समलैंगिकता का गैर-अपराधीकरण
भारतीय संविधान निर्माण के समय हमारे संवैधानिक पूर्वजों का दृष्टिकोण था कि यह भारतीय समाज की लगातार बदलती जरूरतों और मांगों के प्रति लोचयुक्त और गतिशील बना रहे। उन्होंने एक जीवंत दस्तावेज की कल्पना की जो लचीला था, लेकिन संविधान की नैतिकता के दायरे में बंधा हुआ था।
नवतेज सिंह जौहर बनाम भारत संघ मामले में सुप्रीम कोर्ट के नए फैसले से यह स्पष्ट हो गया, जिसने भारतीय दंड संहिता की धारा 377 की वैधता के संबंध में नाज फाउंडेशन बनाम सुरेश कुमार कौशल मामले में दिए गए अपने फैसले को ही पलट दिया।
आईपीसी की धारा 377 क्या है?
- यह समलैंगिक संभोग को दंडित करती है, जो ‘‘प्रकृति" के नियम के खिलाफ है। यह पुराना ब्रिटिशकालीन कानून 1861 का है और प्रकृति के नियमों के खिलाफ यौन गतिविधियों का अपराधीकरण करता है। इस कानून का विस्तार किसी भी यौन समागम तक है, जिसमें शिश्न प्रविष्टि होती है।
सुप्रीम कोर्ट का निर्णय
इससे पहले नाज फाउंडेशन बनाम सुरेश कुमार कौशल मामले में सुप्रीम कोर्ट ने आईपीसी की धारा 377 को बरकरार रखते हुए कहा था कि एलजीबीटीक्यू (LGBTQ) समुदाय ‘‘देश की आबादी का केवल मामूली हिस्सा" है। इससे समलैंगिकता के अपराधीकरण को और बल मिला था। शीर्ष अदालत के इस फैसले की भारत में एलजीबीटीक्यू समुदाय द्वारा बहुत आलोचना की गई थी और इसे मानव अधिकारों के लिए एक झटके के रूप में देखा गया था।
बाद में नवतेज सिंह जौहर बनाम भारत संघ मामले में नौ न्यायाधीशों की पीठ ने समावेशी दृष्टिकोण अपनाते हुए टिप्पणी की कि मौलिक अधिकार से वंचित लोगों की संख्या का कोई मतलब नहीं है। सामाजिक न्याय का अर्थ, सभी के लिए न्याय और कुछ को इससे वंचित रखना नहीं है। फैसला सुनाते समय अदालत ने टिप्पणी कीः
- "प्राकृतिक" सेक्स का विचार इतिहास में यौन अल्पसंख्यकों के प्रचलन को दबाने के लिए एक बहुसंख्यक दृष्टिकोण के रूप में निर्मित किया गया था।
- धारा 377 अनुचित वर्गीकरण का निर्माण करती है, जो मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है।
- महिलाओं और बच्चों को ‘‘अप्राकृतिक संभोग से बचाने के लिए" कानून का उद्देश्य शून्य पाया गया है।
- कानून सक्षम वयस्कों के बीच सहमति और गैर-सहमति वाले यौन कार्यों के बीच भेदभाव नहीं करता है।
- धारा 377 में आजीवन कारावास की सजा है, जो कि अनुपातहीन है।
- आधुनिक मनोरोग अध्ययनों से पता चला है कि LGBTQ समुदाय के सदस्य मानसिक विकारों से पीडि़त व्यक्ति नहीं हैं।
- यद्यपि, आईपीसी की धारा 377 पूरी तरह से समाप्त नहीं हुई है। यह अभी भी पाशविकता और गैर-सहमति संभोग पर लागू होती है। अदालत ने सहमत वयस्कों पर इसके प्रावधानों को लागू करने से मना कर दिया है, लेकिन यह प्रावधान अभी भी समान लिंग के नाबालिगों के बीच सहमति से संभोग पर लागू है। आईपीसी की धारा 375 के तहत, जैसा कि उसे 2013 में संशोधित किया गया था, अगर लड़की की उम्र 18 वर्ष से कम है, तो विषम लैंगिक नाबालिगों के बीच संभोग को बलात्कार माना जाता है।
