निजता, एक मौलिक अधिकार:

Created On: 09-05-2018,5:46 AM

प्रश्न है कि ‘हमारे जीवन में हमारा निजी क्या है? निजी, यानि जिसे हम नितांत व्यत्तिफ़गत मानें, या जिसे हम किसी से साझा करना चाहें या नहीं, इस पर हमारा हक हो?’ इसके कई सारे उत्तर हो सकते हैं और सभी एक ही तरह हों यह बिल्कुल जरूरी नहीं हैं। व्यत्तिफ़, समय, स्थान के आधार पर व्यत्तिफ़ की निजता अलग-अलग हो सकती है/होती है, किन्तु फिर भी समान्यतः हम अपने पते, पहचान, रुचियों, यात्रएं, मित्र मंडली, वार्तालाप, पारिवारिक जीवन की शैली, सुऽ-दुऽ और अपने शारीरिक-जैविक क्षमताओं आदि को तो गिना ही सकते हैं। साधारणतः कहें तो निजता (प्राइवेसी) के अंतर्गत वह सभी कुछ शामिल हो सकता है, जिसे कोई व्यत्तिफ़ किसी दूसरे के संज्ञान में नहीं लाना चाहता। चाहे वह दैनिक क्रियाकलाप, संकलित दस्तावेज, शारीरिक क्षमताएं, यात्र विवरण हो या ऐसा कुछ भी जिसे संबन्धित व्यत्तिफ़ नितांत व्यत्तिफ़गत मानता है अथवा जिसके साझा हो जाने से उसे किसी भी तरह के नुकसान होने की संभावना है। यहां तक की किसी व्यत्तिफ़ की पहचान भी उसका व्यत्तिफ़गत मामला है यानि वह किसके सामने अपना परिचय लाना चाहता है किसके सामने नहीं, संवैधानिक आवश्यकताओं को छोड़कर, यह नितांत निजी विषय हो सकता है, जो सहज भी है। दूसरा प्रश्न, क्या उपर्युत्तफ़ सूची आज भी सचमुच में हमारी व्यत्तिफ़गत हैं जिनके सार्वजनिक होने न होने के बीच हमारी सहमति अनिवार्य हैं? इसका उत्तर थोड़ा कठिन है- आज की इस तकनीकी सक्षम दुनिया में चीनी मोबाइल कंपनियों से लेकर, अमेरिकी गूगल से फेसबुक, वॉट्सऐप तक न जाने कितनी प्राइवेट कंपनियां हैं जिनके पास हमारी यह सभी जानकारियां हैं। हमारे पॉकेट में पड़ा हुआ हमारा मोबाइल हमारी हर जानकारी की ऽबर रऽता है और सिर्फ रऽता ही नहीं बल्कि हमें यहां तक याद दिलाता है कि आज हमारे किसी ऽास का जन्म दिन है या आज हमने ऑफिस जाने के लिए दूसरे रास्ते का इस्तेमाल किया, यह भी कि हमको अगले किस दिन कहां की यात्र करनी है और कहां ठहरना है, साथ ही हमें ऽाने में क्या पसंद हैं क्या नहीं। रात को कितने बजे तक जगे रहे, किस तरह का साहित्य पढ़ा, हमारी विचारधारा, हमारी पसंद-नापसंद से लेकर हमारे दोस्तों की भी जानकारी गूगल के पास होती है। यहां तक तो ठीक है, हमारी इन सभी जानकारियों को इकट्टòे करने और उसको किसी भी तरीके से इस्तेमाल करने के लिए हम एप्प डाऊनलोड करते समय इसकी परमिशन भी देते हैं। परमिशन के अभाव में हम एप्प का इस्तेमाल नहीं कर सकते। निजी कंपनियों द्वारा इकट्टòी की गई इन सूचनाओं से कई कदम आगे बढ़कर सरकार ने आधार कार्ड बनवाने के नाम पर अब तो हमारा बायोमेट्रिक डिटेल भी ले लिया है। एक शब्द में कहें तो हमारी निजता कहां है और अपनी निजता बनाए रऽने का अधिकार हमें है या नहीं, यह तब तक साफ नहीं हुआ जब तक कि सुप्रीम कोर्ट ने निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार घोषित नहीं कर दिया।

