जनजातीय विद्रोह और उनका सामाजिक–राजनीतिक परिप्रेक्ष्य

औपनिवेशिक भारत में जनजातीय विद्रोह बार-बार और प्रायः हिंसक रूप में हुए।

  • ये विद्रोह पारंपरिक वन एवं भूमि अधिकारों पर व्यवस्थित अतिक्रमण, सांस्कृतिक स्वायत्तता के ह्रास, तथा बाहरी कानूनों और राजस्व प्रणालियों के थोपे जाने के विरुद्ध थे।
  • इनका प्रेरक तत्व भूमि से गहरा आध्यात्मिक सम्बन्ध था; उद्देश्य प्रायः पूर्व-औपनिवेशिक सामाजिक–राजनीतिक व्यवस्था की पुनर्स्थापना था, जो राष्ट्रीय आंदोलन के राजनीतिक स्वतंत्रता-लक्ष्य से भिन्न था।

विकास और स्वरूप

आंदोलन/काल

क्षेत्र एवं मुख्य कारण

प्रतिरोध का स्वरूप और लक्ष्य

सामाजिक–राजनीतिक परिणाम और विरासत

प्रारम्भिक प्रतिरोध (1857 से पूर्व)

कोल विद्रोह (1831, छोटानागपुर, बिहार/झारखंड): दिकुओं (बाहरी—हिन्दू साहूकार, नए जमींदार) का आगमन, भूमि-अधिकार का हनन, अत्याचारी कर और बेगार।

संगठित जन-आक्रमण: ....

क्या आप और अधिक पढ़ना चाहते हैं?
तो सदस्यता ग्रहण करें
इस अंक की सभी सामग्रियों को विस्तार से पढ़ने के लिए खरीदें |

पूर्व सदस्य? लॉग इन करें


वार्षिक सदस्यता लें
सिविल सर्विसेज़ क्रॉनिकल के वार्षिक सदस्य पत्रिका की मासिक सामग्री के साथ-साथ क्रॉनिकल पत्रिका आर्काइव्स पढ़ सकते हैं |
पाठक क्रॉनिकल पत्रिका आर्काइव्स के रूप में सिविल सर्विसेज़ क्रॉनिकल मासिक अंक के विगत 6 माह से पूर्व की सभी सामग्रियों का विषयवार अध्ययन कर सकते हैं |

संबंधित सामग्री

प्रारंभिक विशेष