गरिमापूर्ण मृत्यु का अधिकार

जीवन व मृत्यु अलग-अलग नहीं, बल्कि मृत्यु जीवन का ही आिखरी पड़ाव है। जस्टिस चंद्रचूड़ द्वारा यह बात लिविंग विल तथा इच्छामृत्यु को अनुमति प्रदान करने के फैसले के दौरान कही गई। गौरतलब है कि सर्वाेच्च न्यायालय की संविधान पीठ ने अपने दिए गए एक निर्णय में इच्छामृत्यु की वसीयत (Living Will) व निष्क्रिय इच्छामृत्यु (Passive Euthanasia) को कुछ शर्तों के साथ अनुमति प्रदान कर दी। निर्णय में कहा गया कि गरिमामयी मृत्यु का अधिकार एक मौलिक अधिकार है। साथ ही अदालत ने सक्रिय इच्छामृत्यु को अवैध ठहराया।

संविधान पीठ ने यह फैसला कॉमन कॉज नामक एनजीओ द्वारा वर्ष 2005 में दायर जनहित याचिका पर दिया_ सुप्रीम कोर्ट द्वारा इसे फरवरी 2015 में संविधान पीठ को भेजा गया था। शीर्ष न्यायालय के अनुसार अब मेडिकल बोर्ड की सिफारिश पर बीमार व्यक्ति का लाइफ सपोर्ट सिस्टम हटाया जा सकता है। इसके लिए परिवार की इजाजत के साथ-साथ विशेषज्ञ चिकित्सक बोर्ड को यह भी सुनिश्चित करना होगा कि मरीज का ठीक हो पाना अब असंभव है।

न्यायालय ने अपने फैसले में कहा कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के मूलभूत अधिकार में ‘गरिमापूर्ण मृत्यु का अधिकार' भी शामिल है। शीर्ष न्यायालय ने अपने इस निर्णय के संबंध में विस्तृत दिशानिर्देश भी जारी किए। मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता में 5 न्यायाधीशों की इस संविधान पीठ में न्यायमूर्ति एके सीकरी, न्यायमूर्ति एएम खानविलकर, न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ व न्यायमूर्ति अशोक भूषण शामिल थे।

याचिका का आधार यह था कि असहनीय पीड़ा से बचने के लिए किसी व्यक्ति को अपनी इच्छा के अनुसार मरने का अधिकार होना चाहिए अथवा नहीं? इस संबंध में जस्टिस चंद्रचूड़ का मानना था कि ‘जीवन के अंत समय में किसी व्यक्ति को उसकी गरिमा से वंचित करना, उसे उसके अर्थपूर्ण अस्तित्व (Meaningful Existence) से वंचित करने के समान है।’

इस मामले में याचिकाकर्ता द्वारा कोर्ट से अपील की गई थी कि शांतिपूर्ण मृत्यु का अधिकार अनुच्छेद 21 के तहत मिले जीवन के अधिकार का ही एक भाग है। इसके अलावा जब मेडिकल विशेषज्ञ द्वारा यह घोषित कर दिया जाता है कि टर्मिनल बीमारी से पीडि़त किसी व्यक्ति की रिकवरी असंभव है, तो ऐसी स्थिति में पीडि़त व्यक्ति को जीवन सहायता प्रणाली पर निर्भर होने से इंकार करने का अधिकार अनिवार्य रूप से दिया जाना चाहिए।

उच्चतम न्यायालय के दिशानिर्देश

  • उच्चतम न्यायलय ने कहा कि जब तक लिविंग विल से संबंधित कानून नहीं बन जाता तब तक कोर्ट द्वारा जारी निम्नलिखित दिशा-निर्देशों का पालन करना अनिवार्य होगा।
  • इसे केवल स्वस्थ मस्तिष्क वाले वयस्क व्यक्ति द्वारा ही निष्पादित किया जा सकता है।
  • लिविंग विल को व्यक्ति की सहमति प्राप्त होने के आधार पर उसकी स्वेक्षा से ही निष्पादित किया जाना चाहिए।
  • इच्छामृत्यु की वसीयत को शुद्ध और स्पष्ट शब्दों में ही व्यक्त किया जाना चाहिए। साथ ही इसमें इसका स्पष्ट उल्लेख भी होना चाहिए कि किन परिस्थितियों में उपचार रोक दिया जाए या वापस ले लिया जाए। इसमें यह भी निर्दिष्ट होना चाहिए कि यह वसीयत किसी भी समय निरस्त की जा सकती है।
  • इसमें निष्क्रिय इच्छामृत्यु की प्रक्रिया की शुरुआत करने वाले या इच्छामृत्यु की वसीयत लिखने वाले व्यक्ति द्वारा निर्दिष्ट अभिभावक या करीबी रिश्तेदार (guardian or close relative) के नाम का भी उल्लेख होना चाहिए।
  • लिविंग विल को दो गवाहों द्वारा सत्यापित किया जाएगा और प्रथम श्रेणी के न्यायिक मजिस्ट्रेट इसे प्रति-हस्ताक्षरित करेंगे। मजिस्ट्रेट इसकी एक सॉफ्ट कॉपी तथा एक हार्ड कॉपी संरक्षित रखेंगे व इन्हें जिला अदालत रजिस्ट्री (District Court Registry) में अग्रेषित करेंगे।

