Question : चार्वाक के अनुसार आत्मा का स्वरूप।
(2007)
Answer : आत्मा के सम्बन्ध में चार्वाक दर्शन का विचार अन्यान्य भारतीय दार्शनिक सम्प्रदायों से भिन है। वस्तुतः चार्वाक दर्शन की तत्त्वमीमांसा उसकी ज्ञान मीमांसा की उपसिद्धि है। उल्लेखनीय है कि चार्वाक दर्शन में यथार्थ ज्ञान के साधन के रूप में एकमात्र प्रत्यक्ष प्रमाण की वैधता स्वीकार की गयी है। इस प्रत्यक्षवादी ज्ञान सिद्वांत के आधार पर चार्वाक दार्शनिक केवल उन्हीं तत्वों की सत्ता स्वीकार करते हैं, जिनका प्रत्यक्ष होता है। जिन तत्वों का किसी रूप में ....
Question : चार्वाक के अनुसार ज्ञानमीमांसा की चर्चा कीजिए।
(2006)
Answer : चार्वाक दर्शन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पक्ष इसका ज्ञान मीमांसीय प्रत्यक्षवाद है, जिसमें प्रत्यक्ष के अतिरिक्त ज्ञान के अन्य सभी प्रयोगों की अस्वीकृति है। वस्तुतः इसकी तत्व मीमांसीय और आचारमीमांसीय अवधारणायें उसके ज्ञानमीमांसीय सिद्धांत की ही उपसिद्धि हैं। वस्तुतः इसके ज्ञान सिद्धांत का जितना विशिष्ट पक्ष एकमात्र प्रत्यक्ष प्रमाण की स्वीकृति है, उतना ही विशिष्ट पक्ष अन्य प्रमाणों, विशेषतः अनुमान प्रमाण का खण्डन भी है। चार्वाक दर्शन के अनुसार यथार्थ ज्ञान का एक ही प्रमाणिक साधन ....
Question : द्रव्य की जैन परिभाषा।
(2005)
Answer : जैन तत्वमीमांसा में वस्तु अनन्तधर्मात्मक होती है। जैन दर्शन के अनुसार जिस आश्रय में धर्म होते हैं, वह धर्मी है और
धर्मी की विशेषताएं धर्म हैं। जैन दर्शन में धर्मी के लिए द्रव्य शब्द का प्रयोग होता है। इसमें द्रव्य में दो प्रकार के धर्म स्वीकार किये जाते हैं- स्वरूप धर्म और आगन्तुक धर्म। इस प्रकार दव्य वह है जिसमें स्वरूप और आगन्तुक धर्म पाये जाते हैं। स्वरूप में द्रव्य के अपरिवर्तनशील एवं नित्य धर्म है। ....
Question : शून्यता के बौद्ध अभिप्राय का कथन कीजिए और उस पर चर्चा कीजिए।
(2005)
Answer : माध्यमिक शून्यवाद महायान बौद्ध विचारधारा की महत्वपूर्ण शाखा है। सम्भवतः यह बौद्ध तार्किक चिन्तन का अंतिम निष्कर्ष है। आचार्य नागार्जुन को शून्यवाद का प्रवर्तक माना जाता है।सर्वप्रथम आचार्य नागार्जुन ने महायान सूत्रें में बिखरे हुए शून्यता सम्बन्धी विचारों को लेकर क्रमबद्ध रूप में शून्यवादी विचाराधारा का प्रतिपादन किया। नागार्जुन वह प्रथम दार्शनिक है, जिसने यथार्थवादी एवं विज्ञानवादी विचारकों से कहीं आगे बढ़कर अनुभव के विषयों का विश्लेषण किया। शून्यवाद माध्यमिक दर्शन के नाम से भी ....
Question : न्याय के अनुसार प्रत्यक्ष की प्रकृति और प्रकार।
(2005)
Answer : भारतीय दर्शन के सभी सम्प्रदाय, यथार्थ ज्ञान के साधन के रूप में प्रत्यक्ष प्रमाण के महत्व को स्वीकार करते हैं। न्याय दर्शन में तो प्रत्यक्ष की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। इसमें प्रत्यक्ष प्रमा एवं प्रमाण दोनों हैं। प्रत्यक्ष प्रमा को उत्पन्न करने वाले असाधारण कारण का मुख्य साधन को प्रमाण कहते हैं। सामान्यतः ज्ञानेन्द्रिय एवं अर्थ के सन्निकर्ष से उत्पन्न ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान कहलाता है। जैसे चतुरिन्द्रिय एवं घर के सम्पर्क से प्राप्त घर ज्ञान ....
