जलवायु परिवर्तनः वार्ताएं

1992 में ब्राजील के रियो (पृथ्वी) सम्मेलन में तय सदस्य राष्ट्र प्रत्येक वर्ष जलवायु संबंधित चिंताओं से निपटने पर चर्चा के लिए एक सम्मेलन करेंगे। इस सम्मेलन को कांफ्रेंस ऑफ पार्टीज (कोप) नाम दिया गया। पहला कोप सम्मेलन 1995 में जर्मनी के बर्लिन में आयोजित किया गया। कुछ महत्वपूर्ण कोप सम्मेलन हैं-

स्टॉकहोम सम्मेलन

मानव पर्यावरण पर स्टॉकहोम संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन 1972 में स्वीडन के स्टॉकहोम शहर में 5 जून, 1972 से प्रारंभ होकर 16 जून 1972 को समाप्त हुआ। इस सम्मेलन का प्रमुख उद्देश्य अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मानवीय पर्यावरण के संरक्षण तथा सुधार की विश्वव्यापी समस्या का निदान करना था। पर्यावरण के संरक्षण के संबंध में अंतरराष्ट्रीय स्तर का यह पहला प्रयास था। इस सम्मेलन में 119 देशों ने पहली बार ‘एक ही पृथ्वी’ का सिद्धान्त स्वीकार किया। इसी सम्मेलन में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) की स्थापना हुई। सम्मेलन में मानवीय पर्यावरण का संरक्षण करने तथा उसमें सुधार करने के लिए राज्यों तथा अन्तरराष्ट्रीय संस्थाओं को दिशा-निर्देश दिए गए। प्रत्येक वर्ष 5 जून को ‘विश्व पर्यावरण दिवस’ मनाने की घोषणा इसी सम्मेलन में की गई। स्टॉकहोम सम्मेलन में पारित संविधान स्टॉकहोम घोषणापत्र 1972 के नाम से प्रसिद्ध है। इस घोषणा पत्र में 26 सिद्धान्त स्वीकार किए गए। उनमें से कुछ प्रमुख सिद्धान्त निम्न हैं-

  • मानवीय पर्यावरण की घोषणा
  • मानवीय पर्यावरण के लिए कार्य योजना
  • विश्व पर्यावरण दिवस घोषित किए जाने का प्रस्ताव
  • नाभिकीय शस्त्रें के परीक्षण पर प्रस्ताव
  • दूसरा संयुक्त राष्ट्र मानवीय पर्यावरण सम्मेलन बुलाने के लिए सिफारिश।

हेलसिंकी सम्मेलन (Helsinki Convention)

बाल्टिक सागर क्षेत्र के समुद्री पर्यावरण की रक्षा पर हेलसिंकी में 1974 में एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन किया गया। यह प्रथम अंतरराष्ट्रीय समझौता था जिसमें प्रदूषण के सभी स्रोतों पर विचार किया गया, चाहे वे पृथ्वी, सागर अथवा वायु के हों। हेलसिंकी सम्मेलन में तेल और अन्य प्रदूषणकारी पदार्थों द्वारा जलीय प्रदूषण को नियंत्रित करने के क्षेत्र में सहयोग के नियमन पर बल दिया गया। इसी के आधार पर 1992 में हेलसिंकी में ही एक और सम्मेलन हुआ जिसमें बाल्टिक सागर क्षेत्र के देशों तथा यूरोपीय आर्थिक संघ के सदस्यों द्वारा स्वीकृति प्रदान की गई। 1 जनवरी 2000 को यह समझौता पूर्ण हुआ तथा 1974 के हेलसिंकी सम्मेलन को समाप्त कर दिया गया।

विएना सम्मेलन (Vienna Convention)

1985 में विएना सम्मेलन हुआ था। इस सम्मेलन का मुख्य उद्देश्य मानव गतिविधियों द्वारा उत्पन्न होने वाले हानिकारक पदार्थों को रोकना था, जिससे ओजोन परत का क्षरण होता है।

मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल (Montreal Protocol)

