Question : सगुण तथा निर्गुण ब्रह्म में भेद का विवरण दीजिए और चर्चा कीजिए।
(2007)
Answer : शंकराचार्य के अद्वैतवाद का प्रतिपाद्य विषय ब्रह्म की एकमात्र सत्ता की स्वीकृति है। यहां ब्रह्म की धारणा सीधे उपनिषदों से ली गयी है। अद्वैतवाद की तत्वमीमांसा में ब्रह्म ही एकमात्र सत् है, जगत मिथ्या है और जीव भी परमार्थतः ब्रह्म है, ब्रह्म से अभिन्न नहीं। अद्वैतवाद में ब्रह्म के दो रूप माने जाते हैं- निर्गुण एवं सगुण। शंकर के अनुसार ब्रह्म पारमार्थिक दृष्टि से निर्गुण है। ब्रह्म को निर्गुण कहने का तात्पर्य यह नहीं है ....
Question : आचार्य रामानुज की तत्वमीमांसा पर चर्चा कीजिए।
(2006)
Answer : रामानुज की तत्वमीमांसा में ब्रह्म परमयथार्थता है। इनका ब्रह्म संबंधी विचार विशिष्टाद्वैत कहलाता है। इनके अनुसार ब्रह्म अद्वैत स्वरूप है, क्योंकि वहां न तो सजातीय भेद है और न ही विजातीय भेद है। कहने का आशय है कि न तो ब्रह्म के समरूप कोई अन्य तत्व है और न ब्रह्म से भिन्न, पृथक, स्वतंत्र कोई दूसरा तत्व। अतः ब्रह्म अद्वैत स्वरूप ही है। परन्तु वह चित्त और अचित हसे विशिस्ट है। यहां स्वगत भेद है। ....
Question : शंकर के मायावाद का परीक्षण कीजिए।
(2006)
Answer : अद्वैत वेदान्त में माया की अवधारणा आधारभूत महत्व रखती है। माया के विचार को अलग करके अद्वैतवाद को नहीं समझा जा सकता। इसलिए अद्वैतवाद को मायावाद भी कहा जाता है। शंकर के अनुसार परमार्थतः ब्रह्म ही एकमात्र सत् है। वह निर्गुण, निर्विशेष, एवं भेदरहित सत्ता है। उससे इतर कोई सत्ता नहीं है। किन्तु सांसारिक जीव कुछ अन्यथा ही अनुभव करता है। उसके अनुभव में जगत का प्रपंच एवं जीवों को विविधता आती है, अर्थात् उसे ....
Question : शंकर की ‘अध्यास’ की संकल्पना को सुष्पष्ट कीजिए।
(2005)
Answer : शंकराचार्य ने ब्रह्मसूत्रभाष्य के प्रारंभ में ‘अध्यास’ के प्रत्यय का विस्तृत विवेचन किया है। इसमें शंकराचार्य हमारे अनुभव और व्यवहार का विश्लेषण करते हैं। वास्तव में अध्यास विद्धांत अद्वैत वेदान्त की तार्किक कुंज्जी है। शंकर का कथन है कि शुद्ध चैतन्य स्वरूप आत्मा और प्रपंचात्मक जगत तथा शरीर (अचेतन बाह्य पदार्थ) प्रकाश और अंधकार की भांति परस्पर विरुद्ध स्वभाव वाले हैं और उनके गुण भी परस्पर विरुद्ध हैं। इनके गुणों का परस्पर आरोप नहीं होना ....
Question : माध्व के अनुसार ‘ब्रह्म’ जीव और जगत की प्रकृति।
(2005)
Answer : माध्वाचार्य की द्वैतवादी तत्वमीमांसा में ब्रह्म की एकमात्र स्वतंत्र तत्व है। उनके यथार्थवादी द्वैतवाद तत्वमीमांसा में ब्रह्म और ईश्वर एक ही तत्व हैं। ब्रह्म ही नारायण, दृष्टि, ईश्वर, परमेश्वर, वासुदेव, परमात्मा और विष्णु आदि नामों से जाना जाता है। पुनः ब्रह्म के साथ जीव और जगत की भी पारमार्थिक सत्ताहै। इस प्रकार माहवाचार्य ईश्वर के साथ जीव एवं जगत को भी अन्तिम सत्ता को स्वीकार करके शंकराचार्य के अद्वैतवाद एवं रामानुज के विशिष्टाद्वैत को अस्वीकार ....
