सार्वजनिक नीति निर्माण में महिलाओं की भागीदारी की आवश्यकता

क्रॉनिकल निबंध प्रतियोगिता-7 : अश्वनी कुमार, गांधी विहार (दिल्ली)


अंतर-संसदीय संघ के अध्यक्ष मार्टिन चुनगॉन्ग द्वारा वर्ष 2021 में नीति निर्माण में महिलाओं की भागीदारी पर एक रिपोर्ट जारी की गई थी। इस रिपोर्ट में बताया गया था कि वैश्विक स्तर पर महिला सांसदों की भागीदारी 25% से अधिक हो गई है। मार्टिन चुनगॉन्ग के अनुसार यह अत्यंत खुशी की बात है कि “पहली बार दुनिया भर की संसदों में महिलाओं की हिस्सेदारी का वैश्विक औसत, एक चौथाई का आंकड़ा पार कर गया है।” अंतर-संसदीय संघ (IPU) संयुक्त राष्ट्र में सांसदों का एक अंतरराष्ट्रीय संगठन है, जिसके द्वारा विश्व के विभिन्न भागों की संसदीय प्रक्रिया एवं प्रणाली के संदर्भ में समय-समय पर रिपोर्ट जारी की जाती है। विश्व भर में नीति निर्माण के स्तर पर महिलाओं की कम संख्या ही वह सर्वप्रमुख कारण है जो अनेक प्रयोगों के बावजूद लैंगिक समानता को व्यावहारिक स्तर पर सफल होने से रोक रहा है। विश्व के लगभग प्रत्येक देश में रूढ़िवादी सामाजिक बेड़ियों को तोड़ते हुए महिलाओं ने अनेक संघर्षों के पश्चात अपने विकास के नए मार्ग खोले हैं और वर्तमान समय में राजनीति, विज्ञान, कॉरपोरेट तथा खेल जैसे लगभग सभी क्षेत्रों में बेहतर मुकाम हासिल किए हैं।

महिलाओं की प्रगति के संदर्भ में किसी भी प्रकार के शोध तथा विश्लेषण संबंधी कार्य अनेक अंतर्विरोध उत्पन्न करते हैं। इसका कारण यह है कि किसी एक भौगोलिक क्षेत्र अथवा देश में महिलाओं द्वारा की गई प्रगति को संपूर्ण समाज की प्रगति नहीं माना जा सकता है। उदाहरण के लिए वैश्विक स्तर पर महिला सांसदों की संख्या 25% से अधिक है किंतु भारत जैसे विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में देखा जाए तो इनकी संख्या पिछले लोकसभा चुनाव में केवल 14.94% थी, जो कि वैश्विक औसत से भी अत्यंत कम है। सुदृढ़ लोकतांत्रिक प्रक्रिया वाले भारत जैसे देश में नीति निर्माण के स्तर पर महिलाओं की निम्न संख्या को देखते हुए अफ्रीका तथा लैटिन अमेरिका के पिछड़े तथा अविकसित देशों में महिलाओं की निम्न स्थिति का अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है। इस आधार पर यह भी कहा जा सकता है कि अनेक तकनीकी तथा आर्थिक प्रगति के बावजूद विश्व की आधी आबादी को उसकी संख्या के अनुरूप प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं हो सका है। प्रतिनिधित्व के अभाव में महिलाओं के लिए बनाई जाने वाली नीतियों में शुचिता का अभाव दिखाई देता है तथा अनेक प्रयासों के बावजूद महिलाएं अपनी प्रगति में किसी न किसी प्रकार के विरोध का सामना करती हैं।