यह ओजोन परत को क्षीण करने वाले पदार्थों के बारे में अंतरराष्ट्रीय संधि है जो ओजोन परत को संरक्षित करने के लिए है। यह चरणबद्ध तरीके से उन पदार्थों का उत्सर्जन रोकने के लिए बनाई गई है जिन्हें ओजोन परत को क्षीण करने के लिए उत्तरदायी माना जाता है। यह संधि 1 जनवरी, 1989 तक प्रभावी रही। इस सम्मेलन की पहली बैठक मई 1989 में हेलसिंकी में हुई थी। तब से इसमें सात संशोधन हुए। 1990 में लंदन, 1991 में नैरोबी, 1992 में कोपेनहेगन, 1993 में बैंकाक, 1995 में वियना, 1997 में मॉन्ट्रियल और 1999 में बीजिंग में यह हुआ। ऐसा माना जाता है कि अगर इस अंतरराष्ट्रीय समझौते का पूरी तरह से पालन किया जाए तो 2050 तक ओजोन परत ठीक हो जाएगी। इसका उद्देश्य हाइड्रोक्लोरोफ्लोरो कार्बन (HCFCs) जैसे पदार्थों के अधिक उत्पादन में प्रतिबंध लगाना है।

इसके अलावा (HCFCs) की सान्द्रता आंशिक रूप से अत्यधिक तेजी के साथ बढ़ी है क्योंकि कई जगह CFCs के स्थान पर (HCFCs) का प्रयोग किया जाता है।

वर्ष 2001 की रिपोर्ट के आधार पर NASA ने पाया कि पिछले तीन वर्षों में अंटार्कटिका पर ओजोन परत की मोटाई एक समान रही थी। लेकिन 2003 में ओजोन छेद अपने दूसरे सबसे बड़े आकार तक पहुंच गया। मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल के प्रभावों के सबसे ताजा (2006) वैज्ञानिक मूल्यांकन के अनुसार मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल काम कर रहा है। ओजोन को क्षीण करने वाले पदार्थों के वायुमण्डलीय बोझ में कमी तथा ओजोन परत में सुधार के कुछ शुरुआती संकेत मिल रहे हैं।

विश्व पृथ्वी सम्मेलन

विश्व पृथ्वी सम्मेलन को रियो सम्मेलन भी कहा जाता है। रियो सम्मेलन 1992 में ब्राजील की राजधानी रियो डी जेनेरियो में 3 जून से 14 जून 1992 तक संपन्न हुआ। इस सम्मेलन में पर्यावरण से संबंधित अनेक समस्याओं पर गंभीरता से विचार-विमर्श हुआ और कई समझौतों की रूपरेखा भी तैयार की गई। इस सम्मेलन के अध्यक्ष मोरिस स्ट्रांग के अनुसार यह एक सफल सम्मेलन था परन्तु इसमें शामिल विकासशील देशों ने इसे निराशाजनक सम्मेलन बताया।

सम्मेलन का उद्देश्य

21वीं सदी में पृथ्वी को फिर से हराभरा बनाने तथा प्रदूषण को नियंत्रण करने का दस्तावेज एजेंडा 21 था।

एजेण्डा-21

एजेण्डा 21 एक अन्तरराष्ट्रीय दस्तावेज है जिसे रियो सम्मेलन के 182 देशों के प्रतिनिधियों द्वारा सर्वसम्मति से स्वीकार किया गया है। राज्य विधिक रूप से यद्यपि एजेण्डा से बाध्य नहीं है, फिर भी देशों से यह अपेक्षा की गई है कि वे अपनी नीतियां एवं कार्यक्रमों को एजेण्डा 21 को ध्यान में रखकर बनाने का प्रयास करेंगे। यह एजेण्डा पारिस्थितिक विनाश एवं आर्थिक असफलता दूर करने के लिए कार्यक्रमों का उल्लेख करता है तथा निम्न विषयों पर जोर देता है-

