सामयिक
राजव्यवस्था और शासन:
जम्मू और कश्मीर के लिए परिसीमन आयोग
- यह एक ऐसा कदम है जो केंद्र शासित प्रदेश जम्मू और कश्मीर (J&K) में विधानसभा चुनावों का मार्ग प्रशस्त करेगा.केंद्र ने विधानसभा सीटों के नए परिसीमन की प्रक्रिया के साथ-साथ संसदीय निर्वाचन क्षेत्रों की सीमाओं के पुनर्सामंजस्य की प्रक्रिया शुरू कर दी है.
- विधायी मामलों के मंत्रालय (MLA) के एक अनुरोध के आधार पर, मुख्य चुनाव आयुक्त (CEC) ने चुनाव आयुक्त सुशील चंद्रा को जम्मू-कश्मीर के लिए प्रस्तावित परिसीमन आयोग के प्रतिनिधि के रूप में नामित किया है.
- 2019 से पहले जम्मू और कश्मीर राज्य में द्विसदनीय विधायिका, एक विधान सभा (निम्न सदन) और एक विधान परिषद (उच्च सदन) थी. अगस्त 2019 में भारत की संसद द्वारा पारित जम्मू और कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम ने इसे एक असंगठित विधायिका के साथ बदल दिया जबकि राज्य को केंद्र शासित प्रदेश में भी पुनर्गठित किया.
ज़रूरत
- यद्यपि जम्मू में आबादी पिछले कुछ वर्षों में बढ़ी है बावजूद इसके कश्मीर में विधानसभा क्षेत्रो का अनुपातिक रूप से बड़ा हिस्सा है. इसका मतलब है कि कश्मीर घाटी में मजबूत कोई एक पार्टी राज्य सरकार बनाने में सक्षम है.
जम्मू और कश्मीर में परिसीमन का इतिहास
- जम्मू और कश्मीर की लोकसभा सीटों का परिसीमन भारतीय संविधान द्वारा शासित है, लेकिन इसकी विधानसभा सीटों का परिसीमन (विशेष दर्जा समाप्त होने से पहले) जम्मू और कश्मीर संविधान तथा जम्मू और कश्मीर जन प्रतिनिधित्व अधिनियम - 1957 द्वारा अलग से शासित किया गया था.
- जहां तक लोकसभा सीटों के परिसीमन का सवाल है, 2002में हुए आख़िरी परिसीमन आयोग को यह काम नहीं सौंपा गया था. इसलिए जम्मू और कश्मीर कीसंसदीय सीटें 1971 की जनगणना के आधार पर परिसीमित हैं.
- राज्य में जब पिछली बार परिसीमन बहुत पहले 1995 में न्यायमूर्ति केके गुप्ता आयोग द्वारा अत्यंत कठिन परिस्थितियों किया गया था. तब यहाँ राष्ट्रपति शासन भी चल रहा था.
- इसके बाद 2002 में फारूक अब्दुल्ला की अगुवाई वाली सरकार ने जन अधिनियम अधिनियम-1957 और जम्मू-कश्मीर के संविधान की धारा 47 (3) में संशोधन करके 2026 तक परिसीमन पर रोक लगा दिया.
आयोग की संरचना
- परिसीमन आयोग अधिनियम - 2002 की धारा 3 के अनुसार, केंद्र द्वारा नियुक्त परिसीमन आयोग में तीन सदस्य होने चाहिए:
- चेयरपर्सन के रूप में सुप्रीम कोर्ट के एक सेवारत या सेवानिवृत्त न्यायाधीश
- सीईसी द्वारा नामित मुख्य चुनाव आयुक्त या चुनाव आयुक्त
- राज्य चुनाव आयुक्त पदेन सदस्य के रूप में
सौंपा गया कार्य
- परिसीमन पैनल केंद्रशासित प्रदेश को विधानसभा क्षेत्रों में विभाजित करके निर्वाचन क्षेत्रों की सीमा तय करेगा. इसके साथ कौन सा निर्वाचन क्षेत्रSC / ST के लिए आरक्षित होगा इसका भी निर्धारण परिसीमन पैनल द्वारा होगा.
