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हिंदी माध्यम में कैसे हों सफ़ल? भाग-1


सिविल सेवा में हिन्दी माध्यम के छात्रों की असफलता की जिम्मेदारी किसकी?

- संपादकीय मंडल

सिविल सर्विसेज क्रॉनिकल इस अंक से “हिंदी माध्यम में कैसे हों सफल” नामक मार्गदर्शन शृंखला की शुरुआत कर रही है, जिसमें हम हिंदी माध्यम की असफलता से जुड़ी समस्याओं व चुनौतियों की चर्चा करेंगे तथा समाधान भी देंगे। आज सोशल मीडिया या ऑनलाइन सामग्री या कोचिंग द्वारा दी गई सामग्रियों के बीच यह चयन करना मुश्किल हो गया है कि कौन सी सामग्री सही है, कौन सी गलत। इसी को देखते हुए सिविल सर्विसेज क्रॉनिकल आने वाले अंकों में तथ्य व प्रमाण के साथ एक-एक विषय की पड़ताल कर आपका मार्गदर्शन करेगी, बिना किसी लाग लपेट के।

परीक्षार्थियों की भूमिका

छात्रों को परीक्षा की तैयारी से पहले स्वयं की क्षमताओं का आकलन करना चाहिये। इसका सबसे अच्छा तरीका यह है कि विगत 5-6 वर्ष पहले के प्रश्नों को हल करके देखें, अगर उसमें से 25 प्रश्नों का भी उत्तर आप कर पाते हैं तो कोचिंग से जुड़ें; अन्यथा पहले सेल्फ स्टडी के माध्यम से तैयारी की रूपरेखा तैयार करें, जिसमें मानक पुस्तकों या एनसीईआरटी के विस्तृत अध्ययन को प्राथमिकता दें।