गरीबी शमन : उपभोग के ढंग

स्वास्थ्य : मानवीय व्यवस्थापक

वित्तीय संसाधन : प्रौद्योगिकीय उपकरण

एजेण्डा 21 का अनुपालन सुनिश्चित करने के लिए 1993 में एक आयोग स्थापित किया गया, जिसे सतत विकास पर आयोग कहा गया। इस आयोग ने मई 1993 से कार्य करना शुरू कर दिया।

रियो घोषणा पत्र

यह पर्यावरण नीति के मार्गदर्शन सिद्धान्तों का अबाध्यकारी दस्तावेज है।

क्योटो सम्मेलन (COP-3)

11 दिसम्बर 1997 को जापान के क्योटो में यह सम्मेलन आयोजित हुआ था। UNFCCC के 159 देशों के साथ सहमति पत्र पर हस्ताक्षर किया गया था। क्योटो सम्मेलन में अमेरिका द्वारा 6 गैसों में कटौती किए जाने के प्रस्ताव को स्वीकार किया गया था। यह गैसें हैं- कार्बन डाइऑक्साइड, मिथेन, नाइट्रस ऑक्साइड, हाइड्रोफ्लोरो कार्बन, तथा सल्फर हेक्सा फ्लोराइड। इन गैसों के उत्सर्जन के स्तर को 2012 तक 1990 के स्तर पर लाने का लक्ष्य निर्धारित किया गया था।

यह संधि 2006 में रूस द्वारा हस्ताक्षर करने के उपरांत प्रभावी हुई। दिसम्बर 2012 के दोहा सम्मेलन में क्योटो प्रोटोकॉल की अवधि को 2020 तक बढ़ाने पर सहमति व्यक्त की गई है। परन्तु इस संधि में संयुक्त राज्य अमेरिका ने हस्ताक्षर नहीं किए तथा वर्ष 2012 में कनाडा भी इस संधि से अलग हो गया। अनुसूची-I विकसित एवं औद्योगिक देशों के लिए बाध्यकारी है लेकिन विकासशील देशों के लिए बाध्यकारी नहीं है। क्योटो प्रोटोकॉल की संधि में निम्न बातों को मान्यता दी गई है-

  • विकासशील देशों से अधिक विकसित एवं औद्योगिक देश हरित गृह गैसों के उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार हैं।
  • इस संधि में कहा गया है कि विकासशील देश ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी लाएंगे लेकिन इस प्रकार का उन देशों पर कोई बाध्यकारी नियम नहीं है।

भारत एवं क्योटो प्रोटोकॉल

भारत क्योटो प्रोटोकॉल पर हस्ताक्षर के साथ-साथ इसकी पुष्टि भी कर चुका है। उल्लेखनीय है कि पुष्टि के बाद भी भारत पर किसी तरह की प्रतिबद्धता नहीं है और उसे ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन से किसी प्रकार की कटौती नहीं करनी है क्योंकि वह विकसित देशों की सूची में नहीं है।

क्योटो प्रोटोकॉल की पुष्टि से भारत के कई फायदे हैं। इससे भारत में पुनर्नवीनीकरण ऊर्जा, ऊर्जा उत्पादन तथा वनीकरण योजना में निवेश होगा। इसके अलावा क्योटो प्रोटोकॉल से भारत के संतुलित विकास को मद्देनजर रखते हुए स्वच्छ प्रौद्योगिकी परियोजनाओं हेतु बाहरी सहायता भी प्राप्त हो सकेगी। इसी क्रम में जर्मनी के सहकारी बैंक के.एफ.डब्ल्यू. ने सर्वप्रथम कार्बन फंड की स्थापना की है और वह भारत से कार्बन क्रेडिट खरीदने को तैयार है।

कानकून सम्मेलन COP-16

कानकून सम्मेलन को COP-16 के नाम से भी जाना जाता है। ये सम्मेलन दिसम्बर 2010 में मैक्सिको के शहर कानकून में आयोजित किया गया। इस सम्मेलन का मुख्य उद्देश्य 2012 में समाप्त होने वाले क्योटो प्रोटोकॉल के स्थान पर लागू होने वाले नए समझौते के प्रति अंतिम सहमति तैयार करना था। इस सम्मेलन में कार्बन उत्सर्जन पर कोई सही निर्णय नहीं लिया गया। 40 विकसित देशों को ग्रीन हाउस उत्सर्जन में 1990 के स्तर में 5 प्रतिशत की कटौती रखी गई, परन्तु अंतिम में यह सहमति नहीं बनी।

