Question : शब्द प्रमाण की प्रकृति।
(2007)
Answer : भारतीय दर्शन में चार्वाक, बौद्ध एवं वैशेषिक को छोड़कर बाकी सभी दार्शनिक सम्प्रदायों में यथार्थ ज्ञान के साधन के रूप में शब्द प्रमाण की महत्ता को स्वीकार किया गया है। न्याय एवं मीमांसा दर्शन में शब्द प्रमाण पर विशेष रूप से चर्चा की गयी है। शब्दों एवं वाक्यों से प्राप्त ज्ञान शब्द प्रमाण के अन्तर्गत आते हैं, परन्तु सभी प्रकार के शब्द और वाक्य प्रमाण की कोटि में नहीं आते। केवल विश्वसनीय व्यक्ति का वचन ....
Question : न्याय प्रणित असत् कार्यवाद को विस्तार से स्पष्ट कीजिए।
(2007)
Answer : कारण कार्य के सम्बन्ध के विषय में न्याय दर्शन का सिद्धान्त असत्यकार्यवाद या आरम्भवाद कहलाता है। इसके अनुसार कार्य अपनी उत्पत्ति के पूर्व अपने कारण में असत या अविद्यमान रहता है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि कार्य का आरम्भ होता है। इसी कारण इसे आरम्भवाद भी कहते हैं। यह सांख्य दर्शन के सत्यकार्यवाद का विरोध करता है जिसमें कार्य अपनी उत्पत्ति के पूर्व अपने कारण में विद्यमान रहता है। सत्यकार्यवाद की सिद्धि के ....
Question : प्रमाणों की न्याय थ्योरी को स्पष्ट कीजिए।
(2006)
Answer : न्याय दर्शन में प्रमाण मीमांसा का महत्वपूर्ण स्थान है। इसमें मोक्ष प्राप्ति के लिए यथार्थ ज्ञान (प्रमा) को आवश्यक माना गया है। न्याय दर्शन वस्तुवादी है एवं ज्ञान को अनुभव करता है। अनुभव स्मृति भिन्न ज्ञान है। यथार्थ अनुभव को प्रमा कहते हैं। तर्क संग्रह के अनुसार किसी वस्तु का जो वह है उसी रूप में ज्ञान अनुभव प्रमा है। इस प्रकार न्याय दर्शन यथार्थता को प्रमा का लक्षण मानता है। उल्लेखनीय है कि मीमांसा ....