- इसे UT की सीमाओं के समायोजन और संसदीय निर्वाचन क्षेत्रों की सीमा के विवरण का भी काम सौंपा गया है.
सीटों में वृद्धि
- अधिनियम के अनुसार, परिसीमन के बाद 2011 की जनगणना के आधार पर जम्मू और कश्मीर की विधानसभा में सीटों की संख्या 107 से बढ़कर 114 हो जाएगी.
- जम्मू और कश्मीर में कुल सीटों में से 24 सीटेंबारहमासी खाली रहती हैं क्योंकि उन्हें पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर (POK) के लिए आवंटित किया गया है.
- UT जम्मू-कश्मीर में लोकसभा की पांच सीटें होंगी, जबकि लद्दाख में एक सीट होगी.
परिसीमन क्या है?
- परिसीमन का शाब्दिक अर्थ है किसी देश या प्रांत के निर्वाचन क्षेत्रों की सीमा तय करने की क्रिया या प्रक्रिया.
- परिसीमन का काम एक उच्च शक्ति निकाय को सौंपा गया है. ऐसे निकाय को परिसीमन आयोग या सीमा आयोग के रूप में जाना जाता है.
उद्देश्य
- जनसंख्या के समान क्षेत्रों को समान प्रतिनिधित्व प्रदान करना.
- इसका लक्ष्य है भौगोलिक क्षेत्रों के एक निष्पक्ष विभाजन करना ताकि एक चुनाव में एक राजनीतिक दल को दूसरों के प्रति फायदा न हो.
संवैधानिक प्रावधान
- संविधान के अनुच्छेद 82 के तहत संसद,कानून द्वारा हर जनगणना के बाद परिसीमन अधिनियम लागू करती है. लागू होने के बाद, केंद्र सरकार एक परिसीमन आयोग का गठन करती है.जिसमें एक सेवानिवृत्त सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश, मुख्य चुनाव आयुक्त और संबंधित राज्य चुनाव आयुक्त शामिल होते हैं.
परिसीमन की प्रक्रिया
- अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित सीटों के निर्धारण (जहाँ उनकी जनसंख्या अपेक्षाकृत ज्यादा है) का कार्य आयोग को सौंपा गया है. यह सब नवीनतम जनगणना के आधार पर किया जाता है. आयोग के सदस्यों के बीच मतभेद के मामले में बहुमत की राय प्रबल होती है.
- जनता की बात सुनने के बाद यह आपत्तियों और सुझावों पर विचार करता है और यदि ज़रूरत हुई तो मसौदे के प्रस्ताव में परिवर्तन करता है.
- अंतिम आदेश भारत के राजपत्र और राज्य राजपत्र में प्रकाशित होता है और राष्ट्रपति द्वारा निर्दिष्ट तिथि पर लागू होता है.
अब तक परिसीमन आयोग
- अब तक 4 बार परिसीमन आयोगों का गठन किया गया है:
- 1952 में परिसीमन आयोग अधिनियम-1952 के तहत
- 1963 में परिसीमन आयोग अधिनियम-1962 के तहत
- 1973 में परिसीमन आयोग अधिनियम-1972 के तहत
- 2002 में परिसीमन आयोग अधिनियम-2002 के तहत.
- 1981 और 1991 में जनगणना के बाद कोई परिसीमन नहीं हुआ.
महत्व
- चुनावी सीमाओं का परिसीमन इन निर्वाचन क्षेत्रों के भीतर रहने वाले मतदाताओं, राजनीतिक समूहों और समुदायों के हितों के साथ-साथ इन निर्वाचन क्षेत्रों की सेवा के लिए चुने गए प्रतिनिधियों के लिए बड़े परिणाम हो सकते हैं. अंततःनिर्वाचन क्षेत्र की सीमाओं से चुनाव परिणाम और विधायिका की राजनीतिक संरचना प्रभावित हो सकती है.