  • सामान्यतः परीक्षार्थी अपना स्वयं का आकलन किए बगैर परीक्षा की तैयारी में लग जाते हैं। छात्र, इस नाम पर इस परीक्षा की तैयारी करना शुरू कर देते हैं कि उनका कोई दोस्त, परिवार के किसी सदस्य की इच्छा है कि वो आईएएस बने।
  • छात्र सिर्फ साक्षात्कार, विज्ञापन और संस्थानों के बहकावे में आकर बिना जांच-पड़ताल के किसी भी संस्थान में जाकर एडमिशन ले लेते हैं। वैसे इस सोशल मीडिया मार्केटिंग के युग में सही जानकारी हासिल करना और उस पर विश्वास करना आसान भी नहीं है।
  • परीक्षा की तैयारी का सही समय स्नातक का प्रथम वर्ष है, खासकर हिंदी माध्यम के लिए; इसमें परीक्षा से पूर्व की बेसिक तैयारी का समय मिल जाता है तथा बेसिक तैयारी की समाप्ति के बाद की रणनीति बनाने में सुविधा होती है। साथ ही बेसिक तैयारी के दौरान ही अपनी विषय में रुचि या समझ विकसित हो जाती है, जिससे वैकल्पिक विषय का चयन करने में सहायता मिल जाती है। बेसिक तैयारी के बाद परीक्षा केन्द्रित होकर तैयारी की रणनीति बनानी चाहिये, यानी पहले आई.ए.एस. या पी.सी.एस. किसकी तैयारी करनी है, इसका निर्धारण करें।
  • यह निर्धारण अपनी-अपनी जरूरतों के अनुसार करना चाहिए। यानी अगर आपके पास समय (उम्र) है तो आप पहले पी.सी.एस. से शुरुआत कर सकते हैं तथा जब आप अपने अंदर विषयों को तार्किक रूप से समझने की क्षमता का विकास कर लें तब आई.ए.एस. की तैयारी के लिए आगे बढ़ें।
  • जिस स्थान यानी शहर से आपको तैयारी करनी है उसके चयन की रणनीति भी शुरुआत में ही तैयार करनी चाहिये, जिससे आप सोच-समझकर सहपाठियों व मार्गदर्शक का चयन कर पाएंगे। सहपाठियों व मार्गदर्शक का योगदान मुख्य परीक्षा में अत्यधिक महत्वपूर्ण है, वे आपको भटकाव से बचाते हैं।
  • करेंट अफेयर्स के लिए न्यूज पेपर, पत्रिका आदि का चयन, उनके पढ़ने के तरीके व उन पर स्वयं के नोट्स बनाने की रणनीति भी शुरुआत में ही तैयार करें। शुरू से ही अंग्रेजी भाषा का कोई एक न्यूज पेपर या पत्रिका का अध्ययन अवश्य करें। तैयारी के शुरुआती दिनों में करेंट अफेयर्स या नोट्स के पीछे समय बर्बाद नहीं करना चाहिये; नोट्स तब बनाना शुरू करें, जब आप यह निर्धारित कर लें कि अगला प्रीलिम्स आपको कब देना है।
  • ऑनलाइन साइट, सामग्री व सोशल मीडिया के इस्तेमाल, चयन और जरूरतों को समझना, अनावश्यक के सुझावों से दूरी बनाना तथा क्या पढ़ना है और क्या नहीं पढ़ना है, इसकी समझ विकसित करना भी जरूरी है।
  • पहले प्रिलिम्स या मेंसः हिंदी माध्यम का छात्र सामान्यतः यह सोचता है कि पहले प्रीलिम्स पास कर लें, फिर मेन्स की पढ़ाई की जाएगी, जबकि होना यह चाहिये कि सबसे पहले छात्र को वैकल्पिक विषय पर ध्यान देना चाहिए, तत्पश्चात मुख्य परीक्षा के सामान्य अध्ययन की तैयारी करनी चाहिए तथा इसके बाद प्रीलिम्स के लिए रिवीजन और अंत में टेस्ट सीरीज करनी चाहिये।
  • अपनी कमियों को पहचान कर लक्ष्य को निर्धारित करते हुए टाइम टेबल तैयार करना, समय की कीमत समझना और उसके अनुसार क्लास व स्टडी मैटेरियल आदि को पढ़ने में तालमेल बैठाना भी आपकी रणनीति का एक हिस्सा होना चाहिए। सामान्यतः छात्र क्लास के साथ-साथ स्टडी मैटेरियल का अध्ययन भी शुरू कर देते हैं; ऐसा करना नुकसानदेह है। स्टडी मैटेरियल का अध्ययन या तो क्लास से पहले करें या उस विषय की क्लास खत्म होने के बाद, रिवीजन के लिए। क्लास करते समय सिर्फ क्लास पर फोकस करें, क्लास में प्रश्न पूछना सीखें तथा ‘स्वयं द्वारा बनाए गए’ प्रश्न पूछें।
  • टेस्ट सीरिजः शुरुआत में ही टेस्ट सीरीज, उत्तर लेखन शैली, निबंध लेखन कला आदि की तैयारी के अनावश्यक दबाव से बचना चाहिये। इनकी तैयारी तब शुरू करें, जब आपका पाठ्यक्रम 60 प्रतिशत तक कम्पलीट हो गया हो।
  • अन्य से तुलनाः यदि आपने एक अच्छे कॉलेज/संस्थान से पढ़ाई की है, तो तैयारी की रणनीति अलग बनाएं तथा अगर आपने एक सामान्य कॉलेज/संस्थान से पढ़ाई की है, तो आपको तैयारी की रणनीति अलग बनाने की जरूरत है।
  • यदि आप 10+2 के स्तर पर या स्नातक स्तर पर या नौकरी में रहते हुए तैयारी करे रहे हैं, तो इन सभी के लिए आपको अपनी तैयारी की रणनीति अलग-अलग बनानी होगी। यहां तक कि यदि आप डिस्टेंस लर्निग से पढ़ाई कर रहे हैं, तब भी आपकी रणनीति अन्य प्रतियोगियों से अलग होनी चाहिए।
  • साथ ही आपको अंग्रेजी माध्यम के छात्रों एवं इंजीनियरिंग पृष्ठभूमि वाले छात्रों की तुलना में भी तैयारी की रणनीति अलग बनानी होगी, खासकर हिंदी माध्यम के छात्रों को।

स्टडी मैटेरियल व क्लास नोट्स की भूमिका

प्रायः सभी कोंचिंग संस्थान के स्टडी मैटेरियल तथा क्लास नोट्स आदि पाठ्य सामग्रियों में नयापन नहीं है। इन पाठ्य सामग्रियों में प्रकाशन संस्थानों द्वारा छापी गई गाइड की तरह की सामग्रियों की ही नोट्स के रूप में प्रस्तुति होती है। ये पाठ्य सामग्रियां 2013 से पहले ही अपनी उपयोगिता खो चुकी हैं।