निर्णय का महत्व
- यौन प्रवृत्ति की स्वतंत्रता और प्रत्येक व्यक्ति की गरिमा के अधिकार को मान्यता देता है।
- अदालत ने माना कि एक यौन कार्य को ‘‘प्राकृतिक" या ‘‘अप्राकृतिक" के रूप में वर्गीकृत करना अपने आप में भेदभावपूर्णहै। किसी व्यक्ति के लिए उसकी यौन प्रवृत्ति स्वयं स्वाभाविक है।
- इस तथ्य को स्वीकार करता है कि संवैधानिक नैतिकता को ‘‘सामाजिक नैतिकता" पर प्रभावी होना चाहिए। यहां सामाजिक नैतिकता का तात्पर्य है कि स्त्री और पुरुष के बीच संभोग को प्राकृतिक रूप से देखना।
- समानता के अधिकार, भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तथा जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार (अनुच्छेद 14, 19 (1) (ए) और 21) के तहत प्रदान किए गए मौलिक अधिकारों को मान्यता देता है।
- यह स्वीकार करता है कि कानून LGBTQ समुदाय के सदस्यों पर एक कलंक लगाता है।
- इस तथ्य को स्वीकार करता है कि कानून इस विश्वास पर आधारित है कि संभोग का एकमात्र उद्देश्य संतान पैदा करना है।
- यह प्रदर्शित करता है कि न्यायपालिका कमजोर व्यक्तियों और अल्पसंख्यकों के अधिकारों के संरक्षक के रूप में है।
आगे की राह
- धारा 377 के मुद्दे पर केंद्र सरकार के रुख को बदलने की जरूरत है, क्योंकि यह समलैंगिक संबंध को मूलतः धार्मिक और सामाजिक रीति-रिवाजों के साथ-साथ विवाह और विरासत को नियंत्रित करने वाले कानूनों के खिलाफ मानता है। इस विश्वास को गलत सिद्ध करने की जरूरत है कि इन कानूनों में किसी भी बदलाव का भारतीय परिवेश में परिवार की अवधारणा पर बहुत गहरा असर पड़ेगा।
- समय की जरूरत यह स्वीकार करना है कि समाज की नैतिकता समय के साथ बदलती है और कानूनों को इसके साथ तालमेल रखना चाहिए।
- के. एस. पुट्टास्वामी बनाम यूनियन ऑफ इंडिया केस के फैसले में उल्लेख किया गया था कि निजता का अधिकार, अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता) का एक अभिन्न अंग है। इसलिए धारा 377 को समाप्त करना पहले के फैसले के अनुरूप है।
- इसी प्रकार, राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण बनाम भारत संघ मामले के निर्णय ने ट्रांसजेंडर लोगों को ‘थर्ड जेंडर’ के रूप में मान्यता दी है। इनको विवाह करने, गोद लेने, तलाक देने, उत्तराधिकार और विरासत सहित अन्य अधिकार हैं। धारा 377 इस फैसले का उल्लंघन था और उसे समाप्त कर दिया गया।
- जैसा कि दो न्यायाधीशों ने स्पष्ट रूप से उल्लेख किया है, धारा 377 स्वास्थ्य के अधिकार का भी उल्लंघन है, क्योंकि यह समलैंगिक संभोग का अपराधीकरण करता है। यह चिकित्सकीय सलाह लेने के इच्छुकों को लांछित करता है, जिससे वे यौन संचारित रोगों के लिए अतिसंवेदनशील बन जाते हैं। इस मुद्दे को भी सुलझाया गया।
- इस निर्णय ने निचली अदालतों को भविष्य में व्यक्तिगत स्वतंत्रता और निजी आजादी की रक्षा के लिए बहुमत दृष्टिकोण के खिलाफ रुख अपनाने को प्रोत्साहित किया है। इस पर प्रसन्नता होनी चाहिए।