विकास में नियोजन की भूमिका

भारत में विकास के लक्ष्य को प्राप्त करने का एक महत्वपूर्ण प्रारूप, नियोजन रहा है। भारतीय संविधान द्वारा सामाजिक विकास को स्वाधीन भारत के लक्ष्य के रूप में स्वीकार किया गया, जहां सामाजिक, राजनैतिक एवं आर्थिक न्याय, चिंतन, अभिव्यक्ति एवं धर्म के अनुपालन की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा एवं अवसरों की समानता आदि की स्थापना पर बल दिया गया और इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए नियोजित सामाजिक विकास को एक साधन के रूप में प्रयुक्त किया गया।

1950 में इस नियोजित विकास के एक महत्वपूर्ण अभिकरण के रूप में राष्ट्रीय योजना आयोग का गठन किया गया और इस आयोग को राष्ट्र की प्राकृतिक एवं मानवीय स्रोतों को जांचने का कार्य सौंपा गया ताकि नियोजन के द्वारा विकास के लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सके।

योजना आयोग के द्वारा विकास हेतु इस स्रोतों को संगठित करने के लिए विभिन्न योजनाएं बनायी गयीं और योजनाबद्ध विकास के माध्यम से भारत को आधुनिक विकसित समाज के रूप में परिणत करने का प्रयास किया गया। भारत में इस नियोजित विकास का एक प्रमुख पक्ष पंचवर्षीय योजनाएं रही हैं, जिनके माध्यम से प्रत्येक पांच वर्ष के लिए योजना का निर्माण करके विकास के लक्ष्यों को प्राप्त करने का प्रयास किया गया और प्रत्येक पंचवर्षीय योजना में मुख्यतः वृद्धि, समानता और सामाजिक न्याय पर जोर दिया गया। उल्लेखनीय है कि भारत सरकार द्वारा योजना आयोग के स्थान पर 1 जनवरी, 2015 को नीति (National Institution for Transforming India - NITI) आयोग का गठन किया गया। यह संस्थान सरकार को नीतिगत व निर्देशात्मक गतिशीलता प्रदान करने के साथ-साथ उसके थिंक टैंक के रूप में कार्य करता है।

नियोजन में व्याप्त कमियां

इस तरह नियोजन के अंतर्गत विभिन्न योजनाओं के माध्यम से वृद्धि, स्वतंत्रता, समानता और सामाजिक न्याय को केन्द्र में रखते हुए सामाजिक विकास की क्रिया प्रगतिशील रही है और इसने विकास के लक्ष्यों को कुछ हद तक प्राप्त किया है, परंतु साथ ही यह भी सत्य है कि हम लक्ष्य से बहुत दूर हैं।

नियोजित विकास के भारतीय दृष्टिकोण एवं राजनीति के आलोचकों के अनुसार विकास के इन सभी प्रयासों में केवल कुछ विशिष्ट वर्गो को ही लाभान्वित किया है। बेरोजगारी एवं अल्प रोजगार युवाओं की बढ़ती संख्या यह बताती है कि आर्थिक रूप से लाभप्रद उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए विकास के मानवीय स्रोतों का उपयोग नहीं हो पाया है। विभिन्न क्षेत्रें एवं समूहों के मध्य असमानताएं बढ़ी हैं।

आर्थिक सुधार (1991) के बाद से इन असमानताओं में और आर्थिक वृद्धि दर्ज की गयी है। स्वतंत्रता के बाद से आज तक नियोजित विकास के बावजूद भूमि सुधार, ग्रामीण संरचना का आधुनिकीकरण, जनसंख्या नियंत्रण आदि आधारभूत समस्याओं का समाधान नहीं हो पाया है। भारत में विकास की प्रक्रिया में निम्नलिखित असंतुलन निहित है-

  1. क्षेत्रीय असंतुलन
  2. भूमि सुधार की असफलता
  3. बेरोजगारी की समस्या
  4. कृषि-सेवा में बढ़ता अंतर
  5. बुनियादी सेवाओं का अभाव,
  6. बढ़ती मुद्रास्फीति एवं गरीबी
  7. वित्तीय समावेशन का अभाव
  8. भ्रष्टाचार
  9. नीतिगत जड़ता
  10. अपर्याप्त सामाजिक सुधार

इस प्रकार भारत के अंदर अपनायी गयी विकास प्रक्रिया में व्याप्त असंतुलन ने भारत के अंदर अमीर-गरीब, संसाधन युक्त-संसाधन विहीन वर्गो में बड़ा अंतर पैदा कर दिया। जिससे वंचित वर्गो के अंदर असंतोष में तीव्र वृद्धि हुई। जिसकी परिणति भारत के कई क्षेत्रें में उग्रवाद के उत्थान एवं उसके प्रसार के रूप में हुई। इसी विश्लेषण के संदर्भ में ही भारत में विकास एवं उसमें रह गयी कमियों के कारण हो रहे उग्रवाद के प्रसार को समझा जा सकता है।