जैविक खेती से संबंधित विभिन्न योजनाएं

नेशनल प्रोजेक्ट आन आर्गेनिक फार्मिंग (NPDF): नेशनल प्रोजेक्ट आन आर्गेनिक फार्मिंग के तहत जैव कीटनाशक, जैव उर्वरक उत्पादन इकाइयाँ तथा कंपोस्ट उत्पादन इकाइयां स्थापित करने के लिए, जिनकी लागत 40 लाख व 60 लाख रुपये है, क्रमशः 25 तथा 30 प्रतिशत वित्तीय परिव्यय की सहायता दी जाती है।

वाणिज्य मंत्रालय द्वारा इसकी शुरूआत वर्ष 2001 में की गई थी। इसका उद्देश्य जैविक कृषि और उत्पादों के प्रमाणिकरण कार्यक्रम के लिए मूल्यांकन प्रदान करना है।

नेशनल हार्टिकल्चर मिशन तथा हार्टिकल्चर मिशन फॉर नार्थ ईस्ट एंड हिमालयन स्टेटः ‘‘नेशनल हार्टिकल्चर मिशन’’ तथा ‘‘हार्टिकल्चर मिशन फार नार्थ ईस्ट एंड हिमालयन स्टेट’’ योजनाओं के अंतर्गत वर्मी कम्पोस्ट उत्पादन इकाई की स्थापना के लिए कुल लागत 50 की प्रतिशत सहायता दी जाती है, जिसमें प्रत्येक लाभार्थी की अधिकतम सीमा 30,000 रुपये है। अधिकतम क्षेत्रफल 4 हेक्टेयर में जैविक खेती अपनाने वाले प्रत्येक लाभार्थी को 10,000 रुपये की आर्थिक मदद दी जाती है।

भारत में जैविक कृषि के तीन आयाम

  1. जैविक कृषि की पहली श्रेणी में उन किसानों को शामिल किया गया है जो ऐसे क्षेत्रों में रहते हैं जहां कम या न के बराबर रासायनिक पदार्थों का प्रयोग होता है। प्रथम श्रेणी के अधिकांश किसान परंपरागत प्रकार के हैं तथा इन्हें प्रमाणिकता प्राप्त नहीं है। इसी श्रेणी के किसान प्रमाणिक तथा अप्रमाणिक दोनों हैं।
  2. जैविक खेती की दूसरी श्रेणी में वे किसान शामिल किए गए हैं जिन्होंने हाल ही में जैविक खेती को पारंपरिक खेती के हानिकारक प्रभाव के कारण अपनाया है।
  3. तीसरी श्रेणी के किसान पूर्णतः प्रमाणित हैं तथा व्यापारिक किसान हैं।

गोकुल ग्राम योजना

केंद्र सरकार ने जुलाई 2014 में राष्ट्रीय स्तर की योजना ‘‘राष्ट्रीय गोकुल मिशन’’ की घोषणा की। इसके लिए गायों की स्वदेशी नस्लों की रक्षा के लिए पूर्ववर्ती बजट में 150 करोड़ रुपये की व्यवस्था की गई थी। इस मिशन के अंतर्गत अनेक स्वदेशी पशु केंद्र (गोकुल ग्राम) स्थापित किए गए हैं। यह मिशन दूध उत्पादन में सुधार का भी कार्य करेगा। इस मिशन का मुख्य लक्ष्य स्वदेशी नस्लों को वैज्ञानिक तरीके से विकसित करना व संरक्षण देना है। यह मिशन 12वीं पंचवर्षीय योजना के अंतर्गत चलाई गई गोमतीय प्रजनन एवं दुग्ध विकासीय योजना पर केंद्रित है।

पर्माकल्चर

पर्माकल्चर (Permaculture) शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग 1973 में आस्ट्रेलियाई प्रोफेसर डेविड हॉमग्रेन एवं बिल मॉलिसन ने किया था। वैसे बिल मॉलिसन को इसका जनक माना जाता है। पर्माकल्चर पर्मा यानी स्थायी एवं कल्चर यानी खेती से बना है। इसका मतलब है स्थायी कृषि यानी पर्मानेंट एग्रीकल्चर। यह कृषि उत्पादकता पारितंत्र का सचेत डिजाइन एवं रखरखाव है जिसमें विविधता, स्थायित्व एवं प्राकृतिक पारितंत्र के प्रति सामंजस्य भी शामिल है।

पर्माकल्चर परंपरागत एवं नई अभिक्रियाओं पर बल देता है जिसमें सभी प्रकार का निवेश या इनपुट खेत में ही उत्पादित होता है जो खाद्य आत्म-निर्भरता को बढ़ावा देता है। यह छोटे किसानों को ध्यान में रखकर डिजाइन की गई है जिससे की उन्हें कम भूमि पर भी अत्यधिक उत्पादन प्राप्त हो सके, उनका काम आसान हो सके साथ ही वे पर्यावरणीय क्षरण को भी रोक सकें। यह सतत रहन-सहन को सृजित करता है।

