संपत्ति के अधिकारों का उदय एवं धन का वितरण

प्राचीन भारत में “संपत्ति” (वस्तु या धन) का अर्थ केवल भूमि तक सीमित नहीं था, बल्कि इसमें पशुधन, सोना, दास, औज़ार और उत्पादन के साधन भी शामिल थे। संपत्ति के निजी स्वामित्व का विचार धीरे-धीरे विकसित हुआ, ऋग्वैदिक युग में यह सामूहिक कबीलाई नियंत्रण के रूप में था, जो बाद के समय में व्यक्तिगत भूमि स्वामित्व और राज्य राजस्व व्यवस्था में बदल गया। यह परिवर्तन एक समानतावादी पशुपालक समाज से स्तरीकृत कृषि समाज की ओर संक्रमण का प्रतीक था, जिसने आगे चलकर भारत की सामाजिक–आर्थिक संरचना को आकार दिया।

प्रागैतिहासिक एवं प्रारंभिक वैदिक पृष्ठभूमि: सामूहिक स्वामित्व

सिंधु सभ्यता ....

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