  • कोचिंग संस्थान की पाठ्य सामग्री के चयन में सावधानी बरतने की जरूरत है। स्टडी मैटेरियल या क्लास नोट्स के नाम पर कुछ भी खरीद कर पढ़ना हिंदी माध्यम के छात्रों के लिए घातक सिद्ध हुआ है। छात्रों के लिए यह जानना जरूरी है कि सामान्य तौर पर कोई भी संस्था यह पाठ्य सामग्री उसके क्लास में पढ़ाने वाले शिक्षक से तैयार नहीं करवाती। सामग्री और क्लास में तालमेल नहीं होने के कारण परीक्षार्थी नोट्स को नवीनतम करने के बजाय, नए नोट्स तैयार करने में लग जाते हैं।
  • वर्तमान में स्टडी मैटेरियल या क्लास नोट्स, पत्र-पत्रिकाएं व पुस्तकें ऐसी होनी चाहिए कि छात्र इनके माध्यम से अपने उत्तर को कम से कम शब्दों में लिख सके। इनमें नवीन टर्मिनोलॉजी या शब्दों का समावेशन होना चाहिए। उत्तर लेखन में शब्दों के चयन का बहुत बड़ा योगदान है।

विश्वविद्यालयों और कॉलेजों की भूमिका

सामान्यतः हिदी भाषी राज्यों में स्नातक स्तर में मानविकी विषयों की पढ़ाई का स्तर इतना निम्न है कि उससे मुख्य परीक्षा का उत्तर लिखना तो दूर एक साधारण प्रतियोगिता परीक्षा भी पास नहीं की जा सकती।

  • हिदी भाषी राज्यों के कॉलेजों में मानविकी विषयों की पढ़ाई, विषयों के विशेषज्ञों के ऊपर निर्धारित होती है। इन राज्यों में कुछ चुनिंदा शिक्षण संस्थानों को छोड़कर ज्यादातर कॉलेजों की स्थिति ऐसी है कि शिक्षक सामान्य तौर पर छात्रों को 5-10 प्रश्न तैयार करने को बोल देते हैं और परीक्षा में ज्यादातर प्रश्न उन्ही में से आ जाते हैं।
  • कॉलेज स्तर की परीक्षाओं में जो प्रश्न पूछे जाते हैं, उनके उत्तर की शब्द सीमा स्पष्ट रूप से निर्धारित नहीं होती, जबकि इसके ठीक विपरीत UPSC द्वारा जो प्रश्न पूछे जाते हैं उनकी शब्द सीमा 150 तथा 250 शब्द की ही होती है। इसलिए स्नातक स्तर की सामान्य शिक्षा UPSC में उपयोगी साबित नहीं होती।

पत्र-पत्रिकाओं व पुस्तकों की भूमिका

ऐसी पत्र-पत्रिकाएं और पुस्तकें से बचे, जिनमें नवीन पाठ्यक्रम तथा लगातार बदलती प्रश्नों की प्रकृति के अनुरूप परिवर्तन नहीं किया गया है, उनमें पूर्व की भांति ही विषयों तथा सामयिक मुद्दों की प्रस्तुति जारी है।

  • मुख्य परीक्षा की तैयारी कोई एक दिन की प्रक्रिया नहीं है, इसके लिए दीर्घकालिक रणनीति बनाकर उसके अनुरूप पत्र-पत्रिकाओं व पुस्तकों का चयन करना चाहिए। साथ ही मुख्य परीक्षा की निरंतर तैयारी जरूरी है, इसके लिए पाठ्यक्रम पर आधारित पत्रिकाओं के आलेख, विशेष सामग्री तथा नए संस्करण की पुस्तकों को पढ़ना जरूरी है।
  • पुस्तकों का चयन और हिंदी माध्यम में उनकी अनुपलब्धता सबसे बड़ी समस्या है, साथ ही बाजार में उपलब्ध अधिकांश पुस्तकें ऐसी हैं, जो प्रीलिम्स परीक्षा को ध्यान में रखकर तैयार की गई हैं। अगर आपको UPSC की तैयारी करनी है तो स्नातक से ही अपनी पाठ्य-पुस्तकों का चयन सोच समझ करना चाहिये।