भारत में पर्माकल्चरः कृषि विशेषज्ञों के अनुसार भारत में पर्माकल्चर नया नहीं है वरन् इसका अनुपालन वैदिक काल से ही किया जाता रहा है। चूंकि यह भारतीय परंपरा में सन्निहित है इसलिए अन्य देशों के मुकाबले भारत में इसे आसानी से स्वीकार किया जा सकता है। भारत में अभी भी अधिकांश जगहों पर खेतों की जुताई के लिए बैल हल को उपयोग में लाया जाता है, हल भी धातु के बजाय लकड़ी का बना होता है, बीजों को बांस की टोकरी में भंडारित किया जाता है। गाय का गोबर एवं मिट्टी का इस्तेमाल पर्माकल्चर को अपनाने के लिए उचित माहौल सृजित करता है।

पर्माकल्चर के लाभः पर्माकल्चर के कई लाभ हैं। एक तो यह कि इसमें कृषि के साथ जैव विविधता को बनाये रखा जाता है। कम से कम भूमि अधिकाधिक उत्पादन का प्रयास किया जाता है। इसमें खेत ही उर्वरक का भी उत्पादन करते हैं जिससे रासायनिक उर्वरकों पर निर्भरता समाप्त हो जाती है और बचत होती है।

समेकित कीट प्रबंधान के लिए राष्ट्रीय नीति

60 व 70 के दशकों में कीटनाशकों का अंधाधुंध तथा मनमाना प्रयोग ही कृषि उत्पादन बनाए रखने के लिए पादप सुरक्षा का एकमात्र उपाय था। इससे अनेक प्रकार के बुरे प्रभाव पड़े, जैसे जंतु तथा मानव स्वास्थ्य जोखिम, पारिस्थितिकीय असंतुलन, कीटों में कीटनाशकों के प्रति प्रतिरोधी क्षमता का विकास, कीट पुनरूत्थान, पर्यावरण प्रदूषण के साथ प्राकृतिक शत्रुओं (जैव नियंत्रक एजेंट) का विनाश आदि।

राष्ट्रीय कीट प्रबंधन नीति तत्कालीन केंद्रीय कृषि मंत्री द्वारा वर्ष 1985 में बनाई गई थी। बाद में राष्ट्रीय कृषि नीति 2000 तथा राष्ट्रीय कृषक नीति, 2007 बनाए गए। इसे 12वीं पंचवर्षीय योजना के दौरान रासायनिक कीटनाशकों के नकारात्मक प्रभाव पर बनाई गई योजना की भी सहायता प्राप्त है।

खतरनाक रासायनिक कीटनाशकों के प्रयोग को कम करने तथा फसल उत्पादकता में वृद्धि लाने के लिए, भारत सरकार के कृषि मंत्रालय के कृषि तथा सहयोग विभाग (Department of Agriculture and Coopreration DAC) ने एक योजना स्ट्रैंथनिंग एंड माडर्नाइजेशन ऑफ पेस्ट मैनेजमेंट (IPM) की शुरुआत 1991-92 में की है। समेकित पेस्ट मैनेजमेंट कार्यक्रम के अंतर्गत, भारत सरकार ने 28 राज्यों तथा एक केंद्रशासित प्रदेश में 31 केंद्रीय (IPM) केंद्रों की स्थापना की है।

जलवायु स्मार्ट कृषि

जलवायु स्मार्ट कृषि एवं विश्व बैंक समूहः ‘संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन’ ने खाद्य सुरक्षा कृषि और जलवायु परिवर्तन की समस्या से निपटने के लिए वर्ष 2010 में हेग (Hague) में हुए सम्मेलन में जलवायु स्मार्ट कृषि शब्द का इजाद किया। इसकी अवधारणा मूल रूप से खाद्य सुरक्षा से जुड़ी थी लेकिन भविष्य में होने वाले खाद्य संकटों को ध्यान में रखते हुए इसे जलवायु परिवर्तन से भी जोड़ दिया गया। जलवायु स्मार्ट कृषि की अवधारणा वैश्विक स्तर पर सरकारों, क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों, आम लोगों और निजी क्षेत्रों के लिए एक व्यापक अवधारणा है। यह उभरते वैश्विक और क्षेत्रीय सहयोगी राष्ट्रों के बीच एक साझा मंच प्रदान करता है ताकि खाद्य सुरक्षा, जलवायु परिवर्तन और कृषि से जुड़ी समस्याओं को आपस में साझा किया जाए और एक दूसरे का सहयोग कर इस समस्या को समाप्त करने का प्रयास किया जाए।

