Question : विज्ञान के रूप में समाजशास्त्र।
(2002)
Answer : समाजशास्त्र की परिभाषा समाज के विज्ञान के रूप में हमेशा से दी जाती रही है। जहां तक समाज और विज्ञान का सवाल है तो इसका तात्पर्य यह है कि समाज का अध्ययन व्यवस्थित वैज्ञानिक, विधियों के द्वारा किया जाये। आगस्त कॉम्ट एवं इमाईल दुर्खीम ने समाजशास्त्र की प्रकृति को विज्ञान के रूप में समझने की कोशिश की है। इन्होंने समाजशास्त्र का अध्ययन वैज्ञानिक ढंग से करने की बात की है, जो प्राकृतिक विज्ञानों की विधि द्वारा संभव है। कॉम्ट ने समाजशास्त्र के अध्ययन के लिए पूर्णतया प्राकृतिक विज्ञानों की पद्धति को उपयोग में लाने पर बल दिया है। इनके अनुसार, सामाजिक व्यवस्थाओं एवं प्रक्रियाओं को समझने के लिए हमें अवलोकन, वर्गीकरण एवं प्रायोगिक माध्यमों का सहारा लेना होगा।
परंतु दूसरी ओर दुर्खीम ने समाजशास्त्र की विषय-वस्तु को सामाजिक तथ्यों के रूप में देखा है जो मुख्यतः अवलोकन, वर्गीकरण एवं व्याख्या द्वारा संभव है। अतः यह वस्तुनिष्ठता पर बल देता है जिसे प्रत्यक्षवादी स्कूल ऑफ थॉट कहा जाता है, परंतु दूसरी और मेक्सवेबर, शुट्ज एवं गारफिंकल ने समाजशास्त्र की वस्तुनिष्ठता को अस्वीकार करते हुए व्यक्तिनिष्ठता को स्वीकारा है।
फिर भी, समाजशास्त्र, सामाजिक जीवन के विभिन्न पहलुओं का वर्णन वैज्ञानिकता के आधार पर करते आ रहा है। इस दृष्टि से समाजशास्त्र के लिए वैज्ञानिकता को स्वीकार नहीं करना
शायद समाजशास्त्र के प्रति भेदभाव की बात होगी। समाजशास्त्र के द्वारा ही हम समाज के विभिन्न अवयवों की जानकारी प्राप्त कर सकते हैं जो किसी भी नीति को बनाने में उपयोगी हो सकता हैं। अतः हमें समाजशास्त्र की विषय-वस्तु एवं अध्ययन की पद्धति को ध्यान में रखकर समाजशास्त्र को विज्ञान की भांति स्वीकार करना ही पड़ेगा।
Question : सिद्धांत और तथ्य
(2002)
Answer : किसी भी सामाजिक विज्ञान के लिए दोनों के परस्पर संबंधों को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है। सिद्धान्त किसी भी विज्ञान/सामाजिक विज्ञान का एक सामान्यीकृत कथन होता है, जो लगभग सभी परिस्थितियों पर लागू किया जा सकता है। दूसरी ओर, तथ्य शाब्दिक रूप से समाज में पाये जाने वाले किसी भी परिस्थिति का सही अवलोकन एवं प्राप्त आंकड़े का सही मूल्यांकन होता है।
परंतु यहां पर सिद्धान्त एवं तथ्य का मतलब समाजशास्त्र में दो प्रकार के सिद्धान्तों से लिया जाता है। ये सिद्धान्त वस्तुतः समाजशास्त्रीय सिद्धान्त एवं सामाजिक सिद्धान्त होते हैं। समाजशास्त्रीय सिद्धान्त का मतलब समाजशास्त्रियों द्वारा की गयी किसी व्याख्या एवं आनुभाविक आधार पर दिये गये तथ्यों का एक सामान्यीकरण है, जबकि सामाजिक सिद्धान्त एक सामाजिक सुधारक या सामाजिक विज्ञान से संबंधित कोई भी व्यक्ति या सामाजिक व्यक्ति, समाज की विभिन्न परिस्थितियों के बारे में एक सामान्यीकरण प्रस्तुत करते हैं। दूसरी ओर जहां तक तथ्य की बात है तो सामाजिक तथ्य मुख्यतः आंकड़ों के आधार पर परिस्थितियों का अवलोकन, वर्गीकरण एवं व्याख्या करते हैं।
अतः सामाजिक/समाजशास्त्रीय सिद्धान्त और सामाजिक तथ्य एक-दूसरे से संबंधित हैं जिसे अलग नहीं किया जा सकता है। समाजशास्त्रीय सिद्धान्तोंकी निर्माण प्रक्रिया तथ्यों से ही होती है एवं खंडन भी तथ्य के माध्यम से होता है। साथ ही, तथ्य के द्वारा ही हम किसी समाजशास्त्रीय सिद्धान्त का जांच करते हैं एवं अस्वीकार करते हैं एवं पुनः कुछ सुधार कर एक नये सिद्धान्त की स्थापना की जाती है। जैसे-दुर्खीम ने अपने धर्म के समाजशास्त्र के लिए ऑस्ट्रेलिया की असंख्य जनजातियों का अध्ययन कर धर्म का सिद्धान्त दिया एवं सिद्ध किया था कि ‘धर्म वह है जो पवित्र वस्तुओं से संबंधित है।’ परंतु दूसरी ओर, मार्क्स ने धर्म को व्यक्तियों के लिए अफीम माना है। अतः सारी बातें परिस्थिति विशेष पर निर्भर करती हैं।