Question : वैशेषिकों के अनुसार द्रव्यों की प्रकृति एवं प्रकारों का कथन कीजिए और उन पर चर्चा कीजिए।
(2005)
Answer : वैशेषिक दर्शन एक वस्तुवादी दर्शन है और इसका वस्तुवाद बहुत्ववादी वस्तुवाद कहलाता है। यह भारतीय दर्शन में अपनी प्रमेय मीमांसा के लिए आख्यात है। महर्षि कणाद के अनुसार पदार्थों का सम्यक ज्ञान होने से निःश्रेयस (मोक्ष) की प्राप्ति होती है। वैशेषिक दर्शन संसार के सभी विषयों को पदार्थ कहता है। वैशेषिक दर्शन ने विषयों का सात प्रकार के पदार्थों में विभाजन किया है। इन सात पदार्थों में द्रव्य सार्वधिक महत्वपूर्ण है, ऐसा इसलिए है कि ....
Question : सांख्य की पुरुष की संकल्पना।
(2005)
Answer : पुरुष सांख्य दर्शन का आत्म तत्व है। सांख्य दर्शन पुरुष के विषय में तीन प्रश्नों पर विचार करता है- पुरुष का स्वरूप क्या है? पुरुष के अस्तित्व के क्या प्रमाण है? पुरुष एक है या अनेक। सांख्य दर्शन में पुरुष का स्वरूप प्रकृति के सर्वथा विपरीत माना गया है। चूंकि यह प्रकृति को त्रिगुणात्मिका, अविवेक, विषयी, ज्ञेय, अचेतन और सामान्य मानता है, अतः प्रकृति का विरूद्धधर्मी होने के कारण पुरूष त्रिगुणातीत, विवेकी, विषयी, ज्ञाता, विविक्त, ....
Question : जीव के जैन सिद्धान्त का कथन कीजिए और उस पर चर्चा कीजिए।
(2004)
Answer : जीव जैन दर्शन का आत्म तत्व है। यह एक अभौतिक तत्व है। यद्यपि जैन दर्शन एक नास्तिक विचारधारा है। तथापि उसका आत्मा सम्बन्धी विचार अन्य नास्तिक दर्शनों के आत्मा सम्बन्धी विचारों से भिन्न है। चार्वाक और बौद्ध नास्तिक विचारधाराओं में नित्य आत्मा के अस्तित्व का निषेध प्राप्त होता है चार्वाक दर्शन शरीर को ही आत्मा कहता है और चेतना उसका गुण। चाहे शरीर की तरह चेतना को भी चार महाभूता से उत्पन्न मानता है। उसके ....
Question : निर्वाण की प्रकृति एवं प्रकार।
(2004)
Answer : गौतम बुद्ध ने तृतीय आर्य सत्य में दुःख निरोध या निर्वाण का विवेचन किया। गौतमबुद्ध के समक्ष सबसे अहम् प्रश्न था कि किस प्रकार दुःखमय जीवन की समस्या को हल किया जाए। उन्होंने इसी समस्या के निदान हेतु द्वितीय आर्य सत्य में प्रतीत्यसमुत्पाद के आधार पर दुःखों के कारण की खोज किया। उन्होंने अविद्या को सम्पूर्ण दुःख चक्र का मूलभूत कारण घोषित किया। पुनः उन्होंने तृतीय आर्य सत्य में इसी के आधार पर दुःख विरोध ....
Question : क्षणिकता के बौद्ध प्रत्यय का कथन कीजिए और उस पर चर्चा कीजिए।
(2004)
Answer : बौद्ध दर्शन में क्षर्णिकवाद अनित्यता का तार्किक विकास है, यह बुद्धोत्तर बौद्ध दर्शन में अस्तित्व में आया। गौतमबुद्ध ने स्वयं अनित्यतावाद के सिद्धांत का प्रतिपादन किया। गौतम बुद्ध का अनित्यतावाद का दार्शनिक सिद्धान्त प्रतीत्यसमुत्पाद के सिद्धांत से सिद्ध होता है। इसने सांसारिक वस्तुओं चेतन एवं अचेतन दोनों की अनित्यता एवं अस्थायित्व को प्रतिपादित किया। बुद्ध की स्थापना है कि संसार में कुछ भी स्थायी या नित्य नहीं है। यहां तक कि आत्मा कभी भी नित्य ....