विश्व बैंक ने हाल ही में जारी अपनी ‘जलवायु परिवर्तन योजना’ में वर्ष 2019 तक कृषि कार्यों को 100 प्रतिशत जलवायु स्मार्ट करने की प्रतिबद्धता व्यक्त की है। विश्व बैंक की रिपोर्ट में इस बात पर ध्यान केंद्रित किया गया कि जलवायु जोखिम (Climate Risks) को कम करने के लिए विभिन्न योजनाओं का क्रियान्वयन किस प्रकार किया जाए। ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने की विभिन्न कार्ययोजनाओं को तैयार किया गया है, ताकि इसका प्रभाव कृषि पर न पड़े।

जलवायु स्मार्ट कृषि एवं भारतः जलवायु स्मार्ट कृषि का परीक्षण भारत के हरियाणा, बिहार, पंजाब, ओडिशा और कर्नाटक राज्य के गांवों में किया गया है। हरियाणा के करनाल जिले के 27 गांवों में इसके सफल परीक्षण के बाद हरियाणा सरकार ने इसे राज्य के अन्य जिलों में लागू करने का निर्णय लिया है। बिहार सरकार ने भी इसे पूरे राज्य में लागू करने लिए कार्ययोजना तैयार करने का निर्णय लिया। भारत सहित दुनिया के सभी देश जलवायु परिवर्तन के कारण खेती व जल पर पड़ने वाले प्रभाव को झेल रहे हैं। जलवायु स्मार्ट कृषि आज समय की आवश्यकता है और सभी को इसे अपनाने की आवश्यकता है, ताकि खाद्य समस्या से निपटा जा सके।

जलवायु अनुकूल तकनीकें: विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी की सहायता से जलवायु परिवर्तन का सामना करने, इसके प्रभावों को कम करने तथा किसानों की आजीविका सुरक्षित रखने के लिए वर्ष 2011 से निक्रा’ (नेशनल इनोवेशंस ऑन क्लाइमेट रेजिलियेंट एग्रीकल्चर) नामक एक राष्ट्रव्यापी शोध परियोजना चलायी जा रही है। भारतीय कृषि अनुसंधान पिरषद के नेतृत्व में चलायी जा रही इस परियोजना में फसलों, पशुपालन और प्राकृतिक संसाधन संरक्षण जैसे अहम मुद्दों को शामिल किया गया है। एक विशेष उपलब्धि के रूप में ‘निक्रा’ परियोजना के अंतर्गत 614 जिलों के लिए जिला आकस्मिकता योजनाएं बनाई गई हैं जिनमें किसानों को विभिन्न प्राकृतिक आपदाओं के समय अपनी आजीविका तथा कृषि उत्पादन को सुरक्षित रखने के वैज्ञानिक उपाय सुझाए गए हैं।

बारानाजा खेतीः हाल के वर्षों में अकस्मात वर्षा से फसलों के नष्ट होने से किसानों को चिंतित होते हमने देखा है। परंतु उत्तराखंड के ऐसे किसान जो ‘बारानाजा’ (Baranaja) खेती पद्धति को अपनाये हुये हैं, वे इस प्रतिकूल जलवायु परिस्थितियों में भी अपने फसल को बचाये रखने में सफल रहे हैं। बारानाजा कृषि की आदिम प्रणाली है। बारानाजा दो शब्दों ‘बारह’ व ‘अनाज’ से मिलकर बना है। इस तरह की खेती में 12 या उससे अधिक प्रकार की स्थानिक फसलों को एक साथ उगाया जाता है। यह वर्षा पोषित खेती है। इस परंपरागत खेती तकनीक से न केवल पर्याप्त फसल मिल पाती है वरन् बीजों को आगे ले जाने में भी सहायता मिलती है।

  • टिहरी गढ़वाल में ‘बीज बचाओ आंदोलन’ के प्रणेता विजय जधारी को इस खेती प्रणाली का जनक माना जाता है।
  • इस खेती में बाजरा व दाल की फसल मुख्य रूप से उगायी जाती हैं। इस प्रकार की खेती में यह सुनिश्चित किया जाता है कि नाइट्रोजन की उचित मात्रा मृदा में रहे जिससे मृदा स्वास्थ्य को बनाये रखा जा सके। इसके अन्य लाभ हैं; जलवायु अनुकूलता। एक साथ 12 या उससे अधिक फसलों को इस आशा से उगाया जाता है कि प्रतिकूल मौसम में कम से कम कुछ प्रकार की फसलें तो जरूर बची रहेंगी। इस पद्धति के साथ अनाज एवं फसल की पोषण संपदा को बचाये रखा जाता है।