विकास जैसी गतिशील प्रक्रिया में मानवाधिकार, मूल्यवान मार्गदर्शक हैं

क्रॉनिकल निबंध प्रतियोगिता-6 : द विजेता–डॉ. जय नारायण सिंह (मोती बाग, नई दिल्ली)


विकास एक ऐसी प्रक्रिया है, जो किसी प्राणी या समाज को उन्नति की ओर ले जाती है। एक ऐसी स्थिति, जिससे प्राणी में कार्य क्षमता बढ़ती है। यानी यह एक तरह की अभिवृद्धि है, जिसका एक हिस्सा स्वयं मनुष्य है। चूंकि मनुष्य बुद्धिमान एवं विवेकवान प्राणी है इसलिए इसे कुछ ऐसे मूल तथा अहरणीय अधिकार प्राप्त हैं, जिसे सामान्यतया मानवाधिकार कहा जाता है। विकास परिवर्तन, प्रकृति का नियम है। समय-समय पर विकास के पैमाने काफी हद तक बदलते रहते हैं। किंतु मानवाधिकार ऐसे अधिकार हैं, जो कि सभी दशाओं में सभी व्यक्तियों के लिए समान होते हैं। मूल वंश, धर्म, लिंग तथा राष्ट्रीयता के आधार पर इनमें भेदभाव नहीं किया जा सकता। जाहिर है, इन अधिकारों के बिना सामान्यतः कोई भी व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का पूर्ण विकास नहीं कर सकता। इसलिए उस समाज या प्राणी में विकास के स्तर को जांचने हेतु यह देखा जाना चाहिए कि उसमें मानवाधिकारों की क्या स्थिति है?

विकास एक सापेक्ष प्रक्रिया है, फिर भी इसके कुछ तत्वों पर सभी का समान विचार है। ‘विकास’ शब्द अपने व्यापकतम अर्थ में उन्नति, प्रगति, कल्याण और बेहतर जीवन की अभिलाषा के विचारों का वाहक है। इसलिए इसके फायदे, स्थायी और दीर्घकालिक प्रकृति के होने चाहिए। कोई भी समाज विकास की अपनी समझ द्वारा यह स्पष्ट करता है कि समाज के लिए समग्र रूप से उसकी दृष्टि क्या है और उसे प्राप्त करने का बेहतर तरीका क्या है? यद्यपि हम देखते हैं कि प्रायः इस शब्द का प्रयोग आर्थिक विकास की दर में वृद्धि और समाज के आधुनिकीकरण जैसे संकीर्ण अर्थों में ही किया जाता रहा है। इसको आमतौर पर पहले से निर्धारित लक्ष्यों या विभिन्न परियोजनाओं (बाँध, उद्योग, अस्पताल आदि) को पूरा करने से जोड़कर ही देखा जाता है। संरचनात्मक दृष्टिकोण से यह सही भी लगता है, किंतु विकास को सिर्फ अर्थव्यवस्था की वृद्धि के रूप में ही नहीं, बल्कि इसके सामाजिक, शैक्षणिक, स्वास्थ्य जैसे सर्वांगीण पक्षों सहित व्यक्ति के जीवन को सरल और आसान बनाने की प्रक्रिया तक देखा जाना चाहिए। इसी उद्देश्य से आज ज्ञान-विज्ञान, मेडिकल, शिक्षा जैसे क्षेत्रों में उल्लेखनीय प्रगति हुई है; निश्चित ही यह विकास कहे जाएंगे।

किसी भी देश की शासन प्रणाली का यही उद्देश्य होता है कि वह अपने देश-प्रदेश का ऐसा विकास कर सके जो दीर्घकालिक हो, सतत हो। इसीलिए लोकतांत्रिक देशों की चुनाव प्रणाली में विकास मुख्य मुद्दा होता है। किंतु वर्तमान में इस विकास में छिपे हुए अर्थ एवं उसके परिणाम को देखें तो ऐसा प्रतीत होता है कि कहां तो विकास का अर्थ सभी लोगों की उन्नति से था, परंतु आधुनिक समाजों में गरीब अत्यधिक गरीब हुआ है, जबकि मुट्ठी भर अमीर और ज्यादा अमीर। जाहिर है विकास के लाभ सभी तक समान रूप से नहीं पहुंचे। इस असमान प्रक्रिया में समाज के कुछ हिस्से लाभान्वित हुए हैं, जबकि बाकी लोगों को अपने घर, जमीन, जीवन शैली को बिना किसी भरपाई के खोना पड़ा है। इसके उदाहरण सरदार सरोवर जैसे बड़े बांधों के निर्माण, खनन उद्योग या बढ़ते महानगरों व घटती कृषि-भूमि एवं जंगलों तक देखे जा सकते हैं।

भारत में, विकास और मानव अस्तित्व की रक्षा का सवाल विरोधाभासी रहा है। आर्थिक विकास के मौजूदा मॉडल के कारण महिलाओं, आदिवासी, अल्पसंख्यक, दलित एवं गरीब आबादी को बहुत बड़ी सामाजिक कीमत चुकानी पड़ी है। विकास के पर्याय समझे जाने वाले बांध निर्माण, खनन उद्योग और औद्योगिक गतिविधियों की वजह से बड़ी संख्या में लोगों का उनके घरों और क्षेत्रों से विस्थापन हुआ है। अगर ग्रामीण खेतिहर समुदाय अपने परंपरागत पेशे और क्षेत्र से विस्थापित होते हैं, तो वे समाज के हाशिए पर चले जाते हैं, जिसके परिणामस्वरूप लोग आजीविका खोने, गरीबी और अभावों में निम्नतर जीवन जीने को विवश होते हैं। इन मुद्दों पर अक्सर आंदोलन भी होते रहे हैं, परंतु लोगों की राय बंटी रही है। जबकि मानवाधिकार कहता है कि भले ही कोई घटना या प्रक्रिया आर्थिक विकास के लिए कितनी ही आवश्यक जान पड़ती हो किंतु उसे व्यक्ति की गरिमा या उसके जीवन के बदले नहीं घटित किया जा सकता।