Question : न्याय के अनुसार अनुमानों की प्रकृति एवं प्रकार।
(2004)
Answer : भारतीय प्रमाण मीमांसा में प्रथा के विभिन्न भेदों में अनुमिति प्रथा को वैशिष्टपूर्ण स्थान प्राप्त है। अनुमिति प्रथा के कारण या साधन या प्रमाण को अनुमान कहते हैं। व्युत्पत्ति की दृष्टि से अनुमान शब्द दो शब्दों के योग से बना है। अनु + मान। अनु का अर्थ है पश्चात और पश्चात का अर्थ है ज्ञान। इस प्रकार अनुमान का शाब्दिक अर्थ है- पश्चात ज्ञान या बाद में होने वाला ज्ञान। महर्षि गौतम ने अनुमान को ....
Question : जैन दर्शन के अनेकांतवाद का प्रतिपादन कीजिए। क्या वास्तविकता की यह सुसंगत थियोरी है? कारण प्रस्तुत कीजिए।
(2003)
Answer : जैन दर्शन की तत्वमीमांसा अनेकांतवाद है। अनेकांतवाद का अर्थ है कि वस्तु अनन्तधर्मात्मक है या वस्तु में अनेक धर्म होते हैं। उल्लेखनीय है कि अनेकांतवाद वस्तु को अनेक धर्मात्मक मानने के साथ उसे अनेक भी मानता है। यहां धर्म शब्द गुण या लक्षण या विशेषता के अर्थ है कि वस्तु अनन्त लक्षण या विशेषता के अर्थ मे आया है। वस्तु अनन्तधर्मात्मक है, का अर्थ है कि वस्तु में अनन्त गुण या अनन्त लक्षण होते हैं। ....
Question : विमुक्ति का सांख्य सिद्धांत।
(2003)
Answer : सांख्य दर्शन में विमुक्ति को कैवल्य के नाम से जाना जाता है। सांख्य दर्शन में यह घोषित किया गया है कि तीन प्रकार के दुःखों के अभिघात के कारण उनके विनाश के लिए जिज्ञासा होती है, ये हैं आध्यात्मिक आधिभौतिक एवं आधिदैविक। आध्यात्मिक दुःख वह है जो मनुष्य के आध्यात्मिक भौतिक स्वरूप के कारण होता है। यह जीव के शरीर या मन में उत्पन्न होता है। जैसे शारीरिक अव्यवस्थाओं तथा मानसिक अशान्ति से उत्पन्न दुःख। ....
Question : बौद्ध धर्म का क्षणिकवाद।
(2003)
Answer : गौतम बुद्ध ने स्वयं अनित्यतावाद के सिद्धांत का प्रतिपादन किया। क्षणिकवाद अनित्यतावाद का तार्किक विकास है जो बुद्धोत्तर बौद्ध दर्शन में अस्तित्व में आया। गौतम बुद्ध का अनित्यतावाद का दार्शनिक सिद्धांत प्रतीत्यसमुत्वाद के सिद्धांत से सिद्ध होता है कि इसने सांसारिक वस्तुओं- चेतन एवं अचेतन दोनों की अनित्यता एवं अस्थायित्व को प्रतिपादित किया। यह उल्लेखनीय है कि गौतम बुद्ध ने स्वयं अस्थायित्व एवं क्षणिकत्व में भेद किया है। उन्होंने आत्मा को क्षणिक तथा भौतिक वस्तुओं ....
Question : चार्वाक के द्वारा अनुमान का खण्डन स्वयं में अनुमान का एक प्रक्रम है। चर्चा कीजिए।
(2003)
Answer : अनुमान ज्ञान का एक परोक्ष साधन है, जिसमें पक्ष में हेतु के प्रत्यक्ष ज्ञान के आधार पर उसमें अदृष्ट साध्य का ज्ञान प्राप्त किया जाता है। जैसे, किसी स्थान विशेष में उठते हुए धुएं को देखकर वहां अदृष्ट अग्नि का ज्ञान अनुमिति प्रमा है और इस प्रमा का असाधारण साधन अनुमान प्रमाण है। सामान्यतः भारतीय परम्परा में अनुमान (परार्थानुमान) का निम्नलिखित स्वरूप है-
प्रतिज्ञा -पर्वत पर आग है।
हेतु-क्योंकि वहां धुआं है।
उदाहरण-जहां धुआं होता है वहां आग ....
