Question : ईश्वर की निर्वैयक्तिक अवधारणा एवं प्रकृतिवादी अवधारणा के बीच भेद।
(2006)
Answer : ईश्वर की प्रकृतिवादी अवधारणा ईश्वर के स्वरूप के संबंध में स्थूल स्थिति है और ईश्वर के अस्तित्व के प्रारंभिक चरण को इंगित करती है, वहीं ईश्वर की निर्वैयक्ति अवधारणा ईश्वर स्वरूप के निर्माण के तृतीय चरण या परिष्कृत चरण को इंगित करती है। प्रकृतिवादी धारणा के अनुसार ईश्वर की कल्पना प्राकृतिक शक्तियों के रूप में की गयी है। इसमें प्रकृति एवं उसके अवयवों को शक्तिसंपन्न माना जाता है और उसके प्रति श्रद्धा, भक्ति, अराधना, प्रेम ....
Question : परम्परागत रूप में ईश्वर का एक गुण उसका सर्वशक्तिमान होना माना जाता है। परंतु कुछ आलोचकों के अनुसार सर्वशक्तिमान ईश्वर की अवधारणा विरोधाभासी है। प्रत्युत्तर में कुछ ईश्वरवादियों ने कथित विरोधाभास के समाधान का प्रयास किया है। विरोधाभास को वर्णित कीजिए एवं इसके समाधान के लिए किए गए प्रयासों का विवेचन कीजिए।
(2006)
Answer : ईश्वरवादियों के अनुसार ईश्वर शरीररहित, अभौतिक तथा विशुद्ध चैतन्य सत्ता है, जो अनादि अनंत, शाश्वत एवं स्वयंभू है और जो समस्त ब्रह्मांड के अस्तित्व का आदिकरण है। ईश्वर में तत्वमीमांसीय एवं नैतिक गुण असीमित मात्रा में अनिवार्य रूप से विद्यमान हैं। इस प्रकार आदिकाल से ही ईश्वरवादियों के उपास्य देवता को अत्यधिक शक्तिशाली माना जाता रहा है। कालांतर में बहुदेववाद के स्थान पर एकेश्वरवाद का विकास हुआ, तो मनुष्य एक ही ईश्वर को सर्वशक्तिमान समझने ....
Question : यदि ईश्वर सर्वज्ञ है तो मनुष्य स्वतंत्र नहीं है।
(2004)
Answer : ईश्वर को सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापक मानने के साथ-साथ सर्वज्ञ भी माना जाता है। ईश्वर की सर्वज्ञता का अर्थ यह है कि उसे जगत अर्थात् सभी भौतिक वस्तुओं, पेड़-पौधों तथा प्राणियों और भूत, वर्तमान एवं भविष्य की समस्त घटनाओं का पूर्ण ज्ञान है। इस जगत में ऐसी कोई वस्तु और घटना नहीं है, जिसे ईश्वर पूर्ण रूप से नहीं जानता। इस अर्थ में सर्वज्ञ होने के कारण ईश्वर का ज्ञान मनुष्य के ज्ञान से मूलतः भिन्न ....
Question : ईश्वर की निर्वैयक्तिक अवधारणा।
(2002)
Answer : यदि धार्मिक दृष्टि से ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार कर लिया जाए तो सर्वप्रथम यह प्रश्न उठता है कि ईश्वर का स्वरूप क्या है? ईश्वर की निर्वैयक्तिक अवधारणा ईश्वरीय स्वरूप के निर्माण के तृतीय चरण को इंगित करती है। यह ईश्वर निर्माण का परिष्कृत चरण है। ईश्वर के अवैयक्तित्वपूर्ण स्वरूप का तात्पर्य है कि ईश्वर निर्गुण, निराकार और निर्वैयक्तिक सत्ता है, जिसमें इच्छा, संकल्प, कल्पना, प्रयोजन, स्मृति आदि का पूर्णतः अभाव है। यहां निर्गुण का ....
Question : ईश्वर की अंतरवर्तिता और अनुभवातीतता के क्या अर्थ होते है? क्या ईश्वर वस्तुतः अंतर्वर्ती है या अनुभवातीत हैं?
(2002)
Answer : ईश्वर की अंतर्वर्तिता के अनुसार ईश्वर विश्व में व्याप्त है। ईश्वर संसार से अभिन्न है। ईश्वर संसार की प्रत्येक वस्तु में व्याप्त है। यह मत एक विशुद्ध एकतत्ववादी विचार है, क्योंकि यह ईश्वर से स्वतंत्र किसी सत्ता को नहीं मानता अर्थात् केवल ईश्वर ही सत्य है। ईश्वर के अंतर्वर्तितता का यह भी अर्थ है कि ईश्वर व्यक्तित्व रहित है। विश्व की सृष्टि अनिवार्यतः अर्थात् ईश्वर की प्रकृति का आवश्क परिणाम और निरूदेश्य है। अतः ऐसी ....
Question : ईश्वर का प्रकृतिवादी विचार।
(1999)
Answer : ईश्वर के संबंध में तीन प्रमुख धारणाएं हैं। इनमें ईश्वर की प्रकृतिवादी धारणा महत्वपूर्ण है। यदि धार्मिक दृष्टिकोण से ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार कर लिया जाए तो ईश्वर के स्वरूप के संबंध में समस्या उत्पन्न होती है। ईश्वर की प्रकृतिवादी अवधारणा ईश्वर के अस्तित्व के प्रारंभिक चरण को इंगित करती है। यह ईश्वर के संबंध में स्थूल स्थिति है। इसमें ईश्वर की स्थिति स्थूल तत्व के रूप में है। प्रकृतिवादी ईश्वर की अवधारणा का ....
Question : ईश्वर की व्यक्तिवादी अवधारणा।
(1997)
Answer : यदि धार्मिक दृष्टि से ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार कर लिया जाए तो प्रश्न उठता है कि ईश्वर का स्वरूप क्या है? इस संबंध में ईश्वर की अवधारणा का महत्वपूर्ण स्थान है। ईश्वर की व्यक्तिवादी अवधारणा ईश्वरीय स्वरूप के निर्माण के द्वितीय चरण को इंगित करती है, जो धार्मिक दृष्टिकोण से सर्वाधिक लोकप्रिय है। मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से व्यक्तित्व का अर्थ भौतिक एवं मानसिक गुणों के गत्यात्मक संगठन से लिया जाता है, जो व्यक्ति को उसके ....