Question : रामानुज के दर्शन को विशिष्टाद्वैत क्यों कहा जाता है, पूरी तरह से चर्चा कीजिए।
(2004)
Answer : रामानुज के दर्शन में ब्रह्म परमयथार्थता है। उनके ब्रह्म विचार को विशिष्टाद्वैतवाद कहते हैं। यह शंकर के अद्वैतवाद से भिन्न है। इसमें अद्वैत तत्व का समर्थन तो किया गया है, किन्तु विशेष अर्थ में। रामानुज के विशिष्टद्वैत पर उपनिषदों के ब्रह्मवाद और भागवत धर्म के ईश्वरवाद का प्रभाव है। अर्थात् रामानुज ने उपनिषदों के निर्गुण ब्रह्मवाद एवं भागवत धर्म के ईश्वर की पुरूषपरक अवधारणा में समन्वय करते हुए ब्रह्म के स्वरूप का विवेचन किया। इसके ....
Question : माधव की ‘मोक्ष’ की संकल्पना।
(2004)
Answer : अन्यान्य भारतीय दर्शनों की भांति माधव दर्शन में भी बन्धन और मोक्ष की समाया जीव से सम्बन्धित है। उल्लेखनीय है कि माधव वेदान्त में जीव एक अस्वतंत्र तत्व है। उसका कर्तृत्व एवं भोक्तृत्व ईश्वर प्रदत्त है। वह अपनी सत्ता के लिए ईश्वर पर निर्भर है। यद्यपि वह एक नित्य तत्व है। पुनः माधव दर्शन बन्धन और मोक्ष को भी ईश्वर का कार्य मानता है। यह दह वेदांत दर्शन जीव के केवल जीव के अज्ञान या ....
Question : शंकर द्वारा जीव के स्पष्टीकरण का वर्णन कीजिए। क्या पेश किया गया औचित्य प्रतिपादन तर्कसंगत है? स्पष्ट कीजिए।
(2003)
Answer : शंकर वेदान्त में जीव आत्मा या ब्रह्म का व्यावहारिक रूप है। यह अभौतिक और भौतिक तत्वों का योग्य है। इसका भौतिक तत्व चैतन्य है। यह चेतन रूप साक्षी (निष्क्रिय प्राणी) यह अन्तःकरण की वृत्रियों का द्रष्टा है। साक्षी स्वयंप्रकाश है और बिना किसी उपकरण के स्वतः अभिव्यक्त होता है। किन्तु इसका प्रत्यक्ष शरीर रूपी उपकरण में ही होता है। इसका भौतिक तत्व अन्तःकरण है जो अविद्या का परिणाम है। अन्तःकरण जीव की जाग्रत एवं स्वप्नावस्थाओं ....
Question : माया के अद्वैत कल्पना की रामानुज की आलोचना।
(2003)
Answer : शंकराचार्य माया के सहारे ही जगत को सिद्ध करते हैं। उनके अनुसार केवल कारण ब्रह्म ही सत् है। कार्य जगत मिथ्या है, माया है। माया की शक्ति के कारण ही ब्रह्म नानारूपात्मक जगत के रूप में प्रतीत होने लगता है। वस्तुतः नानारूपात्मक जगत मिथ्या है। इस परमार्थ सत्य एकत्व का ज्ञान होने पर नानात्व का निषेध हो जाता है। वस्तुतः नाना रूपात्मक मिथ्या है। रामानुज शंकर के माया सिद्धान्त को स्वीकार नहीं करते। रामानुज के ....
Question : ‘जबकि नास्तिक दर्शन ईश्वर के अस्तित्व को पूर्णंतया अस्वीकार कर देते हैं, आस्तिक दर्शन ईश्वर के अस्तित्व को केंद्रीय स्थिति प्रदान करते हुए प्रतीत नहीं होते’ इस टिप्पणी को स्पष्ट कीजिए और इसका मूल्यांकन कीजिए।
(2002)
Answer : वैचारिक स्वातंत्र्य एवं तज्जन्य विचार वैविध्य भारतीय विचारधारा की महत्वपूर्ण विशेषता रही है। प्रायः चिंतन का कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं है जिसको उसने स्पर्श न किया हो। इसके कारण भारतीयों में परस्पर विरोधी विचारों को सहन करने का अपूर्व साहस प्रारंभ से ही रहा। ऐसी स्थिति में यह सोचना कि कोई एक विषय (ईश्वर) ही भारतीय दर्शन का केंद्र बिंदु रहा हो एवं सभी सम्प्रदायों में ईश्वर विवेचन प्राप्त ही हो।
भारतीय दर्शन में दो ....
Question : रामानुज की युक्तियों के आधार पर शंकर के मोक्ष के विश्लेषण का मूल्यांकन कीजिए।
(2001)
Answer : शंकर के मोक्ष-मीमांसा के मूल में अद्वैत तत्वमीमांसा का वह सिद्धान्त निहित है, जिसमें आत्मा का ब्रह्म से और ब्रह्म का मोक्ष से तादात्म्य प्राप्त होता है। शंकर और रामानुज दोनों ही अविद्या या अज्ञान को बन्धन और दुख का कारण स्वीकार करते हैं। परन्तु मोक्ष के स्वरूप को लेकर दोनों में मतभेद है। शंकर के अनुसार मोक्ष नित्य प्राप्ति की प्राप्ति है। मोक्ष प्राप्ति जीव का केवल अपने नित्य स्वरूप का ज्ञान है जिसे ....