Question : प्रकृति के विकास का सांख्य सिद्धान्त।
(2002)
Answer : सांख्य दर्शन का विकासवाद सृष्टि के उदभव और विकास का सिद्धान्त है। इसके विकासवाद की पृष्ठभूमि में इसका सत्यकार्यवाद का सिद्धान्त निहित है, जिसके अनुसार कार्य उत्पत्ति के पूर्व अपने उपादान कारण में व्यक्त रूप में विद्यमान रहता है। सृष्टि का उपादान कारण प्रकृति है। सम्पूर्ण सृष्टि उत्पति के पूर्व प्रकृतिमें विद्यमान रहता है। उल्लेखनीय है कि सांख्य दर्शन के अनुसार सृष्टि कोई नवीन उत्पत्ति नही हैं और प्रलय सृष्टि का विनाश नही हैं। प्रकृति ....
Question : चार्वाक के मत का प्रत्यक्ष ज्ञान ही ज्ञान का एकमात्र वैध स्रोत होता है, का कथन कीजिए और मूल्यांकन कीजिए।
(2002)
Answer : भारतीय विचारधारा में चार्वाक दर्शन एक प्रत्यक्षवादी भौतिकवादी और सुखवादी विचारधारा है। यह ज्ञानमीमांसा की दृष्टि से प्रत्यक्षवादी है। इसकी ज्ञानमीमांसा का महत्वपूर्ण पक्ष इसका ज्ञानमीमांसीय प्रत्यक्षवाद है, जिसमें प्रत्यक्ष के अतिरिक्त ज्ञान के अन्य सभी प्रमाणों की अस्वीकृति है। भारतीय दर्शन के विभिन्न सम्प्रदायों में ज्ञान के प्रमाणों की संख्या में मतभेद है। चार्वाक दर्शन को छोड़कर अन्य सभी सम्प्रदाय प्रत्यक्ष के साथ-साथ एक या अन्य प्रमाण की वैधता स्वीकार करते हैं। इन सबके ....
Question : आत्मा की न्याय दृष्टि।
(2002)
Answer : न्याय दर्शन के अनुसार आत्मा एक द्रव्य है जो शरीर, इन्द्रिय, मन एवं बुद्धि से भिन्न है। इसका कारण यह है कि आत्मा नित्य है, किन्तु शरीर, इन्द्रिय आदि अनित्य है। शरीर, इन्द्रिय, मन एवं बुद्धि आदि आत्मा के साधन हैं, वह इनका प्रयोग करता है। आत्मा शरीर नहीं है, क्योंकि शरीर की अपनी चेतना नहीं है। ज्ञानेन्द्रियों की आत्मा नहीं है, क्योंकि कल्पना, स्मृति, विचार आदि मानसिक व्यापार इन्द्रियों के कार्य नहीं हैं। पुनः ....
Question : अनेकांतवाद एवं सप्रभंगी नय के बीच का सम्बन्ध।
(2002)
Answer : अनेकांतवाद एवं सप्रभंगी नय एक ही सिद्धान्त के दो पक्ष हैं। अनेकांतवाद तत्वमीमासा का सिद्धान्त हैं जिसका अर्थ है कि संसार में अनन्त वस्तुए हैं और प्रत्येक वस्तु के अनन्त धर्म है। स्यादवाद एवं सप्तभंगी नय ज्ञानमीमांसा एवं तर्कशास्त्र का सिद्धान्त है। इसका अर्थ है कि मनुष्य का सम्पूर्ण ज्ञान एकांगी, आंशिक, अपूर्ण और सापेक्ष होता है। इस कारण उसका परामर्श भी आंशिक एवं सापेक्ष होता है। जैन दर्शन का प्रमुख सिद्धान्त है बहुलवादी एवं ....
Question : व्याप्ति की प्रकृति के न्याय वैशेषिक सिद्धान्त का मूल्याकंन करें।
(2001)
Answer : उल्लेखनीय है कि अनुमान प्रमाण को चार्वाक दर्शन के अतिरिक्त भारतीय दर्शन के सभी सम्प्रदाय स्वीकार करते हैं। अनुमान एक परोक्ष ज्ञान है, जो व्याप्ति पर आश्रित है। व्यप्ति अनुमान का प्राण नाड़ी है, जिसके अभाव में अनुमान सम्भव नहीं है। वस्तुतः व्याप्ति ही अनुमान प्रमाण से प्राप्त ज्ञान की प्रामाणिकता का निर्णायक है। अनुमान की प्रणाली में व्याप्ति की इसी महत्वपूर्ण भूमिका के कारण व्याप्ति ज्ञान को अनुमान का साधन माना जाता है।
व्याप्ति का ....
