भारत में कारीगर उद्योगों का उदय और पतन
भारत के पारंपरिक कारीगर उद्योग, बुनकर, धातु-शिल्पी, कुम्हार, बढ़ई, स्वर्णकार, हाथीदांत नक्काशीकार और जहाज़ निर्माता, प्राचीन भारत की अर्थव्यवस्था की रीढ़ थे। ब्रिटिश शासन से पहले भारत को “दुनिया की औद्योगिक कार्यशाला” कहा जाता था, क्योंकि यहाँ से बारीक वस्त्र, हस्तशिल्प और धातु उत्पाद विश्वभर में निर्यात होते थे। लेकिन अंग्रेज़ी उपनिवेशवाद के अधीन यह समृद्ध उद्योग-परंपरा धीरे-धीरे नष्ट हो गई, मशीन-निर्मित ब्रिटिश वस्तुओं की प्रतिस्पर्धा, औपनिवेशिक व्यापार नीतियाँ और निर्यात-केन्द्रित दोहन इसकी मुख्य वजहें बनीं।
पूर्व-औपनिवेशिक भारत में कारीगर उद्योगों का उत्कर्ष
प्राचीन और प्रारंभिक मध्यकाल
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काल |
प्रमुख केंद्र |
विशेषताएँ |
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मौर्य काल (321–185 ई.पू.) |
तक्षशिला, पाटलिपुत्र |
शिल्पों पर राज्य नियंत्रण, श्रेणियों (Guilds) की .... |
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