सरकार द्वारा सस्ती दवा उपलब्ध करवाने का प्रयास

किसी भी बीमारी के इलाज के लिए लंबे समय तक कई तरह की रिसर्च की जाती है। इसके बाद सॉल्ट यानी केमिकल तैयार किया जाता है। इसे दवा की शक्ल दे दी जाती है ताकि आसानी से लोग इसे यूज कर सकें। इस सॉल्ट या सॉल्ट कॉम्बिनेशन को तैयार करने या इसके अधिकार खरीदने वाली कंपनी का इस पर कुछ बरसों के लिए विशेषाधिकार होता है। हमारे देश में यह अवधि 20 साल है। इस दौरान वहीं कंपनी इसे बेच सकती है। 20 साल के बाद यह सॉल्ट पेटेंट-फ्री हो जाता है। तब इसे जेनेरिक कहा जाने लगता है। फिर सरकार की इजाजत से बाकी कंपनियां भी दवा के रूप में इसे अलग-अलग ब्रैंड नाम से बेचती हैं लेकिन फॉर्म्युले का जेनेरिक नाम पूरी दुनिया में एक ही रहता है।

पेटेंट-फ्री होने के बाद भी कुछ बड़ी कंपनियां दवा को महंगा बेचती हैं तो जेनेरिक नाम से बनाने वाली कंपनियां सस्ता। ऐसे में जेनेरिक दवाओं को महंगी और ब्रैंडेड दवाओं का सस्ता विकल्प भी माना जा सकता है, जिनका इस्तेमाल, असर और साइड इफेक्ट्स भी ब्रैंडेड दवाओं जैसे ही होते हैं।

जेनेटिक एवं ब्रांडेड दवाओं में अंतर

जेनेरिक दवाओं को लेकर यह सवाल हर किसी के मन में आता है कि समान सॉल्ट होने के बावजूद जेनेरिक दवाएं ब्रैंडेड दवाओं से बेहद सस्ती क्यों होती हैं? इसकी वजह यह है कि जेनेरिक दवाओं की कीमत तय करने में सरकार की बड़ी भूमिका होती है। ऐसे में इनकी मनमानी कीमत तय नहीं की जा सकती। दूसरी ओर ब्रैंडेड दवाओं की कीमत कंपनियां खुद तय करती हैं। फिर जेनेरिक दवाओं के लिए कंपनियां प्रचार-प्रसार नहीं करतीं, जबकि ब्रैंडेड दवाओं के लिए खूब ऐड किया जाता है।

जाहिर है, कंपनियां ऐड पर खूब पैसा खर्च करती हैं तो ज्यादा-से-ज्यादा मुनाफा कमाने की कोशिश भी करती हैं। ब्रैंडेड महंगी दवा और उसी सॉल्ट की जेनेरिक दवा की कीमत में मोटे तौर पर 5-10 गुना तक का अंतर होता है। कई बार जेनेरिक दवाएं ब्रैंडेड दवाओं के मुकाबले 80-90 फीसदी तक सस्ती होती हैं।

डब्ल्यूएचओ के अनुसार डॉक्टर अगर मरीजों को जेनेरिक दवाएं लिखें तो इलाज पर होनेवाला खर्च 70 फीसदी से भी कम हो सकता है, लेकिन आमतौर पर डॉक्टर जेनेरिक दवाएं लिखते ही नहीं। डॉक्टरों पर आरोप लगते रहे हैं कि वे दवा कंपनियों से कमिशन और महंगे गिफ्रट लेकर महंगी दवाएं लिखते हैं। फिर ऐसा भी होता है कि अगर डॉक्टर जेनेरिक दवा लिख दे तो मेडिकल स्टोर भी दवा न होने का बहाना बना देते हैं।

वजह यह है कि मेडिकल स्टोर को जिस दवा कंपनी से ज्यादा मार्जिन मिलता है, उसी की दवाएं वे मरीज को देते हैं। कई बार डॉक्टर जो दवा लिखते हैं और मेडिकल स्टोर से जो दवा मरीज को मिलती है, उसमें उतनी मात्र में वैसा कंपोजिशन और सॉल्ट नहीं होता, जितना होना चाहिए। ऐसे में मरीज को पूरा फायदा नहीं मिलता।

हालांकि इस तरह की समस्याओं से बचाव के लिए सरकार ने जेनेरिक मेडिकल स्टोर यानी जन औषधि केंद्र खोले हैं। देश भर में फिलहाल करीब 850 जन औषधि केंद्र हैं, जिनमें से 162 यूपी और 16 दिल्ली में हैं। लेकिन इससे भी समस्या का समाधान नहीं हो पाया। एक तो इन केंद्रों की संख्या काफी कम है और जो थोड़े-बहुत हैं भी, उनके बारे में लोगों को जानकारी नहीं है।