Question : प्रत्यक्षपरक त्रुटि का कुमारिल भट्ट का स्पष्टीकरण।
(2001)
Answer : प्रत्यक्षपरक कुमारिल भट्ट का सिद्धान्त विपरीत ख्यातिवाद कहलाता है। कुमारिल भी प्रभाकर की भांति यथार्थवादी हैं, किन्तुवे प्रभाकर के भ्रमविषयक अभावात्मक विचार को अस्वीकार करते हैं, क्योंकि उससे अनुभव की व्याख्या नहीं हो पाती। यह अभाव रूप या अज्ञान रूप है। अज्ञान रूप भ्रम किसी व्यक्ति को व्यवहार नहीं कर सकता। कुमारिल उपरोक्त कारणों से भ्रम की सत्ता स्वीकार करते हैं। कुमारिल भी प्रभाकर की भांति की वस्तु को दो भागों में विभाजित करता है, ....
Question : नागार्जुन का शून्यवाद का बचाव।
(2001)
Answer : बौद्ध दर्शन की महायान शाखा का एक प्रमुख दार्शनिक निकाय माध्यमिक शून्यवाद है। बुद्ध के द्वारा प्रतिपादित मध्यम मार्ग का प्रबल समर्थक होने के कारण इसे ‘माध्यमिक’ की संज्ञा दी गई है तथा शून्य को परमार्थ तत्व मानने के कारण इसे शून्यवादी कहा गया है। शून्यवाद बौद्ध दार्शनिकों के तार्किक बुद्धि के चरम स्थिति को परिलक्षित करता है। संकीर्ण अर्थ में शून्य को असत् अभाव अस्तित्व विहीनता, पूर्णतः निषेध आदि के रूप में लिया जाता ....
Question : अपने पुरूष सिद्धान्त के विषय में सांख्य के ओचित्य स्थापन का मूल्यांकन कीजिए।
(2001)
Answer : सांख्य दर्शन एक द्वैतवादी विचारधारा है। इसमें दो परस्पर स्वतंत्र और निरपेक्ष तत्व स्वीकार किये जाते हैं। ये है- पुरूष एवं प्रकृति। इस विचारधारा में पुरूष सिद्धान्त का विशेष महत्व है क्योंकि सांख्य दर्शन की मान्यता है कि पुरूष के कैवल्यार्थ ही प्रकृति से सम्पूर्ण सृष्टि का विकास होता है। पुरूष सांख्य दर्शन का आत्म तत्व है। सांख्य दर्शन में पुरूष का स्वरूप प्रकृति के सर्वथा विपरीत है। प्रकृति के विरूद्धधर्मी होने के कारण पुरूषका ....
Question : चार्वाक सम्प्रदाय का नीतिशास्त्र।
(2000)
Answer : चार्वाक दर्शन का नैतिक विचार उसकी ज्ञान मीमांसा एवं तत्वमीमासा का साक्षात परिणाम है। उल्लेखनीय है कि चार्वाक दर्शन की ज्ञान मीमांसा प्रत्यक्षवादी है, जिसमें एकमात्र प्रत्यक्ष के प्रमाणत्व की स्वीकृति है तथा अन्य प्रत्यक्षेतर प्रमाणों का निषेध है। उसी प्रकार चार्वाक दर्शन की तत्त्वमीमांसा भौतिकवादी है, जिसमें ईश्वर एवं नित्य आत्मतत्व की सत्ता का निषेध है, केवल जड़तत्व की सत्ता की स्वीकृति है और जड़तत्वों से ही सम्पूर्ण चराचर जगत की उत्पत्ति दिखाने का ....
Question : सप्तभंगीनय।
(2000)
Answer : स्याद्वाद का प्रमाण सप्तभंगीनय है। इसका अर्थ है किसी वस्तु के विषय में परामर्श या नय के सात प्रकार। सप्तभंगी नय द्वारा किसी वस्तु के विषय नानाविध धर्मों का निश्चय किया जा सकता है। ये बिना किसी आत्म विरोध के अलग अलग या संयुक्त रूप से किसी वस्तु के विषय में विधान या निषेध करते हैं और इस प्रकार किसी वस्तु के अनेक धर्मों का प्रकाशन करते हैं। उल्लेखनीय है कि स्यादवाद ज्ञान की सांयक्षता ....
