पत्र-पत्रिका संपादकीय

इस अंक में विभिन्न समाचार-पत्रों में प्रकाशित लेखों के आधार पर संपादकीय तैयार किया गया है। इसका उद्देश्य प्रतियोगी छात्रों को प्रारम्भिक व मुख्य परीक्षा से संबंधित विश्लेषणात्मक प्रश्नों की तैयारी में मदद करना है।

इंडो-पैसिफिक इकोनॉमिक फ्रेमवर्क और भारत

अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने आखिरकार अपनी महत्वपूर्ण आर्थिक पहल ‘इंडो-पैसिफिक इकोनॉमिक फ्रेमवर्क’ (Indo-Pacific Economic Framework: IPEF) को टोक्यो में लॉन्च कर दिया है। संयुक्त राज्य अमेरिका ने स्पष्ट किया है कि नया फ्रेमवर्क एक मुक्त व्यापार समझौता नहीं है, बल्कि यह डिजिटल अर्थव्यवस्था, विश्वसनीय आपूर्ति शृंखला, सुधारात्मक आर्थिक विकास, कॉर्पोरेट उत्तरदायित्व और भ्रष्टाचार विरोधी जैसे प्रमुख फोकस क्षेत्रों पर नियमों को आकार देने के लिए भारत सहित तेरह देशों को एक साथ लाता है।

भारत के लिए IPEF अभी भी एक अच्छा अवसर साबित हो सकता है। क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक समझौते (RCEP) और ट्रांस-पैसिफिक साझेदारी के लिए व्यापक और प्रगतिशील समझौता (Comprehensive and Progressive Agreement for Trans-Pacific Partnership-CPTPP) में शामिल होने की भारत की अनिच्छा को देखते हुए, IPEF में शामिल होने से भारत को इस क्षेत्र मे अर्थव्यवस्था को मजबूत करने का एक और व्यवहार्य अवसर मिल सकता है। इसके अलावा, भारत एक आर्थिक गठबंधन को एकजुट करने में अमेरिका के हितों का साझेदार बन सकता है, जो आर्थिक विकास को सुरक्षित कर सकता है, जलवायु परिवर्तन का मुकाबला कर सकता है और हिन्द-प्रशांत क्षेत्र में चीनी गतिविधियों (Chinese moves) पर नजर रखते हुए आपूर्ति शृंखलाओं को फिर से व्यवस्थित कर सकता है।

हालाँकि, भारत को 'डेटा प्रवाह और स्थानीयकरण' के मुद्दे पर विकसित अर्थव्यवस्थाओं के साथ अपनी असहमति पर कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है। यदि IPEF में भारत मजबूती से आगे नहीं बढ़ता है तो भारत अपनी स्थिति से अवगत कराने और अन्य देशों को इसके लिए एकजुट करने के लिए एक महत्वपूर्ण आर्थिक मंच खो देगा।

स्रोत- ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन

भारत में गर्भपात के अधिकारों पर चर्चा की जरूरत

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2019-2021 के हालिया आंकड़ों से पता चलता है कि भारत में सभी गर्भधारण में से 3% गर्भपात के रूप में सामने आए हैं। भारत में आधे से अधिक (53%) गर्भपात निजी क्षेत्रों में किए जाते हैं, जबकि केवल 20% ही सार्वजनिक स्वास्थ्य केन्द्रों में किए जाते हैं। ऐसा इसलिए है कि सार्वजनिक स्वास्थ्य केन्द्रों में अक्सर गर्भपात सेवाओं की कमी होती है। एक चौथाई से अधिक (27%) गर्भपात महिला द्वारा घर पर ही किया जाता है। ये जोखिम भरे गर्भपात अप्रशिक्षित लोगों द्वारा अस्वास्थ्यकर परिस्थितियों में किए जाते हैं, जो शरीर के लिए नुकसानदायक होते हैं।

गर्भ का चिकित्सकीय समापन (मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी) अधिनियम, जिसे 1971 में अधिनियमित किया गया था और फिर 2021 में संशोधित किया गया, निश्चित रूप से विशिष्ट परिस्थितियों में भारत में 'गर्भ के चिकित्सकीय समापन' (medical termination of pregnancy) को कानूनी बनाता है। हालांकि, इस अधिनियम को मुख्य रूप से चिकित्सकों की सुरक्षा के लिए कानूनी दृष्टिकोण से तैयार किया गया है क्योंकि भारतीय दंड संहिता के तहत, 'प्रेरित गर्भपात' (induced miscarriage) एक दंडनीय अपराध है। इस अधिनियम में केवल 'गर्भवती महिला' का उल्लेख है, इस प्रकार यह ट्रांसजेंडर व्यक्तियों और अन्य को कवर नहीं करता है।