छात्रों की विरोधात्मक प्रवृत्ति

आयोग प्रशासकीय जरूरतों के अनुरूप अपने पाठ्यक्रम का निर्धारण करता है। इसलिए आयोग से यह अपेक्षा नहीं करनी चाहिए कि वह अपने स्तर को हमारे अनुरूप करे, बल्कि हमें अपने आप को UPSC के अनुरूप ढालना होगा। अभी तक जिन समस्याओ के कारण रिजल्ट नहीं आ रहे हैं उन पर सुधार की कोई चर्चा ही नहीं होती।

  • हिंदी माध्यम के छात्र बात-बात पर आंदोलन करने चल देते हैं। छात्रों के आंदोलन करने से या आंदोलन का समर्थन करने से UPSC अपने आपको नहीं बदलेगा। यानी वह वर्तमान हिन्दी माध्यम के छात्रों की मांगों के अनुरूप अपने प्रश्न-पैटर्न व पाठ्यक्रम को नहीं बदलेगा।

आयोग की भूमिका

प्रश्नों के निर्माण से लेकर प्रारूप उत्तर लेखन तक आयोग की परीक्षा प्रक्रिया अंग्रेजी माध्यम के लोगों द्वारा संचालित की जाती है। इसमें क्षेत्रीय भाषाओं तथा हिंदी माध्यम के छात्रों के सामने आने वाली मूल समस्याओं पर कभी ध्यान नहीं दिया जाता; जैसे प्रश्न-पत्र का हिंदी के अनुकूल न होना तथा हिंदी या क्षेत्रीय भाषाओं में प्रश्नों के ट्रांसलेशन में विषय विशेषज्ञों की जगह अनुवादकों का इस्तेमाल करना आदि।

  • तथ्य यह है कि अंग्रेजी में लिखी गई किसी सामग्री को हिंदी में लिखने के लिए अधिक शब्दों की आवश्यकता होती है। कभी-कभी तो ऐसा देखा जाता है कि किसी बात को लिखने के लिए अंग्रेजी में कम शब्दों की जरूरत पड़ती है, जबकि हिंदी में वही सामग्री लिखने में ज्यादा शब्द खर्च करने पड़ते हैं।
  • अतः यह स्पष्ट है कि जिस शब्द सीमा में UPSC द्वारा अपने प्रश्न के उत्तर की अपेक्षा की जाती है, उस शब्द सीमा में उत्तर लिखना हिंदी माध्यम के छात्र के लिए बेहद चुनौतीपूर्ण है।
  • आयोग को यह चाहिए कि वह हिंदी माध्यम के छात्रों के लिए प्रश्न-पत्र तैयार करने में अंग्रेजी माध्यम के विशेषज्ञों व अनुवादकों के बजाय हिंदी माध्यम के विशेषज्ञों को शामिल करे तथा एग्जामिनर की मॉडल उत्तर पुस्तिकाएं भी हिंदी माध्यम में ही बनाई जाएं।

शिक्षक की भूमिका

विचारणीय तथ्य यह है कि वर्तमान पाठ्यक्रम अधिकांशतः मानविकी विषयों पर आधारित है तथा इन विषयों पर हिन्दी माध्यम में आई.ए.एस. के क्षेत्र में विद्वानों की कमी नहीं है, फिर भी परिणाम क्यों नहीं आ रहे?