कानकून सम्मेलन में एक खास बात हुई थी, वह थी हरित जलवायु कोष का गठन करना। सहमति के अनुसार विकासशील देशों को वित्तीय सहायता उपलब्ध कराने के लिए शीघ्र ही 30 अरब डॉलर की धनराशि से हरित जलवायु कोष की शुरुआत हुई। 2020 तक इस कोष में 100 अरब डॉलर का लक्ष्य रखा गया है।

दोहा सम्मेलन COP-18

यह सम्मेलन (26 नवंबर- 7 दिसंबर, 2011 तक) दोहा, कतर में आयोजित किया गया। दोहा सम्मेलन में जलवायु परिवर्तन से संबंधित एक नई संधि सामने आई जिसे ‘दोहा क्लामेट गेटवे’ नाम दिया गया।

दोहा क्लामेट गेटवे की प्रमुख विशेषताएं

  • क्योटो प्रोटोकॉल में संसोधन किया गया। क्योटो संधि को 2012 के बाद जारी रखने पर सहमति बनी इसकी दूसरी अवधि 8 वर्ष की होगी और यह वर्ष 2020 तक जारी रहेगा।
  • यह तय किया गया कि वर्ष 2015 तक जलवायु परिवर्तन के विषय पर एक व्यापक संधि होगी। वह संधि वर्ष 2020 में लागू होगी और सभी देश उस संधि में शामिल होंगे।
  • वर्ष 2020 के पहले समूचा विश्व अपने प्रयास को बढ़ाएगा ताकि पृथ्वी के औसत तापमान में होने वाली वृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियस की सीमा के अन्दर रोका जा सके।
  • विकसित देशों को जलवायु वित्त की अपनी प्रतिबद्धता पूरी करनी होगी जिसमें वर्ष 2020 तक 100 अरब डॉलर का हरित कोष भी शामिल है।

पेरिस सम्मेलन (COP-21)

यह सम्मेलन (30 नवंबर- 11 दिसंबर, 2015 तक) पेरिस, फ्रांस में आयोजित किया गया। अब तक 184 पक्षकारों ने पेरिस समझौते का अनुमोदन किया है।

पेरिस समझौते की विशेषताएं निम्न हैं-

  • पेरिस समझौता, जलवायु परिवर्तन की वैश्विक प्रतिक्रिया को मजबूत करने की मांग को देखते हुये वैश्विक तापमान में वृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियस के अंदर सीमित रखने और 1.5 डिग्री सेल्सियस के आदर्श लक्ष्य की पुष्टि करता है।
  • पेरिस समझौते ने सभी पक्षों द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (NDC) तैयार करने, उन्हें लागू करने के घरेलू उपायों को आगे बढ़ाने के लिए प्रतिबद्धताओं को बाध्यकारी रूप से स्थापित किया है। यह भी निर्धारित किया कि पक्षकार हर 5 वर्षों में अपने (NDC) संवाद करेंगे और स्पष्टता और पारदर्शिता के लिए आवश्यक जानकारी प्रदान करेंगे।
  • पेरिस समझौता पक्षकारों को वनों सहित ग्रीनहाउस गैस के उपयुक्त, सिंक और जलाशयों को संरक्षित और बढ़ाने के लिए भी प्रोत्साहित करता है।
  • सरकारों ने फैसला किया कि वे 2020 तक 100 अरब डॉलर तक जलवायु वित्त के रोडमैप को परिभाषित करने के लिए काम करेंगे, साथ ही 2025 से पहले 100 अरब डॉलर के वित्त प्रावधान के लिए एक नया लक्ष्य निर्धारित करेंगे।

बॉन सम्मेलन (COP-23)

