लाकर उत्पादकता को पुनः बहाल किया जा सका है।

कृषि हेतु अधिक भूमि

देश के लगभग 16% जमीन बंजर भूमि है। इसमें कृषि के योग्य तथा अयोग्य दोनों प्रकार की भूमियां शामिल हैं। कृषि उत्पादकता बढ़ाने, परिस्थिकी में सुधार लाने, गरीबी हटाने तथा पर्यावरण की रक्षा करने के लिए इन भूमियों का कुशल प्रबंधन अत्यन्त महत्वपूर्ण हो जाता है। ग्रामीण विकास मंत्रलय के आदेश से सम्पूर्ण देश में बंजर भूमियों का सुदूर संवेदन आधारित मानचित्रण व मॉनीटरन किया गया।

देश में कुल 46.72 मिलियन हेक्टर बंजर भूमि है। इस सूचना के आधार पर ग्रामीण विकास मंत्रलय देशभर में बंजर भूमि विकास कार्यक्रम को लागू करने की योजना बना रहा है। इन कोशिशों के नतीजों में कृषि कार्यों में (विशेषकर वर्षा पोषित क्षेत्रें में) विविधीकरण तथा प्रबलीकरण, देखा गया है।