  • हिंदी माध्यम के शिक्षक, अंग्रेजी माध्यम की तुलना में विषयों को पढ़ाने में समय तो काफी देते हैं, लेकिन उन व्यावहारिक पक्षों को नहीं पढ़ाते जहां से प्रश्न पूछे जाते हैं।
  • वर्तमान में हिंदी माध्यम के विद्यार्थियों को इस तरह से पढ़ाने की आवश्यकता है कि वह मुख्य परीक्षा के प्रश्नों को निर्धारित समय में 150 से 250 शब्दों में सटीक रूप से लिख सके। साथ ही वह इतना सक्षम हो कि प्रश्नों की प्रवृत्ति या प्रकृति को आसानी से समझ सके।
  • वर्तमान में सबसे ज्यादा प्रश्न उन क्षेत्रों से आ रहे हैं, जो व्यावहारिक हैं, जिन्हें किसी पुस्तक या पाठ्य सामग्री में ढूंढा नहीं जा सकता। चूंकि प्रश्न बहु-विषयी तथा अंतरविषयी प्रकृति के आ रहे हैं, इसलिए इन्हें अपनी समझ से ही लिखा जा सकता है।
  • सामान्यतः वर्तमान में प्रश्न विभिन्न विषयों या मुद्दों से जुड़ी समस्याओं, चुनौतियों, प्रभाव तथा परिणाम परअपने परंपरागत स्वरूप के साथ-साथ समकालीन संदर्भ लिए हुए होते हैं। इन प्रश्नों को ध्यान में रखते हुए शिक्षकों को छात्रों में विषय की व्यापक समझ विकसित करनी होगी, ताकि वे ‘विश्लेषण करने के स्तर’ की क्षमता का विकास कर सकें।
  • आयोग विगत 10 वर्षों में 3 बार प्रश्नों की प्रकृति व प्रवृत्ति में व्यापक परिवर्तन ला चुका है, ऐसे में शिक्षक को छात्रों को हॉलिस्टिक रूप से पढ़ाना होगा, क्योंकि कई बार ऐसा होता है कि जिस समय छात्र कोचिंग में पढ़ता है तथा जिस समय वह परीक्षा में शामिल होता है, उसमें 3 या उससे अधिक वर्ष का अंतर हो जाता है।
  • विडंबना यह है कि 5-7 साल का अनुभव रखने वाले शिक्षक भी परीक्षा की जरूरतों को अच्छी तरह समझने के बावजूद अपने पढ़ाने के तरीके में परिवर्तन नहीं ला रहे हैं। इसका कारण यह है कि वर्तमान में व्यावहारिक स्वरूप के तथा बहु-विषयी या अंतरविषयी प्रकृति के प्रश्न आ रहे हैं।
  • इन्हें पढ़ाने के लिए शिक्षकों को अपने अध्यापन में व्यावहारिक पक्ष को ज्यादा पढ़ाना पड़ेगा, जिसे पढ़ाने में ज्यादा समय लगता है तथा उन्हें स्वयं भी अपने अध्ययन पर समय देना होगा, जिनका उनके पास अभाव है।

कोचिंग संस्थानों की भूमिका

सामान्यतः कोचिंग संस्थान के प्रबंधक बिना परीक्षार्थी की योग्यता को परखे उन्हें अपनी व्यावसायिक मजबूरियों की चलते परीक्षा के लिए प्रोत्साहित कर एडमिशन ले लेते हैं। ऐसे में यह आवश्यक है कि हर एक छात्र की क्षमता एवं स्तर का व्यक्तिगत रूप से आकलन कर उन्हें उनकी आवश्यकता के अनुरूप मार्गदर्शन प्रदान किया जाए। साथ ही संस्थानों को अपने पढ़ने-पढ़ाने के तरीके में व्यापक परिवर्तन लाना होगा, जो 500 या 1 हजार की संख्या वाले क्लास में संभव नहीं है।

  • कोई भी संस्थान सिर्फ परंपरागत तरीके से नोट्स लिखवाकर मुख्य परीक्षा में अच्छे अंक नहीं दिलवा सकता। इस प्रकार के अध्ययन से आप अधिक से अधिक प्रारंभिक परीक्षा ही पास कर सकते हैं।
  • कोचिंग संस्थानों के फाउण्डेशन कोर्स के लिए छात्र लाखों रुपये तथा अपना 18 से 24 महीने का समय खर्च करते हैं। इन फाउण्डेशन कोर्स में संस्थान, छात्रों को सतही तौर पर सामान्य अध्ययन की तैयारी कराकर उन्हें उनके भाग्य पर छोड़ देते हैं। कोचिंग संस्थानों की इस प्रवृत्ति में व्यापक सुधारक की जरूरत है।
  • वर्तमान में कोचिंग संस्थान शिक्षा को व्यवसाय की तरह देखते हैं और छात्रों को एक उत्पाद की तरह; जबकि शिक्षा एक सेवा है ना कि व्यवसाय।

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