निजता पर किसी तरह के विमर्श में भारत सरकार की बहुद्देशीय परियोजना ‘आधार परियोजना’ का शामिल होना लाजिमी है। ‘निजता’ पर गंभीर बहस की शुरुआत ही तब शुरू हुई जब आधार कार्ड को विभिन्न योजनाओं के लाभ हेतु अनिवार्य करने के लिए केंद्र सरकार द्वारा परियोजना शुरू हुई। इस परियोजना के तहत अलग-अलग निजी और सरकारी डेटाबेस जैसे-रेलवे यात्र, मतदाता पहचान-पत्र, पैन कार्ड, बैंक अकाउंट, मोबाइल नंबर और जन वितरण प्रणाली (पीडीएस) आदि में हर व्यत्तिफ़ का आधार नंबर जोड़ने का प्रस्ताव है। इस परियोजना के सफलतापूर्वक पूर्ण होने पर किसी व्यत्तिफ़ का प्रोफाइल तैयार करना काफी आसान हो जाएगा। उदाहरण स्वरूप यदि रेलवे टिकट ऽरीदने के लिए आधार संख्या (बायोमेट्रिक ऑथेंटिकेशन के साथ या उसके बगैर) को अनिवार्य बना दिया जाता है। इसका मतलब ये होगा कि जन्म के बाद हमारी हर यात्र का सारा ब्यौरा सरकार के पास होगा। इसी प्रकार आधार को सिम कार्ड ऽरीदने के लिए अनिवार्य कर दिए जाने से हमारे जीवनभर के कॉल रिकॉर्ड तक सरकार की पहुंच हो जाएगी।

जाहिर है, आगे चलकर ‘आधार समर्थित’ डेटाबेसों, मसलन, स्कूल रिकॉर्ड, इनकम टैक्स रिकॉर्ड, पेंशन रिकॉर्ड इत्यादि तक भी इसका विस्तार दिया जा सकता है या कहें दिया जा रहा है। यानि आधार परियोजना लोगों की निगरानी करने का सबसे सशत्तफ़ तरीका बन सकती है। साथ ही व्यत्तिफ़ को सिर्फ उपभोत्तफ़ा के रूप में भी देऽा जा सकता है। उदाहरण के लिए रिलायंस जियो ने अभी तक अपने 10 करोड़ से ज्यादा भारतीय ग्राहक बनाए हैं इसका अर्थ यह हुआ की उसके पास 10 करोड़ से ज्यादा व्यत्तिफ़यों की पहचान संबंधी सूचनाएं हैं। यानि हम जब जियो सिम कार्ड ऽरीदने के लिए अपने आप को को ऑथेंटिकेट करते हैं तो हमारी पहचान एवं बायोमैट्रिक सूचना सेंट्रल आइडेंटिटीज डेटा रिपोजिटरी (सीआईडीआर) के माध्यम से रिलायंस के पास भी आ जाती है। अब रिलायंस चाहे तो इस सूचना को विज्ञापन कंपनियों को बेंच दे जिसकी अकल्पनीय कीमत हो सकती है या फिर स्वयं ही प्रयोग करे। यहां सूचना के बारे में कहने का सिर्फ इतना ही मतलब है, कि किसी व्यत्तिफ़ के बारे में जानना, उसकी रुचियों, पसंदों को जानना, उसके दैनिक क्रियाकलाप आदि को जान लेना एक सूचना ही है। इसके उदाहरण इस तरह से देऽे जा सकते हैं कि बाजार इंटरनेट में आपने क्या ऽोजा/देऽा, उसके लिए आपको बाद में भी कॉल आ सकती है, या आपके वेब पेज पर उस तरह के प्रचार दिऽाई देते रहेंगे। अगर रेलवे में यात्र कर रहें हैं तो कई सारे स्टेशनों से आपको अच्छे भोजन का ऑफर आ सकता है, जबकि आपने किसी प्राइवेट संगठन को अपनी यात्र के बारे में बताया ही नहीं। इतना ही नहीं आधार कार्ड जैसे बॉयोमैट्रिक आधारित पहचान पर जहां एक तरफ भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने की कोशिशें की जा रही हैं वहीं इन आंकड़ों का गलत उपयोग भी संभव है।