- चुनावी सीमा, परिसीमन प्रक्रिया और इसके प्रभाव के महत्व को पहचानने में विफलता से इसके जटिल परिणाम हो सकते हैं: यदि हितधारकों को संदेह है कि चुनावी सीमाओं का गलत तरीके से हेरफेर किया गया है जो कुछ समूहों को दूसरों की कीमत पर लाभान्वित कर रहा है. इससे चुनाव प्रक्रिया और उसके परिणाम की विश्वसनीयता और वैधता प्रभावित होगी.
- परिसीमन, लोकतंत्र एक अभिन्न अंग है जो प्रभावी प्रतिनिधित्व और बेहतर शासन व्यवस्था प्राप्त कराने में मदद करता है. इसके भीतर जितनी कम अड़चनें होंगीउतना ही यह अपने उद्देश्य में योगदान दे पायेगा.
विशेष श्रेणी का दर्जा (SCS)
- हाल ही में आंध्र प्रदेश सरकार ने केंद्र सरकार से विशेष श्रेणी का दर्जा (SCS) प्रदान करने की मांग की है. उन्होंने पूर्ववर्तीकेंद्र सरकार द्वारा किये वादे का हवाला देते हुए यह मांग की.
पृष्ठभूमि
- राज्य के विभाजन के दौरान केंद्र में कांग्रेस सरकार थी. तत्कालीन सरकार ने आंध्र प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा देने का वादा किया था. उसका कहाना थाकि राज्य के प्रगति में मदद के लिए विशेष दर्जे को 5 साल के लिए बढाया जायेगा. इसके अतिरिक्त भारतीय जनता पार्टी ने 2014 आमचुनाव प्रचार के दौरान राज्य को विशेष दर्जा देने की बात कही थी.
- आंध्र प्रदेश के अलावा बिहार, उड़ीसा, राजस्थान और पश्चिम बंगाल विशेष श्रेणी के दर्जे की मांग कर रहे हैं.
आंध्र प्रदेश विशेष श्रेणी के दर्जे की मांग क्यों कर रहा है?
- प्रदेश के विशेष श्रेणी के दर्जे की मांग का मुख्य आधार ‘राजस्व के क्षेत्र में होने वाला भारी नुकशान’ है. दरअसल हैदराबाद को तेलंगाना में शामिल होने से आंध्र ने राजस्व का एक महत्वपूर्ण हिस्सा खोया है.
आंध्र को विशेष राज्य के दर्जे की मांग को केंद्र सरकार क्यों नकार रही है?
- फरवरी 2015 में संसद के भीतर14वां वित्त आयोगपेश किया गया. यह आयोगविशेष दर्जेके राज्यों व अन्य राज्यों के बीच के अंतर को समाप्त करता है. आयोग ने राज्यों के करों में 32% के बजाय 42% कीउच्च हिस्सेदारी की सिफारिश कीऔरजरूरत पड़ने पर आंध्र प्रदेशजैसे राज्यों के लिए ‘राजस्व घाटा अनुदान’ देने की बात की.अर्थात राज्यों के विशेष दर्जे का प्रावधान समाप्त हो चुका है तो आंध्र को देने का कोई सवाल ही नहीं रहा.
- हाल ही में15 वें वित्त आयोग ने 2020-21 के लिए अपनी अंतरिम रिपोर्ट सौंपी.जिसमें स्पष्ट कर दियागया है कि विशेष श्रेणी की स्थिति की मांग पूरी तरह से केंद्र सरकार के क्षेत्र के अधीन है. जो किसी भी राज्य को लेकर उचित समय में उचितमहत्वताको ध्यान में रखते हुए उचित निर्णय ले सकती है.