केंद्र सरकार का रुख

न्यायालय द्वारा याचिकाकर्ता और सरकार की सुनवाई के बाद यह फैसला 11 अक्टूबर, 2017 को सुरक्षित कर लिया गया था। एडिशनल सॉलिसिटर जनरल पीएस नरसिंहा के अनुसार सरकार ने निष्क्रिय इच्छामृत्यु को लेकर ‘द मेडिकल ट्रीटमेंट ऑफ टर्मिनली इल पेंशेंट’ (प्रोटेक्शन ऑफ पेशेंट एंड मेडिकल प्रैक्टिसनर्स) बिल, 2016’ [The Medical Treatment of Terminally Ill Patients (Protection of Patients and Medical Practitioners) Bill, 2016, का मसौदा तैयार कर लिया है जिसके तहत ठीक न होने वाली बीमारी से पीडि़त मरीजों को इलाज से मना करने की इजाजत होगी। प्रस्तावित विधेयक के तहत निष्क्रिय इच्छामृत्यु के मामले में मेडिकल बोर्ड यह निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र होगा कि मरीज से लाइफ सपोर्ट सिस्टम हटाया जाना चाहिए या नहीं। ध्यातव्य है कि केंद्र सरकार पैसिव यूथेनेशिया के पक्ष में तो थी परन्तु लिविंग विल के पक्ष में नहीं। 10 अक्टूबर, 2017 को केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के समक्ष इच्छामृत्यु की वसीयत यानी लिविंग विल का विरोध करते हुए कहा था कि इसका बड़े पैमाने पर दुरुपयोग किया जाएगा। साथ ही कानूनी, सामाजिक और धार्मिक कारणों की वजह से यह भारत जैसे देश में सही नहीं है।

अरुणा शानबाग बनाम भारत सरकार

भारत में इच्छामृत्यु को वैध बनाने से जुड़ा विवाद दशकों से चला आ रहा है। इस संबंध में वर्ष 1996 में सुप्रीम कोर्ट की 5 जजों की बेंच द्वारा ‘ज्ञान कौर बनाम पंजाब’ के मामले में कहा गया था कि आत्महत्या के प्रयास से जुड़ी भारतीय दंड संहिता की धारा 309, संविधान का उल्लंघन नहीं करती तथा जीवन के अधिकार में मृत्यु का अधिकार शामिल नहीं है। इसी मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा था कि इच्छामृत्यु व किसी की सहायता से की गई आत्महत्या भारत में न्यायसंगत नहीं है।

इसके बाद 2011 में ‘अरुणा शानबाग बनाम केंद्र सरकार’ के एक अन्य मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा कुछ शर्तों के साथ निष्क्रिय इच्छामृत्यु को मान्यता दे दी गई; मामले में कहा गया था कि कोर्ट की कड़ी निगरानी में आसाधारण परिस्थितियों में पैसिव यूथेनेशिया दिया जा सकता है। यद्यपि इस मामले में भी इच्छामृत्यु की वसीयत को मान्यता प्रदान नहीं की गई थी।

गौरतलब है कि नवंबर 1973 में मुंबई के केईएम हॉस्पिटल की नर्स अरुणा शानबाग के साथ एक वार्डबॉय द्वारा किये गए बलात्कार के बाद वे कोमा में चली गई थीं; 42 वर्षों तक कोमा में रहने के बाद वर्ष 2015 में उनकी मृत्यु हो गई।