Question : वेदांत के द्वैततंत्र में पंचभेद सिद्धान्त बताए और उसका परीक्षण कीजिए।
(2000)
Answer : माध्वाचार्य तत्वमीमांसा की दृष्टि से द्वैतवादी यथार्थवादी है। उन्होंने शंकराचार्य के अद्वैतवाद या अभेदवाद के विरोध में द्वैतवाद (भेदभाव) का प्रतिपादन किया। उन्होंने शंकराचार्य के उस दृष्टिकोण को अस्वीकार किया जिसमें भेद के मिथ्यात्व का प्रतिपादन है। वे कट्टðर भेदवादी या द्वैतवादी हैं। उनका द्वैतवाद पाश्चात्य दर्शन के उस द्वैतवाद से भिन्न है। जिसमें दो अन्तिम सत्ताओं की स्वीकृति प्राप्त होती है। भारतीय दर्शन में उनका द्वैतवाद सांख्य दर्शन के द्वैतवाद से भी भिन्न है। ....
Question : शंकर की माया की संकल्पना के विरूद्ध रामानुज द्वारा उठाई गई आपत्तियों की समीक्षा कीजिए।
(2000)
Answer : शंकर ने अपने माया-सिद्धान्त के आधार पर ब्रह्म की पारमार्थिक सत्ता एवं जगत-जीव-प्रपंच के मध्य सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास किया। उनकी मान्यता है कि माया के कारण ही निर्गुण एवं भेदरहित ब्रह्म जीव-जगत प्रपंच के रूप में आभासित होता है। रामानुज शंकर के माया-सिद्धान्त का खण्डन करते हैं। रामानुज शंकर के विपरीत माया (प्रकृति)को ब्रह्म की वास्तविक शक्ति मानते हैं जिसके द्वारा वह सृष्टि रचना करता है। वे सात आक्षेपों के आधार पर शंकर ....
Question : व्यक्तिगत जीवात्माओं (जीवस) की प्रकृत्ति और वास्तविकता पर शंकर का मत।
(2000)
Answer : आचार्य शंकर के अनुसार जीव अपने यथार्थ रूप में ब्रह्म है। जीव अज्ञान या अविद्या की सृष्टि है। अतः जीव का कारण अज्ञान है। दूसरे शब्दों में, जीव ही अज्ञान का आश्रय है। अद्वैत वेदान्त में अज्ञान का आश्रय और विषय को लेकर मतभेद है। वाचस्पति मिश्र के अनुसार अज्ञान का आश्रय ही जीव है। सरेश्वराचार्य आदि के अनुसार अज्ञान का आश्रय ही जीव है। सरेश्वराचार्य आदि के अनुसार अज्ञान का आश्रय ओर विषय दोनों ....
Question : भारतीय विचारधारा के विभिन्न संप्रदायों में पाई जाने वाली कार्यकारणभाव संकल्पना का तुलनात्मक विवरण प्रस्तुत कीजिए।
(2000)
Answer : कारणता सिद्धांत भारतीय दर्शन में प्राचीनतम एवं प्रमुख सिद्धांत है, जिसके अनुसार प्रत्येक कार्य का कोई न कोई कारण होता है। परंतु कारण और कार्य के स्वरूप और उनके परस्पर संबंध को लेकर भारतीय दर्शन में विवाद है। इस संबंध में अनेक प्रकार के सिद्धांत प्रचलित हो गए हैं- जैसेः
सद्कार्यवाद कारणता संबंधी एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है। इसके समर्थकों में सांख्य, रामानुज ....
Question : मोक्ष के स्वरूप विषयक शंकर के मत की व्याख्या कीजिए। उनके मतानुसार कर्म और ज्ञान का मोक्ष से क्या सम्बन्ध है? अपने उत्तर के समर्थन में तर्क दीजिए।
(1999)
Answer : शंकराचार्य ने अपने अद्वैतवेदान्त में मोक्ष की बड़ी मौलिक व्याख्या की है। इनके मोक्ष मीमांसा के मूल में अद्वैत तत्वमीमांसा का वह सिद्धान्त निहित है जिसमें आत्मा का ब्रह्म से और ब्रह्म का मोक्ष से तादात्म्य प्राप्त होता है। अन्यायन्य भारतीय विचारधाराओं के समान वेदान्त भी अज्ञान या अविद्या को बन्धन और दुख का कारण स्वीकार करता है। इसमें मोक्ष और इसकी प्राप्ति का साधन केवल प्रतीकात्मक महत्व रखता है, क्योंकि तत्वमीमांसा की दृष्टि से ....