जर्मनी के बॉन शहर में यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेंट चेंज (UNFCCC) के पक्षकारों के 23वें सम्मलेन (COP 23) का आयोजन किया गया। इस सम्मेलन में पर्यावरण को बचाने की विश्व व्यापी कोशिशों को आगे बढ़ाने तथा पेरिस संधि को लागू करने पर चर्चा संपन्न हुई। कॉप 23 के आिखरी दिन कई मुद्दों के समाधान से यह उम्मीद थी कि बैठक समय पर समाप्त होगी। हालांकि, वित्तीय मुद्दों से जुड़े 2 विवादों के कारण ऐसा नहीं हो सका, जिसके कारण यह सम्मेलन अंततः 18 नवंबर, 2017 को समाप्त हुआ।

सम्मेलन में विभिन्न देशों के प्रतिनिधियों के साथ-साथ 500 से अधिक गैर सरकारी संगठनों के लोग शामिल हुए। इस सम्मेलन का आधिकारिक मेजबान देश फिजी था तथा यह फिजी में आयोजित न होकर जर्मनी के बॉन शहर में आयोजित हुआ।

कॉप 23 सम्मेलन मामूली उपलब्धियों के साथ संपन्न हुआ, सम्मेलन में असुरक्षित राष्ट्रों से जुड़ी कुछ समस्याओं का समाधान तो किया गया, परन्तु सबसे महत्वपूर्ण व बड़े फैसलों को वर्ष 2018 तक के लिए टाल दिया गया।

प्री-2020 कार्य योजना

  • प्री-2020 एजेंडा के तहत विकसित देशों को क्योटो प्रोटोकॉल की दूसरी अवधि (KP II) की प्रतिबद्धता को अनुमोदित करना है। इसके अंतर्गत विकसित देशों को ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी करनी है और विकासशील देशों को वित्तीय व तकनीकी सहायता उपलब्ध कराना है।
  • प्री-2020 कार्ययोजना कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने की वित्तीय चुनौतियों को कम करने में मददगार होगी। इससे लोगों का स्वास्थ्य बेहतर होगा, वायु प्रदूषण में कमी आएगी, ऊर्जा सुरक्षा बेहतर होगी और फसलों का उत्पादन बढ़ेगा।
  • सम्मेलन में भारत ने समान विचार रखने वाले देशों के समूह के साथ, विकसित देशों द्वारा प्री-2020 कार्ययोजना के तहत समयबद्ध कार्रवाई की जोरदार मांग की। ध्यातव्य है कि प्री-2020 कार्ययोजना नामक यह एजेंडा नया नहीं है, इस पर वर्ष 2007 से ही चर्चा हो रही है तथा सहमति भी व्यक्त की गई है।

COP-24

चौबीसवाँ संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन COP–24 पौलैंड के काटोवाइस शहर में 2 से 15 दिसंबर, 2018 को आयोजित किया गया। इस सम्मेलन में पेरिस समझौते के कार्यान्वयन के लिए रूलबुक (Rulebook) पर सहमति बनी। सम्मेलन के दौरान मुख्य रूप से 3 विषयों पर ध्यान केन्द्रित किया गया। पेरिस समझौते के कार्यान्वयन के लिए दिशा-निर्देश (रूलबुक), तालानोआ संवाद-2018 और ग्लोबल स्ऑकटेक।

जबकि कार्बन उत्सर्जन के मुद्दे और IPCC विशेष रिपोर्ट पर सहमति नहीं बन पाई।

cop-24 में भारत का जलवायु वित्तपर परिपत्रः वित्त मंत्रालय के आर्थिक मामलों के विभाग ने पोलैंड के काटोवाइस में आयोजित जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन से संबंधित 'COP–24' के दौरान अलग से आयोजित एक कार्यक्रम के दौरान जलवायु वित्त से जुड़े तीन आवश्यक एसस्कोप, स्केल और स्पीडः एक प्रतिबिंब के शीर्षक वाला परिचर्चा पत्र जारी किया।

परिचर्चा पत्र में जलवायु वित्त से जुड़े तीन आवश्यक तत्वों यथा स्कोप (दायरा), स्केल (मात्रा) और स्पीड (गति) का विस्तार से विश्लेषण किया गया है।