- हैदराबाद, सूचना प्रौद्योगिकी (IT) और फार्मा का केंद्रहै. इसके अलग होने से नुकसान के बावजूद2017-18 और2013-14 के बीच तेलंगाना के 8.6% की तुलना आंध्र में10% वार्षिक वृद्धि हुई है. एक वित्तीय अनुमान के अनुसार 2018-19 में राजकोषीय घाटा तेलंगाना के 3.5% की तुलना आंध्र में 2.8% हुआ.
विशेष श्रेणी की स्थिति (Special Category Status) क्या है?
- विशेष श्रेणी की स्थिति (SCS), केंद्र द्वारा किया गया वर्गीकरण हैजो उन राज्यों के विकास में सहायता के लिए दिया जाता हैजो भौगोलिक, सामाजिकऔर आर्थिक नुकसान का सामना कर रहे हैं. जैसे पहाड़ी इलाके वाले राज्य,अंतरराष्ट्रीय सीमाओं से लगे हुए राज्य,आर्थिक और ढांचागत पिछड़ेपन वाले राज्य और गैर-व्यवहार्य वित्त वाले राज्य.
- संविधान में भारत के किसी भी राज्य को विशेष श्रेणी के दर्जा (SCS) वाले राज्य के रूप में वर्गीकृत करने का कोई प्रावधान शामिल नहीं है.
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
- विशेष श्रेणी की स्थिति की अवधारणा पहली बार 1969 में शुरू की गई.जब पांचवें वित्त आयोग ने कुछ वंचित राज्यों को केंद्रीय सहायता और रियायत, विशेष विकास बोर्ड की स्थापना,स्थानीय सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थाओं में आरक्षण इत्यादि प्रदान करने के लिए मांग की.
- इस सूत्र का नाम योजना आयोग के तत्कालीन उपाध्यक्ष डॉ.गाडगिल मुखर्जी के नाम पर रखा गया है. यह केंद्र द्वारा राज्यों को विभिन्न योजनाओं के तहत सहायता प्रदान करने से संबंधित है.
- शुरूआत मेंतीन राज्यअसम, नागालैंड और जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा प्राप्त था. लेकिन 1974-1979 तकपाँच अन्य राज्यों को विशेष श्रेणी में जोड़ा गया. इनमें हिमाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय, सिक्किम और त्रिपुरा शामिल हैं.
- 1990 मेंअरुणाचल प्रदेश और मिजोरम को मिलाकर इस सूची में 10 राज्यशामिल हो गए. उत्तराखंड राज्य को 2001 में विशेष श्रेणी का दर्जा दिया गया.
- 2015 में योजना आयोग को समाप्त करके नीति आयोग (NITI Aayog) का गठन किया गया. जिसके बाद 14 वें वित्त आयोग की सिफारिशों को लागू किया गया.
नोट: जम्मू और कश्मीर (J & K) को अनुच्छेद 370 के अनुसार एक विशेष दर्जा वविशेष श्रेणी के राज्य दर्जा भीप्राप्त था । लेकिन वर्तमान में अनुच्छेद 35A को समाप्त कर दिया गया है. यह विधायिका के साथ एक केंद्र शासित प्रदेश बन गया है. जिसकी वजह से जम्मू-कश्मीरपर विशेष श्रेणी का दर्जा अब लागू नहीं होता है।
विशेष श्रेणी के दर्जे के लिए मानदंड
- पहाड़ी और कठिन इलाका
- भौगोलिक अलगाव
- कम जनसंख्या घनत्व या जनजातीय आबादी का बड़ा हिस्सा
- पड़ोसी देशों के साथ सीमाओं के साथ रणनीतिक स्थान
- आर्थिक और ढांचागत (iinfrastructural)पिछड़ापन
- आर्थिक और बुनियादी ढांचा में पिछड़ापन
- राज्य वित्त की गैर-व्यवहार्य प्रकृति
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