Question : माध्व वेदान्त का आलोचनात्मक विवरण प्रस्तुत कीजिए।
(1998)
Answer : वेदान्त परम्परा में मध्वाचार्य द्वैतवाद के प्रवर्तक माने जाते हैं। इन्हें पूर्णप्रज्ञ एवं आनन्दतीर्थ भी कहते हैं। माध्वाचार्य ने अपने दार्शनिक चिन्तन में दो कार्य किया। प्रथम, उन्होंने अद्वैत विचारधारा को सदोष सिद्ध करके उसे उसके तत्वज्ञान के खोखलेपन को उद्घाटित किया। द्वितीय, उन्होंने वैष्णव परम्परा के भक्ति सिद्धान्त को तार्किक आधार पर प्रतिष्ठित किया।
माध्वाचार्य अन्य वैष्णव दार्शनिकों के समान प्रमाणमीमांसा की दृष्टि से एक यथार्थवादी विचारक हैं। ये ज्ञान को आत्मा का गुण मानते ....
Question : रामानुज के अनुसार ब्रह्म के स्वरूप की व्याख्या कीजिए तथा जीव एवं ब्रह्म के सम्बन्ध का विवेचन कीजिए।
(1998)
Answer : रामानुज के दर्शन में ब्रह्म परम यर्थाथता है। उनके ब्रह्म विचार को विशिष्टाद्वैतवाद कहते हैं। यह शंकर के अद्वैतवाद से भिन्न है। इसमें अद्वैत तत्व का समर्थन तो किया गया है, किन्तु विशेष अर्थ में। रामानुज के विशिष्टाद्वैतवाद पर उपनिपदों के ब्रह्मवाद एवं व भागवत धर्म के ईश्वरवाद का प्रभाव है, अर्थात् रामानुज ने उपनिषदों के निर्गुण ब्रह्मवाद एवं भागवत धर्म के ईश्वर की पुरूष परक अवधारणा में समन्वय करते हुए ब्रह्म के स्वरूपका विवेचन ....
Question : ‘ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्म हो जाता है।’ (ब्रह्मविद ब्रह्मैव भवत्ति)।
(1998)
Answer : अद्वैत वेदान्त के अनुसार परम सत एक अद्वैत रूप है। इसे ही आत्मतत्व या ब्रह्म तत्व कहते हैं। इस परम तत्व की उपलब्धि हमें आत्मगत एवं वस्तुगत दोनों विधियों से होती है। यही मोक्ष है। परम सत की अनुभूति शान्त में नहीं हो सकती। परम सत ब्रह्म का साक्षात्कार आत्मा की अनन्ता में ही हो सकता है। सभी आस्तिक दार्शनिक आत्मलाभ को ही परमलाभ या मोक्ष मानते हैं? आत्म लाभ आत्मा की अपने रूप में ....
Question : उपनिषदों के महावाक्य।
(1997)
Answer : आत्मा ही ब्रह्म है तथा बह्म ही आत्मा है। इन दोनों की अभिन्नता को बतलाने बाले श्रुति वाक्य अनेक हैं- अहं ब्रह्मास्मि अर्थात् ‘मैं ही ब्रह्म हूं’ अयात्मा ब्रह्म अर्थात् यह ‘आत्मा ही ब्रह्म है’ तत्वमसि अर्थात् ‘तुम वही हो’। ये सभी वाक्य आत्मा या ब्रह्म की अभिन्नता या एकता का प्रतिपादन करते हैं। इन्हें महावाक्य कहा जाता है। प्रश्न यह है कि इन महावाक्यों से अभेद अर्थ कैसे सिद्ध होता है। आपाततः तो यह ....
Question : भारतीय दर्शन के रूढि़वादी और विपंथितावादी दोनों ही प्रकार के विभिन्न संप्रदायों के आत्मा और उसके मोक्ष विषयक विभिन्न मतों के साम्य और वैषम्य को प्रस्तुत कीजिए।
(1997)
Answer : धार्मिक दृष्टि से मानव जीवन का चरम आदर्श आध्यात्मिक लक्ष्य की प्राप्ति को स्वीकार किया गया है। इस संदर्भ में भारतीय दार्शनिक संपद्रायों में मोक्ष की अवधारणा का अत्याधिक महत्व है। इनमें मोक्ष को ही परम पुरूषार्थ माना गया है। कैवल्य, निर्वाण, मुक्ति, परमार्थ आदि मोक्ष के ही समानार्थक शब्द हैं। भौतिकवादी चार्वाक दर्शन को छोड़कर अन्य सभी भारतीय दर्शन में मोक्ष को ही मनुष्य के जीवन का अंतिम लक्ष्य स्वीकार किया गया है। परंतु ....