कुछ याचिकाकर्ताओं ने निजता के पक्ष में न्यायालय से गुहार लगाई। दावा किया कि बॉयोमैट्रिक जानकारी का संग्रहण और उसे साझा करना, जो कि आधार योजना के तहत जरूरी है, निजता के ‘मूलभूत’ अधिकार का हनन है। निजता का मुद्दा इसलिए भी गंभीर है क्योंकि इसका सही अंदाजा नहीं लगाया जा सकता कि कौन सी घटना/सूचना किसके लिए निजता हो सकती है किसके लिए नहीं। सबकी निजता की सीमाएं होती हैं और कोई नहीं चाहता कि कोई अन्य उसका उल्लंघन करें। अतः निजता को अति महत्वपूर्ण विषय मानते हुए, इस पर सुनवाई हेतु पूर्व प्रधान न्यायाधीश जगदीश सिंह ऽेहर की अध्यक्षता वाली नौ सदस्यीय संवैधानिक पीठ का गठन किया गया, जिसमें प्रधान न्यायाधीश के अलावा जस्टिस जे- चेलमेश्वर, जस्टिस शरद अरविंद बोबडे, जस्टिस राजेश कुमार अग्रवाल, जस्टिस रोहिंग्टन फली नरीमन, जस्टिस अभय मनोहर सप्रे, जस्टिस डी-वाई- चंद्रचूड़, जस्टिस संजय किशन कौल और जस्टिस एस- अब्दुल नजीर शामिल रहे। सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई शुरू करने से पहले कहा कि यह तय होना जरूरी है कि निजता का अधिकार संविधान के तहत मौलिक अधिकार में आता है या नहीं। पीठ ने कहा कि नौ न्यायाधीशों की पीठ विचार करेगी कि उच्चतम न्यायालय के दो पूर्व फैसलों में निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार न माने जाने की दी गयी व्यवस्था संविधान की सही स्थिति है कि नहीं। कोर्ट ने कहा कि पक्षकार इस दौरान अपनी लििऽत दलीलें दािऽल कर सकते हैं। संविधान पीठ ने इस सवाल पर तीन सप्ताह के दौरान करीब छह दिन तक सुनवाई की। यह सुनवाई 2 अगस्त को पूरी हुई। सुनवाई के दौरान निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार में शामिल करने के पक्ष और विरोध में दलीलें दी गईं। जिनमें अटार्नी जनरल के-के- वेणुगोपाल, अतिरत्तफ़ सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता, वरिष्ठ अधिवत्तफ़ा सर्वश्री अरविंद दातार, कपिल सिब्बल, गोपाल सुब्रमण्यम, श्याम दीवान, आनंद ग्रोवर, सीए सुंदरम और राकेश द्विवेदी ने निजता के अधिकार को मौलिक अधिकारों में शामिल करने या नहीं किए जाने के बारे में दलीलें दीं और अनेक न्यायिक व्यवस्थाओं का हवाला दिया था। केंद्र के सबसे बड़े वकील एटॉर्नी जनरल के-के- वेणुगोपाल ने 19 जुलाई को शीर्ष न्यायालय के समक्ष कहा था कि निजता का अधिकार मूलभूत अधिकारों की श्रेणी में नहीं आ सकता क्योंकि वृहद पीठों के बाध्यकारी फैसलों के अनुसार, यह एक आम कानूनी अधिकार है। जीने का अधिकार और स्वतंत्रता का अधिकार पहले से मौजूद नैसर्गिक अधिकार हैं निजता का कोई मूलभूत अधिकार नहीं है और यदि इसे मूलभूत अधिकार मान भी लिया जाए तो इसके कई आयाम हैं। हर आयाम को मूलभूत अधिकार नहीं माना जा सकता अथवा यह असीमित नहीं हो सकता यानि सुनवाई के दौरान सरकार पक्ष की तरफ से दलील दी गई थी कि निजता सामान्य अधिकार है, मौलिक अधिकार नहीं। वहीं चार राज्यों- कर्नाटक, पश्चिम बंगाल, पंजाब और पुडुचेरी का प्रतिनिधित्व कर रहे वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल ने अपनी दलील रऽते हुए कहा कि यह चारों राज्यों का दावा है कि प्रौद्योगिकी की प्रगति के इस दौर में निजता के अधिकार को मूलभूत अधिकार के तौर पर देऽा जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि तकनीकी प्रगति को देऽते हुए आज के दौर में निजता एक परम अधिकार नहीं हो सकता लेकिन यह एक मूलभूत अधिकार है। जीपीएस का उदाहरण देते हुए सिब्बल ने आगे कहा कि इससे किसी व्यत्तिफ़ के आने-जाने के बारे में पता लगाया जा सकता है और सरकारी या गैर-सरकारी तत्व इसका पता लगाकर इसका दुरुपयोग कर सकते हैं। न्यायालय को इस पर गौर करते हुए ही अपना निर्णय देना चाहिए।