तो प्रश्न यह उठता है कि नीति निर्माण में महिलाओं की भागीदारी की आवश्यकता क्यों है? लैंगिक समानता की किसी भी बहस में महिलाओं के मुद्दों को केवल उनकी सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक हिस्सेदारी तक सीमित करने का प्रयास किया जाता है। जबकि, पुरुषों के समान भागीदारी के स्तर से ऊपर उठकर रचनात्मकता तथा वैचारिक बहस के क्षेत्र में भी महिलाओं को उचित प्रतिनिधित्व प्रदान करना अत्यंत आवश्यक है। उदाहरण के लिए किसी भी समाज में जलवायु परिवर्तन के सर्वाधिक प्रभाव यदि महिलाओं पर पड़ते हैं तो जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए बनाई गई किसी भी प्रकार की नीति तब तक व्यावहारिक सिद्ध नहीं हो सकती है जब तक उस नीति में महिलाओं के अनुभवों को शामिल नहीं किया जाएगा। इसी प्रकार के उदाहरण सामाजिक क्रूरता, शारीरिक हिंसा तथा मानसिक तनाव जैसे मुद्दों पर भी सटीक बैठते हैं। कहने का अर्थ यह है कि वैश्विक, राष्ट्रीय अथवा स्थानीय स्तर पर घटित होने वाली किसी भी प्रकार की घटना का प्रभाव जब पुरुषों तथा महिलाओं की अलग-अलग आबादी पर अलग-अलग होता है तो इन प्रभावों को संबोधित करने के लिए नीतियों का सामान्यीकरण करना किसी भी सभ्य समाज के लिए उचित नहीं होगा। इसका अर्थ यह नहीं है कि प्रत्येक मुद्दे पर पुरुषों तथा महिलाओं के संदर्भ में अलग-अलग नीतियों का निर्माण किया जाए। बल्कि, किसी भी मुद्दे से संबंधित नीति निर्माण की प्रक्रिया में महिलाओं की समान भागीदारी होने की स्थिति में उनकी स्थितियों को व्यक्त करने वाले मुद्दे नीति में स्वमेव शामिल हो जाएंगे। इस आधार पर निर्मित नीति अपने क्रियान्वयन की स्थिति में लैंगिक भेदभाव को मिटाने में अधिक सहायता करेगी।

प्रत्येक देश के संविधान अथवा वहां की शासन प्रणाली को संचालित करने वाले दस्तावेजों में आदर्शात्मक रूप में समाज के सभी वर्गों की समानता की बात की जाती है। किंतु, व्यावहारिक धरातल पर वास्तविकता में व्यापक अंतर देखने को मिलते हैं। भारत के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो सभी वर्गों की भांति महिलाओं के अधिकारों के संदर्भ में व्यापक प्रावधान किए गए हैं। उदाहरण के लिए, संविधान की प्रस्तावना, मौलिक अधिकार, मौलिक कर्तव्य तथा नीति निदेशक सिद्धांत जैसे संविधान के अनेक भागों में लैंगिक समानता की बात की गई है। किंतु, सामाजिक-आर्थिक, राजनीतिक तथा सांस्कृतिक विकास के किसी भी क्षेत्र में महिलाओं के कम प्रतिनिधित्व तथा उनकी निम्न स्थिति का कारण यह है कि राज्यों की विधानसभाओं से लेकर केंद्र में लोकसभा एवं राज्यसभा तक नीति निर्माण के प्रत्येक स्तर पर महिलाओं का प्रतिनिधित्व अपेक्षित संख्या में नहीं है। स्थानीय स्तर पर लागू की गई पंचायतीराज व्यवस्था के तहत 73वें तथा 74वें संविधान संशोधन द्वारा पंचायतों में महिलाओं को उनकी संख्या के अनुरूप प्रतिनिधित्व प्रदान करने संबंधी प्रावधान किए गए हैं। किंतु, स्थानीय स्तर पर सामाजिक रूढ़िवादिता तथा पितृसत्तात्मक सामाजिक चरित्र के कारण इस स्तर पर भी लिए जाने वाले सभी प्रकार के निर्णयों में पुरुषों का प्रभुत्व देखने को मिलता है।