विकास के नाम पर विस्थापन एवं प्रतिरोध में खड़े व्यक्तियों के गरिमामय जीवन हेतु मूलभूत अधिकारों की अनदेखी स्पष्टतः मानवाधिकारों का हनन है। इसलिए किसी भी विकास प्रक्रिया में यह देखना आवश्यक हो जाता है कि क्या विकास के क्रम में लोगों के अधिकारों का सम्मान किया गया? क्या विकास के लाभ और हानि का उचित वितरण हुआ या विकास की प्राथमिकताओं के बारे में फैसले लोकतांत्रिक तरीके से लिए गए? इन समस्त मुद्दों पर विमर्श या अनदेखी दोनों ही मानवाधिकार के विषय हैं, जिसमें मानवाधिकार, मार्गदर्शन का कार्य कर सकता है।

मानवाधिकार कोई नई चीज नहीं है, बल्कि यह संकल्पना पुरातनकाल से ही प्राकृतिक विधि और प्राकृतिक अधिकारों के सिद्धांतों में पायी जाती रही है। जिन्हें आधारभूत, जन्मजात या प्राकृतिक अधिकार जैसी विभिन्न संज्ञाओं से संबोधित किया जाता रहा है। “सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग्भ वेत्” (सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी मंगलमय के साक्षी बनें और किसी को भी दुःख का भागी न बनना पड़े।) मार्कण्डेय पुराण का यह श्लोक दर्शाता है कि वैदिक काल में भी समानता जैसे मानवाधिकारों को प्राथमिकता दी जाती रही है। विश्व के अनेक हिस्सों में इसके उदाहरण मौजूद हैं, जैसे इंग्लैंड के सम्राट जॉन द्वारा 1215 में बनाया गया मैग्नाकार्टा, 1628 में अधिकारों की याचिका और 1689 में बिल ऑफ राइट्स, जिन्हें कई महत्वपूर्ण अधिकारों और स्वतंत्रताओं का दस्तावेज माना जाता है। द्वितीय विश्व युद्ध में नाजियों द्वारा विश्व स्तर पर खुलेआम मानवाधिकारों के उल्लंघन के बाद संयुक्त राष्ट्र के तत्वाधान में अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर 10 दिसंबर, 1948 को ‘मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा’ को अंगीकृत किया जाना यह दर्शाता है कि विश्व के सभी समाज सुख और शांति से जीना पसंद करते हैं। प्रकृति प्रदत्त जीवन को किसी व्यक्ति द्वारा छीना जाना अधिकारों का हनन है। उपरोक्त सार्वभौमिक घोषणा में व्यक्ति के मानवाधिकारों पर एक विस्तृत सूची है। जो सर्वप्रथम जनवरी 1941 में अमेरिकन राष्ट्रपति रूजवेल्ट द्वारा प्रयोग किए गए ‘मानव अधिकारों’ के पद का ही विस्तार लगती हैं। जिसमें उन्होंने चार मर्मपूर्ण स्वतंत्रताओं की घोषणा की थी- वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, प्रत्येक व्यक्ति की अपने तरीके से ईश्वर की पूजा करने की स्वतंत्रता, गरीबी से स्वतंत्रता तथा भय से स्वतंत्रता। ये स्वतंत्रताएं दरअसल ऐसे अधिकार हैं, जिन्हें प्रकृति प्रदान करती है और समाज का प्रत्येक व्यक्ति इसका हकदार है।

डॉ. सुभाष कश्यप का यह कहना कि ““संविधान नागरिकों को मौलिक अधिकार प्रदान करता है, परंतु मानवाधिकार, नागरिक अपने जन्म से प्राप्त करता है”, गहरा अर्थ रखता है। क्योंकि सार्वभौमिक घोषणा में स्वीकृत अधिकांश अधिकार व्यक्ति को जन्म से ही मिल जानी चाहिए, किंतु विकास की गतिशील प्रक्रिया में कई समाज एवं समुदाय इससे वंचित हो जाते हैं। इसलिए सभी देश ऐसे विकास को प्राथमिकता देते हैं, जिनसे असमानता की गुंजाइश बहुत ही कम हो और समाज के सभी वर्गों एवं व्यक्तियों को विकास का समान लाभ प्राप्त हो। विकास के तरीके के चयन का बाकी मनुष्यों और दुनिया के अन्य जीवों पर भी प्रभाव पड़ता है। क्योंकि हम सब इस व्यापक ब्रह्माण्ड के ही अंग हैं, हमारी नियति आपस में जुड़ी हुई है। किसी एक का विकास किसी दूसरे के लिए विनाश न हो इसके लिए हमें मानवाधिकारों का सम्मान करते हुए विकास प्रक्रिया में मानवाधिकारों को प्राथमिकता देनी चाहिए तभी हम सतत विकास के लक्ष्य को पूरा करने में समर्थ होंगे।

अन्य सराहनीय प्रविष्टियां: (1) शमा नाज (लखनऊ, उत्तर प्रदेश) (2) पंकज कुमार टम्टा (अल्मोड़ा, उत्तराखंड)