शीर्ष न्यायालय ने इस मामले में कहा कि सरकार किसी महिला के बच्चों की संख्या जैसी जानकारी मांग सकती है लेकिन वह उसे यह जवाब देने के लिए विवश नहीं कर सकती कि उसने कितने गर्भपात करवाए। वहीं जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि अगर मैं अपनी पत्नी के साथ बेडरूम में हूं तो ये प्राइवेसी का हिस्सा है। ऐसे में पुलिस मेरे बेडरूम में नहीं घुस सकती लेकिन अगर मैं बच्चों को स्कूल भेजता हूं तो ये प्राइवेसी के तहत नहीं है क्योंकि ये शिक्षा के अधिकार के तहत आता था। उन्होंने आगे कहा कि आप बैंक में अपनी जानकारी देते हैं, मेडिकल इंश्योरेंस और लोन के लिए अपना डाटा देते हैं। ये सब कानून द्वारा संचालित है यहां बात अधिकार की नहीं है। आज डिजिटल जमाने में आंकड़ों की सुरक्षा एक बड़ा मुद्दा है। सरकार को इसके लिए कानून लाने का अधिकार है। साथ ही न्यायालय ने अटॉर्नी जनरल से निजता के अधिकार को आम कानूनी अधिकार और मूलभूत अधिकार माने जाने के बीच का अंतर पूछा था। अटॉर्नी जनरल ने जवाब में कहा कि आम कानूनी अधिकार दीवानी मुकदमा दायर करके लागू किया जा सकता है और यदि इसे मूलभूत अधिकार माना जाता है तो अदालत इसे किसी अन्य रिट की तरह लागू कर सकती है। हालांकि पूर्व ।ळ सोली सोराबजी ने कहा कि संविधान में राइट टू प्राइवेसी नहीं लिऽा है लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि ये है ही नहीं। दरअसल निजता हर मानव व्यत्तिफ़त्व का अभिन्न अंग है। संविधान आर्टिकल 19 के तहत प्रेस की आजादी का अधिकार नहीं देता बल्कि इसे अभिव्यत्तिफ़ की आजादी के तहत देऽा जाता है, जिसे कोर्ट ने भी माना है। साथ ही यह भी कि संविधान निर्माण के समय और वर्तमान के तकनीकी विकास में बहुत अंतर है।

अंततः सर्वाेच्च न्यायालय की संवैधानिक पीठ ने निजता के अधिकार पर दिए गए फैसले में कहा कि ‘यद्यपि संविधान में निजता के अधिकार के बारे में कहीं स्पष्ट उल्लेऽ नहीं है, किन्तु निजता का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत दिए गए जीने के अधिकार और व्यत्तिफ़गत स्वतंत्रता का हिस्सा है। व्यत्तिफ़ तब तक स्वतंत्रतापूर्वक जीवन नहीं जी सकता जब तक कि उसको निजता का अधिकार न मिला हो। इसलिए जीवन और निजी स्वतंत्रता का अधिकार एक दूसरे से अलग नहीं किए जा सकते हैं।

ये वो अधिकार हैं जो मनुष्य के गरिमापूर्ण अस्तित्व का अभिन्न हिस्सा हैं। ये अधिकार संविधान ने नहीं गढ़े हैं और न ही जीवन और स्वतंत्रता संविधान ने दी है बल्कि संविधान ने इन्हें मान्यता दी है साथ ही इन अधिकारों में राज्य के दऽल देने की सीमा तय की है। निजता के अधिकार को संविधान संरक्षण देता है, यह जीवन और निजी स्वतंत्रता की गारंटी से पैदा होता है। निजता का अधिकार, स्वतंत्रता और सम्मान की गारंटी देने वाले संविधान के अन्य मौलिक अधिकारों से भी मिलता है। निजता के संवैधानिक अधिकार को कानूनी मान्यता देना संविधान में कोई बदलाव करना नहीं है। और न ही कोर्ट कोई ऐसा संवैधानिक काम कर रहा है, जो संसद की जिम्मेदारी थी। निजता की बुनियाद में निजी रुझानों या झुकाव को बचाना, पारिवारिक जीवन की पवित्रता, शादी, बच्चे पैदा करना, घर और यौन रुझान जैसी चीजें शामिल हैं। एकांत में अकेले रहने का अधिकार भी निजता है। निजता किसी व्यत्तिफ़ की निजी स्वायत्ता की सुरक्षा करती है और जिंदगी के हर अहम पहलू को अपने तरीके से तय करने की आजादी देती है। अगर कोई व्यत्तिफ़ सार्वजनिक जगह पर हो तो ये इसका मतलब निजता का अधिकार ऽत्म हो जाना या छोड़ देना नहीं है’। संवैधानिक पीठ ने सर्वाेच्च न्यायालय के उन दो पुराने फैसलों को भी ऽारिज कर दिया जिनमें निजता को मौलिक अधिकार नहीं माना गया था। यह फैसले 1954 में एमपी शर्मा मामले में छह जजों की पीठ ने और 1962 में ऽड़ग सिंह केस में आठ जजों की पीठ के फैसले थे। इन दोनों मामलों को केंद्र सरकार की तरफ से निजता के मौलिक अधिकार न होने के साक्ष्य के तौर पर संदर्भित किया गया था। सर्वाेच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि निजता के नकारात्मक और सकारात्मक दोनों पहलू हैं। नकारात्मक पहलू राज्य को नागरिकों के जीवन और निजी स्वतंत्रता के अधिकार का हनन करने से रोकता है और सकारात्मक पहलू राज्य पर इसके संरक्षण की जिम्मेदारी देता है’। सूचना, जिससे कि आधार कार्ड भी संबन्धित है, के बारे में न्यायालय ने कहा कि ‘सूचना की निजता, निजता के अधिकार का ही एक चेहरा है। निजता को न केवल सरकार से ऽतरा है बल्कि गैर-सरकारी तत्वों से भी ऽतरा है। हम सरकार से ये सिफारिश करते हैं कि डेटा सुरक्षा के लिए कड़ी व्यवस्था की जाए’।