Question : प्रकृति की सत्ता के लिए सांख्य तर्क।
(1999)
Answer : सांख्य दर्शन की द्वैतवादी विचारधारा में पुुरूष के अतिरिक्त द्वितीय तत्व अव्यक्त या प्रकृति है। यह विश्व का मूल कारण है। सम्पूर्ण विविधताआें से परिपूर्ण यह जगत प्रकृति से ही उत्पन्न है। सांख्य दर्शन विश्व के मूल कारण की खोज के प्रयास में प्रकृति की सत्ता का अनुमान करता है। सांख्य दर्शन युक्तियां के आधार पर प्रकृति की सत्ता को सिद्ध करता है। इस प्रसंग में सांख्यकारिका में निम्नलिखित युक्तियां प्राप्त होती हैं:
Question : अनेकांतवाद के पक्ष में जैन तर्क।
(1999)
Answer : जैन दर्शन की तत्वमीमांसा अनकांतवादी है, जिसमें वस्तु अनन्त धर्मात्मक मानी जाती है। अनन्तधर्मात्मक होने के कारण उसका स्वरूप अत्यधिक जटिल होता है। वस्तु के अनन्त धर्मों का ज्ञान मात्र केवली को होता है, क्योंकि वह सर्वज्ञ है। सर्वज्ञ वह है जो किसी वस्तु का सभी दृष्टियों से जानता है। उसके अनुसार यदि कोई व्यक्ति किसी वस्तु को सभी दृष्टियों से जानता है। साधारण मनुष्य का ज्ञान अत्यधिक सीमित होता है, क्योंकि वह किसी वस्तु ....
Question : ख्याति सम्बन्धी पूर्व मीमांसा मत।
(1999)
Answer : मीमांसा दर्शन के स्वतः प्रामाण्यवाद के अन्तर्गत ज्ञान स्वतः प्रमाण होता है। इसमें प्रत्येक ज्ञान स्वतः सत्य होता है। इसमें अप्रामाणिक एवं अयथार्थ ज्ञान को अस्वीकार किया जाता है किन्तु रज्जु में सर्प का अनुभव, शुक्तिका में रजत का अनुभव, भांतिपूर्ण अनुभव हैं और ये स्वतः प्रमाण ज्ञान के प्रतिकूल हैं तो भ्रम (ख्याति) क्यों होता है? अन्य यथार्थवादी विचारधाराओें के समान मीमांसा दर्शन भी इस समस्या पर विचार करता है। मीमांसा दर्शन के दोनों ....
Question : कारणता सम्बन्धी न्याय मत।
(1999)
Answer : न्याय दर्शन में अन्य वर्ग प्राप्ति के लिए तत्वज्ञान आवश्यक माना गया है। अतः वह तत्वज्ञान की प्राप्ति के लिए प्रमा, प्रमेय एवं प्रमाणों की विस्तृत विवेचना करता है। उसके तत्व चिन्तन या प्रमेय मीमांसा का आधार उसका कारण सम्बन्धी विचार है। न्याय दर्शन में कारण के विषय में तीन प्रश्नों पर विचार किया गया है- (i) कारण क्या है? इसका स्वरूप क्या है? (ii) कार्य का कारण से क्या सम्बन्ध है? (iii) कारण कितने ....
Question : पुरूष बहुत्व का सिद्धान्त।
(1998)
Answer : भारतीय दर्शन में सांख्य एक द्वैतवादी विचारधारा के रूप में आख्यात है, जिसमें दो परस्पर स्वतंत्र और निरपेक्ष तत्व स्वीकार किये जाते हैं। वे हैं पुरूष और प्रकृति। इस द्वितत्ववादी विचारधारा में पुरूष सिद्धान्त का अत्यधिक महत्वपूर्ण स्थान है, क्योंकि सांख्य दर्शन की मान्यता है कि पुरूष के कैवल्यार्थ ही प्रकृति से सम्पूर्ण सृष्टि का विकास होता है। पुरूष सांख्य का आत्म तत्व है। सांख्य दर्शन पुरूष की अनकेता के सिद्धान्तका प्रतिपादन करता है। वह ....
