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अनिवार्यता का सिद्धांत
हाल ही में, "अनिवार्यता का सिद्धांत" (Doctrine of Essentiality) समाचारों में है। इसके सम्बंध में निम्नलिखित कथनों पर विचार करें:
- इसे सर्वोच्च न्यायालय द्वारा विकसित किया गया था, जो कि केशवानंद भारती केस का परिणाम है।
- इसका प्रयोग आमतौर पर कानून की संवैधानिकता को निर्धारित करने के लिए किया जाता है, जिसका "बोलने की स्वतंत्रता" के साथ टकराव है।
नीचे दिए गए कूट से सही कथन का चयन करें:
A |
केवल I
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B |
केवल II
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C |
I और II दोनों
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D |
न तो I और न ही II
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Explanation :
"अनिवार्यता का सिद्धांत" वर्ष 1954 में शिरूर मठ मामले में सुप्रीम कोर्ट के सात न्यायाधीशीय बेंच का नतीजा है। अदालत ने कहा कि "धर्म" शब्द में सभी अनुष्ठानों और प्रथाओं को एक धर्म के लिए "अभिन्न"अंग के रूप में शामिल किया जाएगा और एक धर्म के अनिवार्य और गैर-अनिवार्य प्रथाओं को निर्धारित करने की ज़िम्मेदारी खुद पर लेनी होगी। इसलिए जब भी अदालत को "धर्म" से संबंधित किसी भी प्रथा के सम्बंध में किसी भी मामले का फैसला करना पड़ता है, तो इस सिद्धांत को ध्यान में रखना पड़ता है। अतः उपरोक्त दोनों कथन गलत हैं।
इस सिद्धांत की आलोचना: कुछ संवैधानिक विशेषज्ञों का मानना है कि, अनिवार्यता के सिद्धांत ने अदालत को अपनी कार्य निर्वाह-क्षमता से परे एक ऐसी शक्ति प्रदान की है जिससे वे धार्मिक प्रश्नों पर निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र हैं।
प्रारंभिक परीक्षा के लिए यह प्रश्न इतना महत्वपूर्ण क्यों है?
"इस्माइल फारुकी मामले" में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि "इस्लाम के लिए प्रार्थना करना जरूरी है, लेकिन मस्जिद में प्रार्थना की पेशकश इस्लाम के लिए अभिन्न नहीं है" और इस फैसले ने अयोध्या मामले में समस्या का "पेंडोरा बॉक्स" (Pandora’s Box) खोला है। चूंकि यह अभी समाचारों में है, इसलिए यह प्रारंभिक परीक्षा के दृष्टिकोण से बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है।
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
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