ज्ञात हो कि संविधान के अनुच्छेद-141 के तहत सुप्रीम कोर्ट का फैसला देश का कानून माना जाता है अतः निजता के मौलिक अधिकार होने के बाद कोई भी व्यत्तिफ़ हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में सीधे याचिका दायर करके न्याय की मांग कर सकता है। न्यायालय ने अपने निर्णय में निजी रुझानों या झुकाव, पारिवारिक जीवन की पवित्रता, शादी, बच्चे पैदा करना, घर और यौन रुझान को निजता की बुनियाद में रऽा है। इससे आने वाले समय में जीवनसाथी चुनने की पसंद भी निजता के दायरे में आ जाती है, फिर चाहे जीवनसाथी का धर्म, जाति, संप्रदाय आदि अलग ही क्यों न हो, यहां तक कि यह बहसें समलैंगिक सम्बन्धों पर भी नए सिरे से सोचने एवं विमर्श करने को स्थान देगी। एकांत में अकेले रहने का अधिकार भी निजता के दायरे में आने से प्रेमी जोड़ों की एकांतता को भी निजता माना जा सकता है, जिसके उल्लंघन पर वे कोर्ट की शरण में जा सकते हैं। सर्वाेच्च न्यायालय में बहस के दौरान जस्टिस चन्द्रचूड़ ने डिजिटल कम्पनियों द्वारा डेटा कलेक्शन पर चिंता जताई थी। फैसले में जस्टिस सप्रे ने डिजिटल कम्पनियों द्वारा डेटा ट्रान्सफर और प्राइवेसी के उल्लघंन पर चिंता जताई। केंद्र की महत्वाकांक्षी आधार योजना एवं व्हाट्सअप के निजता के उल्लंघन के मामले को पाँच जजों की पीठ सुनवाई करेगी। तभी यह तय हो सकेगा कि आधार योजना के तहत विभिन्न योजनाओं के लिए आधार अनिवार्य किया जाना निजता के अधिकार का उल्लंघन है या नहीं। सरकार ने निजता को मौलिक अधिकार का दर्जा मिलने के बाद भी कहा है कि अपने निर्णयों पर सरकार कायम है। जबकि केंद्र की आधार परियोजना का आधार न्यायालय के निर्णय पर ही आधारित है। हालांकि अब किसी भी व्यत्तिफ़ की निजता उसका मौलिक अधिकार है एवं निजता का उल्लंघन उसके मौलिक अधिकारों का हनन। क्योंकि 24 अगस्त 2017 से यह शब्द एक ऐसे अधिकार के रूप में मान्यता प्राप्त कर चुका है जो अब तक चली आ रही तमाम बहसों पर अपने प्रभाव छोड़ेगा चाहे वह आजादी की मांग हो, भोजन की पसंद हो, अंतर-जातीय/धार्मिक विवाह हो या फिर चाहे पहचान संबन्धित मामले ही क्यों न हों। इसलिए सर्वाेच्च न्यायालय की संवैधानिक पीठ का यह फैसला देश के सभी नागरिकों को समान रूप से प्रभावित करने वाला एवं लोकतान्त्रिक व्यवस्था में न्यायपालिका के प्रति लोगों के भरोसे को मजबूत करने वाला है। भारत के न्यायिक इतिहास में 24 अगस्त, 2017 को एक ऐतिहासिक निर्णय के लिए महत्वपूर्ण दिन के रूप में याद किया जाएगा।


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