Question : न्याय दर्शन के अनुसार अनुमान के स्वरूप एवं संरचना की विवेचना कीजिए तथा परार्थानुमान के विभिन्न सोपानों के महत्व की व्याख्या कीजिए।
(1998)
Answer : न्याय दर्शन के अनुसार यथार्थ अनुभव को प्रमा कहते हैं। प्रमा की प्राप्ति के साधन या करण को प्रमाण कहा जाता है। न्याय दर्शन में चार प्रमाण स्वीकार किए गये हैं। इनमें अनुमान एक महत्वपूर्ण प्रमाण है। इस अनुमान का क्षेत्र प्र्रत्यक्ष से व्यापक है, क्योंकि इसके द्वारा वर्तमान की दूरस्थ वस्तुओं के साथ-साथ एवं भविष्य का भी ज्ञान प्राप्त किया जाता है।
अनुमान दो शब्दों के योग से बना है- अनु+मान। यहां अनु का अर्थ ....
Question : एकान्तवाद और अनेकान्तवाद।
(1998)
Answer : जैन दर्शन की तत्वमीमांसा अनेकांतवाद है। अनेकांतवाद का अर्थ है कि वस्तु अनन्तधर्मात्मक है या वस्तु में अनेक धर्म होते हैं। उल्लेखनीय है कि अनेकांतवाद वस्तु को अनेक धर्मात्मक मानने के साथ उसे अनेक भी मानता है। यहां धर्म शब्द गुण, लक्षण या विशेषता के अर्थ में आया है। ‘वस्तु का अनन्तधर्मात्मक है’ का अर्थ है कि वस्तु में अनन्त गुण अनन्त लक्षण होते हैं। जैन दर्शन के अनुसार जिस आश्रय में धर्म होते हैं ....
Question : सांख्य मत के अनुसार प्रकृति के स्वरूप और उसके विकास की व्याख्या कीजिए।
(1997)
Answer : सांख्य दर्शन की द्वैतवादी विचारधारा में पुरूष के अतिरिक्त द्वितीय तत्व अव्यक्त या प्रकृति है यह विश्व का मूल कारण है। सांख्य दर्शन विश्व के मूल कारण की खोज के प्रयास में प्रकृति की सत्ता का अनुमान करता है। यह प्रकृति पुरूष का विरूद्धधर्मीहै। यह चेतनास्वरूप, त्रिगुणातीत एवं उदासीन पुरूष के विपरीत है। सांख्य दर्शन के अनुसार प्रकृति त्रिगुणात्मिका है। इसमें तीन गुण पाये जाते हैं। ये गुण हैं- सत्व, रजस और तमस। तीनों गुणों ....
Question : बोधिसत्व।
(1997)
Answer : महायान धर्म का नैतिक आदर्श बोधिसत्व की अवधारणा है। वह हीनयान धर्म के नैतिक आदर्श अर्हत की
अवधारणा से भिन्न है। महायान ने अपनी उदार प्रवृत्ति एवं प्रगतिशीलता के कारण हीनयान के स्वार्थवाद और आत्मकेन्द्रीयता का निषेध किया। फलस्वरूप उसने हीनयान के आदर्शको भी अस्वीकार कर दिया। महायान अपनी उदारवृत्ति के कारण न तो व्यक्तिगत निर्वाण को आदर्श बना सका और न कुछ लोगों के निर्वाण को। उसने एक ऐसे आदर्श को स्वीकार किया जिसमें प्राणिमात्र ....
Question : स्वतः प्रामाण्य और परतः प्रामाण्य।
(1997)
Answer : प्रामाण्यवाद भारतीय दर्शन की मुख्य समस्याओं में से एक है। इसमें ज्ञान की सत्यता एवं असत्यता को निर्धारित करने वाले सिद्धान्तों का अध्ययन किया जाता हैं। सांख्य दर्शन के अनुसार ज्ञान स्वतः प्रमाण एवं स्वतः अप्रमाण होता है। इसके ठीक विपरीत न्याय दर्शन की दृष्टि में ज्ञान का प्रमाणत्व एवं अप्रमाणत्व दोनों परतः होता है। बौद्ध दर्शन के अनुसार ज्ञान का प्रमाण्य परतः एवं अप्रामाण्य स्वतः होता है। मीमांसा दर्शन ज्ञान को स्वतः प्रमाण एवं ....