हमारे देश में गर्भपात पर चर्चा को केवल परिवार नियोजन और मातृ स्वास्थ्य के मुद्दे तक सीमित न रखते हुये एक यौन स्वास्थ्य और प्रजनन स्वास्थ्य अधिकार (reproductive rights) के मुद्दे तक विस्तारित करने आवश्यकता है। भारत की स्थिति दर्शाती है कि केवल एक कानून ही पर्याप्त नहीं है और हमें प्रजनन स्वास्थ्य न्याय (reproductive justice) के लिए कदम उठाने चाहिए। अच्छी गुणवत्ता और सम्मानजनक गर्भपात सुविधा सुनिश्चित करने के लिए हमें स्वास्थ्य प्रणालियों में सुधार करना चाहिए।

स्रोत- द हिंदू

मौत के कारणों का पता लगाने में भारत पीछे

भारत में मृत्यु और जन्म के पंजीकरण की प्रक्रिया में काफी सुधार हुआ है। हालांकि, मौत के कारणों (cause of death) का पता लगाने में ज्यादा प्रगति नहीं हुई है। मेडिकल सर्टिफिकेशन ऑफ कॉज ऑफ डेथ, 2020 (Medical Certification of Cause of Death 2020) की रिपोर्ट के अनुसार अधिकांश राज्यों को पंजीकृत मृत्यु के 20% से कम का ही कारण पता चलता है। राष्ट्रीय स्तर पर 2020 में दर्ज सिर्फ 22.5% मौतों में ही कारण प्रमाणित हैं। बिहार राज्य में पंजीकृत मृत्यु में से केवल 3% के लिए ही मृत्यु का कारण प्रदान किया गया है। अन्य राज्य झारखंड में 6.1%, मध्य प्रदेश में 6.7% और नागालैंड में 7.6% मौत का ही कारण पता चल पाया है। यह समझना होगा कि कैसे ये राज्य मृत्यु के कारणों के आंकड़ों के लिए प्रणाली स्थापित करने के लिए बाधाओं को दूर करने में विफल रहे हैं।

मृत्यु के कारणों की ठोस जानकारी प्रदान करने में असमर्थता प्रदूषण जैसे स्वास्थ्य खतरों के प्रभाव का आकलन करने या कोविड की मौतों की संख्या निर्धारित करना मुश्किल बनाती है। इस बात की जानकारी के बिना कि किन बीमारियों से मौतें हो रही हैं, बीमारियों का मुकाबला करने की रणनीति बनाना मुश्किल है।

ऐसे मामलों में, रिकॉर्ड के उचित डिजिटलीकरण के आधार पर मजबूत स्वास्थ्य सेवा के लिए विश्वसनीय और आसान पहुंच, मौत के कारणों का पता लगाने में मदद करेगी। स्वास्थ्य क्षेत्र में फंड आवंटन और विकासशील नीतियों के मार्गदर्शन के लिए मौत के कारणों के आंकड़े महत्वपूर्ण है।

स्रोत- द इकनॉमिक टाइम्स

राजद्रोह कानून के दुरुपयोग को रोकें

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्ष में एक महत्वपूर्ण फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र और राज्य सरकारों को राजद्रोह कानून की आईपीसी की धारा 124ए (124A) के तहत कोई मामला दर्ज नहीं करने का आदेश दिया है। यह कानून किसी भी भाषण, लेखन या ऐसे समूह के प्रतिनिधित्व का अपराधीकरण करता है, जो सरकार के खिलाफ असंतोष को उत्तेजित करता है।

यह ब्रिटिश इतिहासकार-राजनेता मैकाले द्वारा तैयार किया गया था। राजद्रोह को 1870 में भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए में शामिल किया गया था। इसका प्रयोग ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार द्वारा प्रमुख भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों के लेखन और भाषणों और ब्रिटिश सरकार के विरोधियों को दबाने के लिए किया गया था। धारा 124ए के अनुसार, राजद्रोह एक गैर-जमानती अपराध है, जिसमें तीन साल से लेकर आजीवन कारावास तक की सजा के साथ ही जुर्माने का भी प्रावधान है। इस कानून के तहत आरोपित व्यक्ति को सरकारी नौकरी से भी रोक दिया जाता है और उनका पासपोर्ट सरकार द्वारा जब्त कर लिया जाता है।

पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने केदार नाथ सिंह वाद में 1962 में सुनाए अपने फैसले में राजद्रोह कानून की वैधता को बरकरार रखते हुए इसके दुरुपयोग की संभावना को भी सीमित करने की कोशिश की थी। शीर्ष अदालत ने कहा था कि सरकार की आलोचना को तब तक राजद्रोह नहीं माना जा सकता, जब तक कि उसमें उकसाने की बात न हो या हिंसा के लिए आह्वान न किया गया हो। बावजूद इसके हाल के वर्षों में देखा गया है कि राजद्रोह कानून का लगातार दुरुपयोग किया जा रहा है। पुलिस राजद्रोह की व्यापक परिभाषा का उपयोग कर रही है, और जो भी सरकार की कड़ी और कठोर शब्दों में आलोचना कर रहा है उन पर इस कानून का शिकंजा कसा जा रहा है।