लिविंग विल बनाम पैसिव यूथेनेशिया

इच्छा मृत्यु की वसीयत/लिविंग विलः यह एक कानूनी दस्तावेज है जिसके तहत किसी व्यक्ति द्वारा स्वस्थ रहने के दौरान पहले से ही यह घोषित कर दिया जाता है कि वह व्यक्ति ऐसी स्थिति में जीवित रहना चाहेगा अथवा नहीं, जब वह गंभीर रूप से बीमार हो तथा जीवन समर्थन उपकरणों के बिना शीघ्र ही उसकी मृत्यु हो जाना सुनिश्चित हो। लिविंग विल तब ही प्रभावी होती है जब कोई व्यक्ति अपनी इच्छाओं को स्वयं अभिव्यक्त कर सकने में अक्षम हो।

निष्क्रिय इच्छामृत्यु/पैसिव यूथेनेशियाः इससे आशय, लम्बी बीमारी से पीडि़त किसी व्यक्ति के जीवन समर्थन उपकरणों को जानबूझकर हटा लेने से है ताकि उस व्यक्ति को कष्टदायक जीवन से मुक्ति मिल जाए।

सक्रिय इच्छामृत्यु/ऐक्टिव यूथेनेशियाः सक्रिय इच्छामृत्यु ऐसी इच्छामृत्यु है जिसके तहत मरीज की मृत्यु के लिए कुछ किया जाए मसलन असाध्य रोग से पीडि़त किसी व्यक्ति को जहर देकर या पेनकिलर की अतिरिक्त डोज देकर कष्टदायक जीवन से मुक्ति देना।

इच्छामृत्यु से जुड़े कानूनी प्रावधान

भारतीय कानून में इच्छामृत्यु को अवैध घोषित किया गया है; भारतीय दंड संहिता की धारा 309 के अंतर्गत यह कृत्य आत्महत्या के प्रयास से जुड़ा अपराध है। यद्यपि अब अपने नए निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने निष्क्रिय इच्छामृत्यु को मंजूरी प्रदान कर दी है। सुप्रीम कोर्ट ने भी एक्टिव यूथेनेसिया को गैरकानूनी करार दिया। कोर्ट ने कहा कि किसी को भी जहरीला इंजेक्शन इसलिए नहीं दिया जा सकता कि वो दर्द नहीं सहन कर पा रहा है या आर्थिक हालातों कि वजह से इलाज नहीं करा सकता; ये सदोष हत्या (Culpable Homicie) के समान होगा, जिसका उल्लेख आईपीसी की धारा 304 में है।

भारत दंड संहिता की धारा 306 के तहत आत्महत्या के लिए उकसाने या समर्थन करने पर दंड का प्रावधान है।

विभिन्न देशों में इच्छामृत्यु

नीदरलैंड, बेल्जियम, कोलंबिया, कनाडा, स्विट्जरलैंड, लग्जेमबर्ग तथा अमेरिका के कुछ राज्यों में इच्छामृत्यु को स्वीकृति प्राप्त है। इच्छामृत्यु को स्वीकृति प्रदान करने वाले अमेरिकी राज्यों में वॉशिंगटन, ओरेगन, मोन्टाना, वेरमॉन्ट तथा कैलीफोर्निया राज्य शामिल हैं।

स्विट्जरलैंड में इसे ‘असिस्टेड सुसाइड’ कहा जाता है। इसमें एक व्यक्ति विधिक अनुमति के साथ किसी अन्य व्यक्ति को आत्महत्या करने में मदद करता है। वर्ष 2002 में नीदरलैंड ने इच्छामृत्यु तथा असिस्टेड सुसाइड को वैधता प्रदान कर दी थी।

बेल्जियम दुनिया में इकलौता देश है जो विशेष परिस्थितियों में किसी भी उम्र के व्यक्ति को मरने की उम्र चुनने की आजादी देता है। इस तरह का कानून नीदरलैंड में भी है, लेकिन गंभीर रूप से बीमार बच्चे अगर 12 साल से ज्यादा की उम्र के हों तभी वो इस अधिकार का इस्तेमाल कर सकते हैं।

उल्लेखनीय है कि इच्छामृत्यु व्यक्ति के अधिकार के साथ-साथ सामाजिक सरोकार से जुड़ा मसला भी है। वर्तमान दौर में जब वृद्ध जनों को बोझ समझा जाता है संभव है कि मरीज के परिवार से जुड़े लोग संपत्ति हड़पने के लिए इस अधिकार का दुरुपयोग करें। इसके अतिरिक्त इस अधिकार को लेकर एक आशंका यह भी व्यक्त की जाती है कि विकासमान प्रौद्योगिकी व मेडिकल साइंस के इस आधुनिक समय में यह कहना मुश्किल है कि वर्तमान में असाध्य किसी बीमारी का भविष्य में इलाज खोजा नहीं जा सकेगा।