सार्वजनिक नीति निर्माण के स्तर पर महिलाओं की कम संख्या के अनेक कारण दिखाई देते हैं। इन कारणों में सामाजिक रूढ़िवादिता, शैक्षिक तथा आर्थिक पिछड़ेपन जैसे मुद्दे शामिल हैं। किंतु, सूक्ष्म रूप में देखने पर हम यह पाते हैं कि आर्थिक तथा शैक्षिक रूप से समृद्ध परिवारों की महिलाओं को भी उन परिवारों के पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त नहीं हो पाते हैं तथा अनेक बार उन्हें निश्चित घरेलू कार्यों तक सीमित कर दिया जाता है। यहीं पर सामाजिक शुचिता तथा व्यावहारिक मानसिकता जैसे गूढ़ कारण निकल कर सामने आते हैं जिनकी चर्चा अक्सर लैंगिक समानता की वकालत करते समय भी नहीं हो पाती है। पारिवारिक दबाव, बचपन से ही महिलाओं को निश्चित कार्यों तक सीमित रखने के प्रयास तथा सामाजिक बंधन एक लंबे समय तक स्वयं महिलाओं की मानसिक स्थिति को इस स्तर तक जकड़ लेते हैं कि वे हिजाब एवं घूंघट जैसे छोटे मुद्दों पर होने वाली बहस में भी अपने लिए लाभ की स्थितियों को समझने में समर्थ नहीं हो पाती हैं। अतः महिलाओं को पिछड़ेपन से निकालने संबंधी किसी भी प्रकार के नीतिगत प्रयास तभी सफल होंगे, जब वे परिवारों तथा समाजों में तार्किक सोच को विकसित होने में मदद कर सकेंगे। पुनः, लैंगिक समानता के मुद्दे पर इस प्रकार के तार्किक विचारों के विकास की वास्तविक प्रक्रिया को तभी आरंभ किया जा सकता है जब महिलाओं को सार्वजनिक नीति निर्माण में उचित भागीदारी प्राप्त होगी।

विश्व में लैंगिक समानता पर बीजिंग घोषणा (1995) से लेकर अनेक सूचकांकों के प्रकाशन के माध्यम से महिला अधिकारों की वकालत की जाती रही है। इसी प्रकार के प्रयास अलग-अलग देशों तथा स्थानीय स्तर पर भी किए गए हैं। इन प्रयासों ने महिलाओं को उनके पिछड़ेपन से निकलने में व्यापक मदद की है। कानूनों के निर्माण करने, अधिकारों की मांग करने तथा लैंगिक समानता हेतु संघर्ष करने से महिलाओं की प्रगति के लिए अनेक मार्ग खुलते हैं। इन्हीं संघर्षों तथा प्रयासों के माध्यम से विश्व के लगभग प्रत्येक देश में महिलाओं ने सीमित स्तर पर ही सही किंतु अनेक सफलताएं अर्जित की हैं। 21वीं सदी में इन सफलताओं को विस्तारित करने के लिए यह आवश्यक है कि हमें सामूहिक स्तर पर महिलाओं को नीति निर्माण में उचित प्रतिनिधित्व प्रदान करने के लिए संघर्ष करना होगा। भारत में बिहार, हरियाणा तथा राजस्थान जैसे राज्यों में पंचायत स्तर पर महिलाओं के प्रतिनिधित्व को बढ़ाने संबंधी प्रयास किए गए हैं। किंतु, विडंबना यह है कि संसद में महिला सांसदों की सीटों को आरक्षित करने तथा उनकी संख्या बढ़ाने से संबंधित विधेयक एक लंबे समय के बाद भी कानूनी रूप में सामने नहीं आ पाया है। महिलाओं को सार्वजनिक नीति निर्माण में उचित स्थान प्रदान न किए जाने तक उनके विकास की गति निम्न बनी रहेगी। महिलाओं के प्रति सम्मान प्रदर्शित करने के लिए भारतीय समाज में "यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवताः" नामक उक्ति का प्रयोग बहुतायत में किया जाता है। किंतु, यही समाज सार्वजनिक नीति निर्माण में उनके प्रतिनिधित्व में वृद्धि करने संबंधी मुद्दे पर मौन हो जाता है। समाज के ऐसे दोहरे चरित्र के द्वारा 'नारियों की पूजा' तथा 'देवताओं को प्रसन्न' करने की बातें मात्र सिद्धांत में संभव हैं, व्यवहार में इनका कोई भी मोल नहीं है।

अन्य सराहनीय प्रविष्टियां: (1) ऋषभ गुप्ता, बांदा (उत्तर प्रदेश); (2) स्वाती प्रभुदास लोखंडे, औरंगाबाद (महाराष्ट्र)