गृह मंत्रालय ने सुप्रीम कोर्ट को राजद्रोह कानून पर "पुनर्विचार" करने के अपने फैसले के बारे में सूचित किया है। सरकार ऐसी स्थिति में संशोधन करके इसके दुरुपयोग को रोक सकती है तथा केवल ऐसेकार्य जो राज्य की संप्रभुता, अखंडता और सुरक्षा को प्रभावित करते हैं, को ही अपराध की श्रेणी में ला सकती है।

स्रोत- द हिंदू

दिव्यांगजनों के लिए करें गरिमापूर्ण जीवन सुनिश्चित

हाल में इंडिगो द्वारा रांची-हैदराबाद की उड़ान में एक दिव्यांग बच्चे को विमान में चढ़ने से रोक देने की घटना ने एक बार फिर से दिव्यांगजनों के अधिकारों पर सवाल खड़े कर दिये हैं। इंडिगो का कहना था कि बच्चे का व्यवहार असामान्य है और विमान में उसके यात्रा करने से अन्य यात्रियों को परेशानी हो सकती है। दुर्भाग्य से, दिव्यांगजनों के जीवन में सकारात्मक अनुभव कम ही हुये हैं। न केवल बुनियादी ढांचे और पहुंच के मामले में, बल्कि सामान्य व्यवहार में भी अधिकांश सार्वजनिक स्थान उनके लिए बहुत अनुकूल नहीं हैं। ज्यादातर मामलों में, दिव्यांग बच्चों और उनके माता-पिता या देखभाल करने वालों को अभद्र व्यवहार का सामना करना पड़ता है।

यह पहली बार नहीं है कि जब दिव्यांगजनों को भेदभाव का सामना करना पड़ा है। यह हालिया मामला दर्शाता है कि राष्ट्र को दिव्यांगजनों के लिए अधिक समावेशी और उनकी जरूरतों के प्रति कहीं अधिक सहानुभूतिपूर्ण बनना होगा। दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम 2016 के प्रावधान कागज पर तो सशक्त हैं, लेकिन उदासीनता से लागू किए गए हैं। अधिकारियों को सुगम्य स्थानों (accessible spaces) और सार्वजनिक सुविधाओं के विस्तार और पर्याप्त प्रशिक्षण एवं जागरूकता पर ध्यान देना चाहिए ताकि दिव्यांगजनों की गरिमापूर्ण जीवन तक पहुंच सुनिश्चित की जा सके।

स्रोत- हिंदुस्तान टाइम्स

भारत की कुपोषण चुनौती

कुपोषण मानव पूंजी को प्रभावित करता है और इसलिए इस पर तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है। 2021 की सतत विकास रिपोर्ट के अनुसार, भारत 193 देशों में 120वें स्थान पर है और जीरो हंगर (zero hunger), स्वास्थ्य और कल्याण, सुरक्षित पेयजल और लैंगिक समानता के लक्ष्यों में पीछे है। 2021 के ग्लोबल हंगर इंडेक्स के अनुसार, भारत 116 देशों में से 101वें स्थान पर है और 'भूख की गंभीर' श्रेणी में आता है। यह आंकड़ा बच्चों में अस्वीकार्य रूप से उच्च स्तर के कुपोषण को दर्शाता है, जिसमें भारत में 35.5% बच्चे बौनेपन (स्टंटिंग) का शिकार हैं और 32.1% कम वजन वाले बच्चे हैं।

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 5 (एनएफएचएस -5) के आंकड़ों के अनुसार शहरी क्षेत्रों (30.1%) की तुलना में ग्रामीण क्षेत्रों (37.3%) में खराब सामाजिक-आर्थिक स्थिति के कारण स्टंटिंग अधिक है। गर्भधारण से लेकर जीवन के पहले 1,000 दिनों तक विभिन्न उपायों/कार्यक्रमों के माध्यम से स्टंटिंग पर ध्यान देना महत्वपूर्ण है। भौगोलिक क्षेत्रों के संदर्भ में, मेघालय (46.5%), बिहार (42.9%), उत्तर प्रदेश (39.7%), और झारखंड (39.6%) में स्टंटिंग की दर बहुत अधिक है।

चार दशक पुराने एकीकृत बाल विकास सेवा कार्यक्रम, 1995 से मध्याह्न भोजन योजना और 2018 में हाल ही में पोषण अभियान के बावजूद भारत में कुपोषण की उच्च दर है। कुपोषण की सबसे बड़ी चुनौती के समाधान के लिए एक समग्र दृष्टिकोण और एक अंतर-क्षेत्रीय रणनीति की आवश्यकता है। पांच वर्ष तक की उम्र के बच्चों पर स्वास्थ्य और पोषण कार्यक्रमों के संमिलन (convergence) पर जोर देना अनिवार्य है। कुपोषण को दूर करने के लिए कार्यक्रमों की प्रभावी निगरानी और कार्यान्वयन की आवश्यकता है।

स्रोत- ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन