एम-एस-पी- की प्रभाविकता

यद्यपि सरकार विभिन्न फसलों के लिए एम-एस-पी- घोषित करती है लेकिन इस मूल्य पर खरीद चावल, गेहूं, गन्ना, कपास जैसी फसलों की होती है। जिसके परिणामस्वरूप किसान दलहन, तिलहन, मोटे अनाज की फसलों के ऊपर इन फसलों की खेती को वरीयता देते हैं।

प्रायः एम-एस-पी- जून एवं अक्टूबर में दो फसल सत्रें (खरीफ एवं रबी) से पहले घोषित की जाती है। जिससे कि किसान एम-एस-पी- के आधार पर फसलों की बुआई कर सके। एम-एस-पी- की प्रभाविता देखने के लिए नीति आयोग ने एक रिपोर्ट में पाया कि लगभग 10% किसान ही फसल सत्र से पहले घोषित एम-एस-पी- के बारे में जानते थे तथा 62% किसान फसल बोने के बाद एम-एस-पी- के बारे में जानते थे।

एम-एस-पी- ने फसल प्रारूप को बिगाड़ दिया है। किसानों द्वारा गेहूं, चावल एवं गन्ने की अति खेती दलहन एवं तिलहन जैसे फसलों की खेती की कीमत पर ही रही है। इसका नतीजा यह हुआ कि जल संसाधन का अतिदोहन, मृदा क्षरण हुआ एवं जल की गुणवत्ता में खराबी भी आई है। कुछ राज्यों में विशेषकर उत्तर-पश्चिम राज्यों में इसी समय पूर्वोत्तर के राज्यों के लिए भेदभाव उत्पन्न हुआ है जहां एम-एस-पी- पर खरीद बहुत कम है या है ही नहीं।

सिंचाई

प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना (पी-एम-के-एस-वाई-): यह सिंचाई प्रणाली के लिए बेहतर कार्ययोजना एवं जल के प्रभावी प्रयोग का रोडमैप प्रदान करती है।

पी-एम-के-एस-वाई- 4 प्रमुख क्षेत्रें पर ध्यान देती है-

  1. त्वरित सिंचाई लाभ कार्यक्रम
  2. हर खेत को पानी
  3. पर ड्रॉप मोर क्रॉप
  4. वाटरशेड विकास

पी-एम-के-एस-वाई- के लक्ष्यों के समक्ष विद्यमान चुनौतियां: इस योजना के लक्ष्य को पाने के लिए जमीनी स्तर पर बहुत ज्यादा सुधारों की जरूरत है। यदि वर्तमान स्थिति विद्यमान रही तो इसके उद्देश्यों को पाने में दशकों लग जायेंगे इसलिए इसके लिए आवंटित धन में कई गुना वृद्धि की जरूरत है। भारत को ‘नदी जोड़ों परियोजना’ को तीव्र गति से बढ़ाना होगा। असम सहित पूर्वोत्तर भारत में हल्के ट्यूबवेल्स की जरूरत है। साथ ही राष्ट्रीय स्तर पर पी-एम-के-एस-वाई- के लिए एक समर्पित एजेन्सी की जरूरत है। भूमिगत जल के प्रबंधन के लिए मॉडल बिल।

वर्ष 2011 एवं 2013 में केन्द्र सरकार ने भूमिगत जल प्रबंधन के लिए मॉडल बिल जारी किया था जिसके आधार पर राज्य स्वयं इसके लिए कानून बना सकते थे। वर्ष 2012 में जल के प्रबंधन, दक्षता, प्रयोग एवं मूल्य आदि के लिए राष्ट्रीय जल नीति घोषित की गयी थी।

वर्तमान में ‘केन्द्रीय जल संसाधन एवं विकास मंत्रलय’ द्वारा ‘मॉडल बिल फॉर ग्राउण्ड वाटर’ सर्कुलेट किया गया जिसे राज्यों द्वारा स्वीकार किया जा सकता है। इस बिल में जल के प्रबंधन एवं संरक्षण के लिए संस्थागत कार्य योजना प्रदान की गयी है। इसमें भूमिगत जल को सार्वजनिक सम्पत्ति माना गया है। राज्य जल के औद्योगिक या अत्यधिक दोहन करने वालों से शुल्क ले सकेंगे।

ड्रिप सिंचाई

आर्थिक सर्वेक्षण 2015-16 में बताया गया कि भारत में सिंचाई के लिए अधिकांश ‘फ्रलड ईरीगेशन’ तकनीकी का प्रयोग किया जाता है जो बेहद अदक्ष है इसमें जल की अत्यधिक बर्बादी होती है। इसलिए किसानों को इससे निकलकर ड्रिप सिंचाई की ओर रूख करना चाहिए इससे जल एवं सिंचाई दोनों की लागत में बचत होगी। इसके अलावा ड्रिप सिंचाई से उत्पादन में भी बढ़ोतरी होती है।

ड्रिप सिंचाई प्रणाली के लाभ

  • भूमि क्षरण की समस्या का समाधान होता है।
  • ड्रिप एवं स्प्रिंकलर सिंचाई के लाभ
  • मृदा में कटाव एवं क्षरण नहीं होता है।
  • बीजों की बेहतर ग्रोथ में सहायक।
  • ड्रिप सिंचाई प्रणाली की कमियां
  • डिजाईन करने, स्थापित करने एवं प्रयोग करने के लिए उच्च कौशल की जरूरत।
  • मृदा में लवणता की आशंका रहती है।

स्प्रिंकलर सिंचाई

  • शुरुआत में बड़ी मात्र में निवेश की जरूरत होती है।
  • स्प्रिंकलर प्रणाली तूफान/तेज हवा के दौरान विखंडित हो जाती है।
  • जल उपयोग की दक्षता को सुधारने के अन्य तरीके

राईस इण्टेन्सीफिकेशन (एस-आर-आई-) प्रणालीः यह चावल की कृषि करने की विभिन्न प्रक्रियाओं का समूह है जैसे नर्सरी प्रबंधन, ट्रासप्लांटिंग का समय तथा जल एवं वीड (weed) प्रबंधन।

यह चावल उत्पादन करने की परम्परागत प्रणाली से बेहद अलग है। इस तरह चावल उत्पादन की इन नयी प्रक्रियाओं के समूह को ही (एस-आर-आई-) कहा जाता है। एस-आर-आई- उत्पादन की 4 प्रणालियों- मृदा उर्वरता प्रबंधन, प्लांटिंग मैथेड, वीड (weed) नियंत्रण, सिंचाई जल प्रबंधन का समूह है। जल का मल्टीपल उपयोग। इससे कृषि में अत्यधिक आय सृजित होती है तथा किसानों के जीविकोपार्जन में विविधता आती हैं जिससे किसानों की सुभेघता में कमी होती है। साथ ही कृषि का सतत विकास भी सुनिश्चित होता है।

जल संसाधन संरक्षण। जल संरक्षण के प्रयास जल संसाधन की उपलब्धता, भूमिगत जल के रिचार्ज एवं जनसंख्या की सामाजिक आर्थिक दशाओं से सीधा जुड़े हुए हैं। जल संरक्षण के प्रयास रेन वाटर हार्वेस्टिंग एवं वाटर शेड विकास आदि के द्वारा किया जाना चाहिए। विशेषीकृत समाधान। इसकी वहां जरूरत होती है जहां सामान्य प्रयासों से जल का सही प्रबंधन नहीं हो पाता। ऐसा प्रयास जल संसाधन का अत्यधिक दबाव झेल रहे क्षेत्रें में किया जाता है। ऐसे क्षेत्रें में नदियों को जोड़कर या जल ग्रिड के द्वारा जल उपलब्ध कराया जाता है। जल के अति दबाव वाले क्षेत्रेंको प्राथमिकता में रखकर वाटरशेड प्लस गतिविधियां पी-एम-के-एस-वाई- एवं मनरेगा के वार्तालाप (कन्वर्जेन्स) के माध्यम से की जा रही है।

संस्थागत पुनर्संरचना

प्रभावी जल प्रबंधन स्थानीय जल संसाधन संस्थाओं के प्रदर्शन से प्रत्यक्षतः जुड़ा है- इसलिए ऐसी संस्थाओं में सहभागी सिंचाई प्रबंधन एवं वाटर यूजर एसोसिएशन (WUAs) की जरूरतों के अनुरूप सुधारों की जरूरत है। देश की राष्ट्रीय जल नीतिः सहभागी सिंचाई प्रबंधन पर जोर देती है। बीज एवं उर्वरक। बीज एवं उर्वरक कृषि उत्पादकता में निर्णायक आगतें हैं इसलिए इन दोनों क्षेत्रें में काम करने की जरूरत है। प्रतिवर्ष हाइब्रिड बीज एवं हर तीन वर्ष में नॉन हाइब्रिड बीजों को रिपलेस करने का आदर्श समय होता है।